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एक मां का रोना

मुंबई में एक लाल रंग की बस को सैकड़ों लोग घेरे हुए हैं.....उसमें एक अपराधी है जो राज ठाकरे को मारने आया है...भीड़ बस पर पत्थर फेंक रही है .... शीशों पर डंडे बरसा रही है...आखिर एक मराठी पर कोई हमला करने की सोच भी कैसे सकता है....कुछ वक्त बाद पुलिस आती है और एक शातिर (?) को गोली मार देती है। जो मारा जाता है वो राहुल राज है और जो जिंदा है वो राज। राहुल की मां पर जो बीती होगी .... उसकी कल्पना मियां मसरूफ ने की है। लाइव इंडिया न्यूज़ चैनल में entertainment desk में काम करते हैं और लिखते अच्छा हैं। आप भी देखिए--


गया तो ख़्वाब हज़ारों थे उसकी आंखों मे
जो आया लौट के तो ख्वाब बनके आया है..........................................!!!!
जिसे सुलाता था रातों को लोरियां देकर
जिसे चलाता था हाथों में उंगलियां देकर
कहां है वो जिसे आंखों का नूर कहता था
कहां है वो जिसे दिल का सुरूर कहता था...
मेरे मकान में तस्वीर उसकी आज भी है
दरीचे याद में डूबे हैं मां को आस भी है
तुम्हारी मां तेरे आने की राह तकती है
कहां हो तुम तेरे दीदार को सिसकती है...
तुम्हारी राखी है घर के अंधेरे ताख़ पे जो
बहन ने दी थी तुम्हें जिस वजह से याद है वो
उसी का कर्ज़ मेरे लाल तुम चुका जाते
तुम अपनी बहन के मिलने बहाने आ जाते...
कहां गए थे जो सीने में ज़ख़्म ले आए..
ये धब्बे खून के तुमने कहां पे हैं पाए
किसी ने तुमको बड़ी बेदिली से मारा है
तुम्हारी मां की भरी गोद को उजाड़ा है
सुना था देश के क़ानून में वफ़ा है बहोत़
सुना था इनकी अदालत में फैसला है बहोत
इन्हें कहो कि मेरा लाल मुझको लौटा दें
इन्हे कहो कि गुनहगार को सज़ा दे दें..
दुआएं देती थी तुझको जिये हज़ार बरस
दुआएं करती रही और गुज़र गया ये बरस
मगर ये क्या कि तुझे ये बरस न रास आया
तेरी उमीद भी की और तुझको ना पाया
कहां हो तुम मेरे नूर-ए-नज़र जवाब तो दो
कहां हो ऐ मेरे लख्त-ए-जिगर जवाब तो दो
कहां गए हो कि वीराना चारों सू है बहोत
कहां गए हो कि दुनिया में जुस्तजू है बहोत
कब कहां किसकी दुआओं के सबब आओगे
किस घड़ी ऐ मेरी उम्मीद के रब आओगे
कुछ तो बेचैनी मिटे मां की तेरे ऐ बेटा
ये बताने ही चले आओ कि कब आओगे...
तमाम शुद !!!!

--मसरूर

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एक खुला खत आतंकवादियों के नाम


प्रिय महानुभावो,


इस खत का मकसद उन गलतफहमियों को दूर करना है जो हमारे और आपके बीच हैं। जयपुर, बेंगलुरु, अहमदाबाद, दिल्ली और अब गुवाहाटी - हाल के इन आतंकी हमलों से यह एकदम साफ है कि आपके दिलों में बेहद गुस्सा है।

गुस्सा हमारे दिलों में भी बहुत है। पिछले छह दशकों से हर पांचवें साल चुनाव के कुछ हफ्तों के दौरान हमारे इस गुस्से की वजहें भूख, बेरोजगारी, बिजली, सड़क आदि मुद्दों के रूप में सामने आती रही हैं। लेकिन, यह चर्चा फिर कभी। सच बताएं तो कटे-फटे शरीर, बिखरे खून की तस्वीरें हमें विचलित कर देती हैं। यह खून आम आदमी का होता है, जो हर पांच साल के बाद आने वाले उस एक दिन के लिए जीता है, जब वह लंबी कतारों में खड़े होकर शांति से वोट देने के लिए अपनी बारी का इंतजार करता है। बाकी के दिन वह गलियों में रेंगता रहता है, क्योंकि मुख्य सड़कें प्राय: उन लोगों के काफिलों के लिए रिज़र्व रहती हैं जिन्हें वोट देकर वह सत्ता में पहुंचाता है।

मुझे पक्का यकीन है कि आपलोग हमारे ही आसपास के होंगे। आप भी उन स्कूलों में से किसी में जरूर गए होंगे जिन पर इस देश को इतना नाज़ है। जहां, शिक्षक अगर हों तो वे ऊंघते होते हैं, फर्नीचर हो तो वह टूटा-फूटा होता है, खाना हो तो वह सड़ा-गला होता है और मकान हो तो वह जर्जर होता है। उससे पहले आप लोग भी हमारे बीच ही पल-बढ रहे होंगे, जब नफरत ने आपको जकड़ लिया और आप वह बन गए जो कि आज आप हैं। आश्चर्य नहीं कि आप हमारे बारे में इतनी सारी बातें इतने अच्छे से जानते हैं। लेकिन, मैं आपको एक जरूरी बात बताना चाहता हूं। आप गलत लोगों को निशाना बना रहे हैं। हम लोग नाचीज़ हैं। हमारे खून का कोई रंग नहीं। हमारी जिंदगी का भी कोई मोल नहीं है। जिस दिन हम अपना प्रतिनिधि चुन लेते हैं, बस उसी दिन से हम जीना छोड़ देते हैं। उसके बाद से हमारे प्रतिनिधि ही जीते हैं। हालांकि, हम मरते नहीं, क्योंकि हमें पांच साल के बाद फिर वोट देना होता है और इस दौरान तरह-तरह के टैक्स भी चुकाते रहना होता है। हमारी कोई सुरक्षा नहीं, लेकिन हमारे प्रतिनिधि चौबीसो घंटे कड़ी सुरक्षा में रहते हैं।

हम अपना प्रतिनिधि इसलिए चुनते हैं ताकि वे हमारी शिकायतें सुन सकें। अगर आपको हम आम लोगों से कोई शिकायत है तो कृपया उनसे मुखातिब हों। उनका पता? सबसे आलीशान इलाकों की सबसे आलीशान इमारतें।

अग्रिम धन्यवाद

एक आम आदमी

--नवभारत टाइम्स से साभार

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गुस्सा थूकिये पाटिल साहब


पूज्य आर आर पाटिल साहब


पहली बार आपको लिख रहा हूं..इसलिए संबोधन में कौनो गुस्ताखी भई हो..त माफ करिएगा...लेकिन हम सोचे कि पूज्य तो आप हइयै हैं ... त ओहीं से सुरू करते हैं... आपको टीवी चैनल पर बड़ा गुस्सा में देखे आज...बहुत फायर हो रहे थे आप...का बात रही पाटिल साहब...राहुलवा प गुस्सा गए का ?...पागल है..अरे भाई, मारना ही था तो लाठी से मारता 10-20 बिहारियों के झुंड में आकर...जहां पा जाता मराठियों को वहीं मारता...उसी तरह जैसे मराठी मानुस बिहारियों को पीटे थे...एकदम सिवाजी का स्टाइल में...अचानक धोखे से सब काम ! लेकिन ओ जानता नहीं न था आप सब के बारे में कि कइसे लड़ते हैं आप सब...पत्ते नहीं था ससुरों को....लेकिन पाटिल साहब , ई मराठी मानुस अपनी ही ज़मीन पर आज तक कुछ कर काहे नहीं पाया...??? बस एक्के बात सीखा है ???? धोखे से मारना...पढ़ लिखकर नौकरी खोजने आए लोगों को ईंटा-पत्थर मारना ? लेकिन तब आपका इ नियम कहां गया था पाटिल साहब--कि गोली का बदला गोली से देंगे और पुलिस ने सब ठीक किया है.....ऐं..??? ई बयान के लिए आदेस मिला था का आपको-अरे ओही अपने पवार साहब से ? आपके गाडफादर भाई ?? अरे मरद आदमी हैं त सिवाजी की तरह नही...जयपरकास नारायण की तरह लड़िये न भाई....बिना लाठी के....औ राज ठाकरे के गुंडों को तो संभाल नहीं पाए लेकिन बिहारी भइयों पर अपना नियम चला दिए ? औ कहां तक लड़ियेगा बिहारियों और यूपी के भइयों से....आईएएस का तैयारी करता है भाई लोग... तो रेलवई का बाबू त बनबे करेगा न भाई कम से कम। आप कर लीजिये बराबरी उसका .... लेकिन उसकी बजाय आप मारपीट पर उतारू हैं...असावधान लोगों पर लाठी ???


जादा नहीं लिखेंगे..काहेकी हम सब ऊ लोग हैं जो कम में जादा बात करै वाले लोग हैं...लिखना थोर,समझना ढेर....आप भी समझिये....इ कुरसी वुरसी जादा दिन नहीं रहता.....कल को जब गद्दी पर से उतार दिये जाइएगा न...तो इहे पुलिस वाला लाठी मारेगा आपको ....ध्यान रखियेगा


आपैका सुभेच्छु

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मैं भी मराठी मानुस हूं...लेकिन..


मंगलवार को महाराष्ट्र में करीब 202 एसटी बसें , 350 टैक्सियां , 8 ऑटो , 115 बेस्ट बसें , 3 ट्रक और 4 प्राइवेट गाड़ियों को या तो जला दिया गया या फिर बुरी तरह से तोड़ दिया गया। इन्हीं क्षतिग्रस्त गाड़ियों में से एक मेरी गाड़ी है। राज ठाकरे की तरफ से दावा किया जाता है कि यह सब मराठी मानुस के लिए किया जा रहा है। चाहे कुछ भी क्यों न हो , यह बात तो तय है कि महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (एमएनएस) के नेता राज ठाकरे को आम महाराष्ट्रियन से तो कोई मतलब नहीं है। मुझे तो लगता है कि राज को खुद भी अंदाजा नहीं है कि उनकी लड़ाई किसके लिए है। राज ठाकरे की गिरफ्तारी की खबर के साथ ही मुझे अंदाजा हो गया था कि पूरा दिन जबरदस्त तरीके से हंगामाखेज़ होने वाला है। लेकिन एक पत्रकार और एक महाराष्ट्रियन होने के नाते मुझे पूरा यकीन था कि मैं पूरी तरह से सुरक्षित हूं। मुझे जरा भी अंदाजा नहीं था कि महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के ' ऐंटी नॉर्थ इंडियन ' आंदोलन का शिकार मैं बनूंगा। लेकिन मेरा यह विश्वास घर से ऑफिस जाते वक्त पलभर में ही टुकड़े-टुकड़े हो गया। मंगलवार को जैसे ही मैं अरुण कुमार वैद्य रोड से माहिम की तरफ मुड़ा , अचानक ही 4 लोग मेरी कार के सामने आ गए। मुझे लगा कि वे लोग शायद लिफ्ट मांगने के लिए रोक रहे हैं , क्योंकि रास्ते में कोई टैक्सी या गाड़ी नहीं दिखाई दे रही थी। मुझे लगा कि वे लोग किसी साधन के अभाव में मुझसे लिफ्ट लेने की गुजारिश करेंगे। लेकिन अगले ही पल मेरी इस आशावादिता की धज्जियां उड़ गईं। बिना कुछ जानने की कोशिश किए उनमें से दो लोगों ने मेरी कार के अगले शीशे पर बड़े-बड़े पत्थर दे मारे। इस दौरान तीसरा शख्स मेरी कार का पिछला शीशा तोड़ने में लगा था। मुझे आतंकित किया चौथे शख्स ने , मेरे कुछ भी कहने से पहले ही उसने मेरे ऊपर एक जलता हुआ टायर फेंक दिया। कार के अंदर ही भस्म हो जाने के डर से मेरे रोंगटे खड़े हो गए और मैं वहां से भाग खड़ा हुआ और तभी रुका जब मुझे सेंट माइकल चर्च के पास एक पुलिसवाला दिखाई दिया। फिर पुलिसवालों ने अपना पुलिसिया रवैया दिखाते हुए मेरी शिकायत दर्ज करने से पहले माहिम और बांद्रा पुलिस स्टेशनों के बीच दौड़ाया। लेकिन मेरी दिक्कत यह नहीं है कि मेरी शिकायत दर्ज क्यों नहीं हुई। मेरी कार भी कुछ दिनों में रिपेअर होकर सड़क पर दौड़ने लगेगी। मेरी असली दिक्कत है मेरा विश्वास , मेरा भरोसा जो अब टुकड़े-टुकड़े हो चुका है ! उस दिन छिन्न-भिन्न हो चुके मेरे विश्वास का क्या होगा ? मुंबई मिरर को दिए एक इंटरव्यू में राज ठाकरे ने कहा था कि उनके लोग किसी भी किस्म आंदोलन से पहले याचना करते हैं , वे कोई कार्रवाई करने से पहले चेतावनी या ज्ञापन देते हैं। उस दिन मेरी कार तोड़ने से पहले क्या किसी ने मुझसे पूछा ? मैंने मराठी मानुस से कौन सा अन्नाय किया था ? मैं खुद मराठी मानुस हूं , मैं यहीं पैदा हुआ और मेरी परवरिश यहीं हुई। मेरे पैरंट्स , मेरे पुरखे सभी मराठी हैं। मैं मराठी बोलता हूं , मराठी पढ़ता हूं और मराठी लिखता हूं। मैंने मराठी मीडियम के स्कूल में ही पढ़ाई की है , जैसा कि राज के अंकल (बाल ठाकरे) ने दशकों पहले ' आदेश ' दिया था (यह अलग बात है कि उनके खुद के पोते मराठी मीडियम के स्कूल में नहीं पढ़ते)। और तो और , बैंक के चेक पर मैं हस्ताक्षर भी मराठी में ही करता हूं। मैंने किसी महाराष्ट्रियन की नौकरी नहीं हड़पी।
दीपक लोखंडे
सिटी एडीटर, मुंबई मिरर
(नवभारत टाइम्स से साभार)

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राज ठाकरे की चिंता जायज है, तरीका गलत

" नीम का पत्ता कड़वा है, राज ठाकरे ... ड़वा है" (सपा की एक सभा में यह कहा गया और इसी के बाद यह सारा नाटक शुरू हुआ)। यह नारा मीडिया को दिखाई नहीं दिया, लेकिन अमर सिंह को "मेंढक" कहना और अमिताभ पर शाब्दिक हमला दिखाई दे गया। अबू आजमी जैसे संदिग्ध चरित्र वाले व्यक्ति द्वारा एक सभा में दिया गया यह वक्तव्य - मराठी लोगों के खिलाफ़ जेहाद छेड़ा जाएगा, जरूरत पड़ी तो मुजफ़्फ़रपुर से बीस हजार लाठी वाले आदमी लाकर रातोंरात मराठी और यह समस्या खत्म कर दूँगा - भी मीडिया को नहीं दिखा (इसी के जवाब में राज ठाकरे ने तलवार की भाषा की बात की थी)। लेकिन, मीडिया को दिखाई दिया और उसने पूरी दुनिया को दिखा दिया बड़े-बड़े अक्षरों में "अमिताभ के बंगले पर हमला ..." । बगैर किसी जिम्मेदारी के बात का बतंगड़ बनाना मीडिया का शगल हो गया है।

अमिताभ यदि उत्तरप्रदेश की बात करें तो वह ' मातृप्रेम ' , लेकिन यदि राज ठाकरे महाराष्ट्र की बात करें तो वह सांप्रदायिक और संकीर्ण ... है ना मजेदार!!! मैं मध्यप्रदेश में रहता हूँ और मुझे मुम्बई से कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन मीडिया, सपा और फ़िर बिहारियों के एक गुट ने इस मामले को जैसा रंग देने की कोशिश की है, वह निंदनीय है। समस्या को बढ़ाने, उसे च्यूइंगम की तरह चबाने और फ़िर वक्त निकल जाने पर थूक देने में मीडिया का कोई सानी नहीं है। सबसे पहले आते हैं इस बात पर कि "राज ठाकरे ने यह बात क्यों कही?" इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि जबसे (अर्थात गत बीस वर्षों से) दूसरे प्रदेशों के लोग मुम्बई में आने लगे और वहाँ की जनसंख्या बेकाबू होने लगी तभी से महानगर की सारी मूलभूत जरूरतें (सड़क, पानी, बिजली आदि) प्रभावित होने लगीं, जमीन के भाव अनाप-शनाप बढ़े जिस पर धनपतियों ने कब्जा कर लिया। यह समस्या तो नागरिक प्रशासन की असफ़लता थी, लेकिन जब मराठी लोगों की नौकरी पर आ पड़ी (आमतौर पर मराठी व्यक्ति शांतिप्रिय और नौकरीपेशा ही होता है) तब उसकी नींद खुली। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
वक्त के मुताबिक खुद को जल्दी से न ढाल पाने की बहुत बड़ी कीमत चुकाई स्थानीय मराठी लोगों ने, उत्तरप्रदेश और बिहार से जनसैलाब मुम्बई आता रहा और यहीं का होकर रह गया। तब पहला सवाल उठता है कि उत्तरप्रदेश और बिहार से लोग पलायन क्यों करते हैं? इन प्रदेशों से पलायन अधिक संख्या में क्यों होता है दूसरे राज्यों की अपेक्षा? मोटे तौर पर साफ़-साफ़ सभी को दिखाई देता है कि इन राज्यों में अशिक्षा, रोजगार उद्योग की कमी और बढ़ते अपराध मुख्य समस्या है, जिसके कारण आम सीधा-सादा बिहारी यहाँ से पलायन करता है और दूसरे राज्यों में पनाह लेता है। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि उत्तरप्रदेश और बिहार से आए हुए लोग बेहद मेहनती और कर्मठ होते हैं (हालांकि यह बात लगभग सभी प्रवासी लोगों के लिए कही जा सकती है, चाहे वह केरल से अरब देशों में जाने वाले हों या महाराष्ट्र से सिलिकॉन वैली में जाने वाले)। ये लोग कम से कम संसाधनों और अभावों में भी मुम्बई में जीवन-यापन करते हैं, लेकिन वे यह जानते हैं कि यदि वे वापस बिहार चले गए तो जो दो रोटी यहाँ मुम्बई में मिल रही है, वहाँ वह भी नहीं मिलेगी।
इस सब में दोष किसका है? जाहिर है, उन्हीं का, जिन्होंने गत पच्चीस वर्षों में इस देश और इन दोनो प्रदेशों पर राज्य किया। यानी कांग्रेस को छोड़कर लगभग सभी पार्टियाँ। सवाल उठता है कि मुलायम, मायावती, लालू जैसे संकीर्ण सोच वाले नेताओं को उप्र-बिहार के लोगों ने जिम्मेदार क्यों नहीं ठहराया? क्यों नहीं इन लोगों से जवाब-तलब हुए कि तुम्हारी घटिया नीतियों और लचर प्रशासन की वजह से हमें मुंबई पलायन करना पड़ता है? क्यों नहीं इन नेताओं का विकल्प तलाशा गया? क्या इसके लिए राज ठाकरे जिम्मेदार हैं? आज उत्तरप्रदेश और बिहार पिछड़े हैं, गरीब हैं, वहाँ विकास नहीं हो रहा तो इसमें किसकी गलती है? क्या कभी यह सोचने की और जिम्मेदारी तय करने की बात की गई? उल्टा हो यह रहा है कि इन्हीं अकर्मण्य नेताओं के सम्मेलन मुम्बई में आयोजित हो रहे हैं, उन्हीं की चरण वन्दना की जा रही है जिनके कारण पहले उप्र-बिहार और अब मुम्बई की आज यह हालत हो रही है।
उत्तरप्रदेश का स्थापना दिवस मुम्बई में मनाने का तो कोई औचित्य ही समझ में नहीं आता। क्या महाराष्ट्र का स्थापना दिवस कभी लखनऊ में मनाया गया है? लेकिन अमरसिंह जैसे धूर्त और संदिग्ध उद्योगपति कुछ भी कर सकते हैं और फ़िर भी मीडिया के लाड़ले (?) बने रह सकते हैं। मुम्बई की एक और बात मराठियों के खिलाफ़ जाती है, वह है भाषा अवरोध न होना। मुम्बई में मराठी जाने बिना कोई भी दूसरे प्रांत का व्यक्ति कितने भी समय रह सकता है। यह स्थिति दक्षिण के शहरों में नहीं है, वहाँ जाने वाले को मजबूरन वहाँ की भाषा, संस्कृति से तालमेल बिठाना पड़ता है।
कुल मिलाकर सारी बात, घटती नौकरियों पर आ टिकती है। महाराष्ट्र के रेलवे भर्ती बोर्ड का विज्ञापन बिहार के अखबारों में छपवाने का क्या तुक है? एक तो वैसे ही पिछले साठ सालों में से चालीस साल बिहार के ही नेता रेलमंत्री रहे हैं। रेलें बिहारियों की बपौती बन कर रह गई हैं (जैसे अमिताभ सपा की बपौती हैं) मनचाहे फ़्लैग स्टेशन बनवा देना, आरक्षित सीटों पर दादागिरी से बैठ जाना आदि वहाँ मामूली(?) बात समझी जाती है। हालांकि यह बहस का एक अलग विषय है, लेकिन फ़िर भी यह उल्लेखनीय है कि बिहार में प्राकृतिक संसाधन भरपूर हैं, रेल तो उनके "घर" की ही बात है, लोग भी कर्मठ और मेहनती हैं, फ़िर क्यों इतनी गरीबी है और पलायन की नौबत आती है, समझ नहीं आता। और इतने स्वाभिमानी लोगों के होते हुए बिहार पर राज कौन कर रहा है? शहाबुद्दीन, पप्पू यादव, तस्लीमुद्दीन, आनन्द मोहन आदि। ऐसा क्यों?
एक समय था जब दक्षिण भारत से भी पलायन करके लोग मुम्बई आते थे, लेकिन उधर विकास की ऐसी धारा बही कि अब लोग दक्षिण में बसने को जा रहे हैं। ऐसा बिहार में क्यों नहीं हो सकता? समस्या को दूसरे तरीके से समझने की कोशिश कीजिए ... यहाँ से भारतीय लोग विदेशों में नौकरी करने जाते हैं, वहाँ के स्थानीय लोग उन्हें अपना दुश्मन मानते हैं। हमारी नौकरियाँ छीनने आए हैं ऐसा मानते हैं। यहाँ से गए हुए भारतीय बरसों वहाँ रहने के बावजूद भारत में पैसा भेजते हैं, वहाँ रहकर मंदिर बनवाते हैं, हिन्दी कार्यक्रम आयोजित करते हैं, स्वतंत्रता दिवस मनाते हैं। जब भी उन पर कोई समस्या आती है वे भारत के नेताओं का मुँह ताकने लगते हैं, जबकि इन्हीं नेताओं के निकम्मेपन और घटिया राजनीति की वजह से लोगों को भारत में उनकी योग्यता के अनुसार नौकरी नहीं मिल सकी थी, यहाँ तक कि जब भारत की क्रिकेट टीम वहाँ खेलने जाती है तो वे जिस देश के नागरिक हैं उस टीम का समर्थन न करके भारत का समर्थन करते हैं, वे लोग वहाँ के जनजीवन में घुलमिल नहीं पाते, वहाँ की संस्कृति को अपनाते नहीं हैं, क्या आपको यह व्यवहार अजीब नहीं लगता? ऐसे में स्वाभाविक रूप से स्थानीय लोग उनके खिलाफ़ हो जाते हैं। तो इसमें आश्चर्य कैसा? हमारे सामने फ़िजी, मलेशिया, जर्मनी आदि कई उदाहरण हैं, जब भी कोई समुदाय अपनी रोजी-रोटी पर कोई संकट आता देखता है तो वह गोलबन्द होने लगता है। यह सामान्य मानव स्वभाव है।
फ़िर से रह-रह कर सवाल उठता है कि उप्र-बिहार से पलायन होना ही क्यों चाहिए? इतने बड़े-बड़े आंदोलनों का अगुआ रहा बिहार इन भ्रष्ट नेताओं के खिलाफ़ आंदोलन खड़ा करके बिहार को खुशहाल क्यों नहीं बना सकता? खैर ... राज ठाकरे ने हमेशा की तरह "आग" उगली है और कई लोगों को इसमें झुलसाने की कोशिश की है। हालांकि इसे विशुद्ध राजनीति के तौर पर देखा जा रहा है और जैसा कि तमाम यूपी-बिहार वालों ने अपने लेखों और ब्लॉग के जरिए सामूहिक एकपक्षीय हमला बोला है उसे देखते हुए दूसरा पक्ष सामने रखना आवश्यक था। इस लेख को राज ठाकरे की तारीफ़ न समझा जाए, बल्कि यह समस्या का दूसरा पहलू (बल्कि मुख्य पहलू कहना उचित होगा) देखने की कोशिश है। शीघ्र ही पुणे और बंगलोर में हमें नए राज ठाकरे देखने को मिल सकते हैं।


---सुरेश चिपलूनकर
(नवभारत टाइम्स से साभार)




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नेहा की मदद करना चाहेंगे आप ?


दुनिया भर में छाई आर्थिक मंदी का कहर दिल्ली के एक परिवार पर ऐसा बरपा कि उनकी खुशियां छिन गईं। हमने इसी ब्लॉग में नेहा की कहानी छापी थी.....उसे पढ़कर बहुत से लोगों ने हमसे पूछा है कि वो इस परिवार की मदद करना चाहते हैं...लेकिन कैसे करें...किससे संपर्क साधें।

हम ऐसे लोगों के लिए नेहा की नानी का फोन नम्बर दे रहे हैं--9811544027....नेहा की नानी का बैंक एकाउंट भी हम आपको मुहैया करा रहे हैं...State Bank of India, Branch- Dwarka, Sector-16 (Delhi), Maya Devi, A/c No. 30278913726. branch code- 04384.
आप अगर बैंक में पैसे जमा करवाना चाहते हैं तो पहले नेहा या उसकी नानी से फोन पर बात कर लें....फिर जैसे भी इस होनहार बच्ची और उसकी नानी की मदद करना चाहें..करें।


हम आपको बता दें कि नेहा, पश्चिमी दिल्ली के विकासपुरी इलाके में कोलंबिया स्कूल में नौवीं की छात्रा है .... और आठवीं में उसके 95 फीसदी नंबर आए हैं.....यानी पढ़ने में वो काफी अच्छी है....इस परिवार को इस वक्त रहने का ठिकाना चाहिए। जिस किराए के घर में वे रह रहे हैं, वह किराया न देने के कारण उन्हें जल्द ही खाली करना पड़ेगा। अभी तक उन्हें किसी से कोई बड़ी मदद नहीं मिली है। हां, मदद के लिए लोगों के फोन जरूर आ रहे हैं। पिछले दो-तीन दिनों में पांच सौ व हजार रुपए देकर कुछ लोगों ने उनकी मदद की। लेकिन ये नाकाफी है, क्योंकि अब तक कुल मदद तीन-चार हजार रुपए की ही हो पाई है। नेहा की नानी के मुताबिक, अब तक किसी बड़े एनजीओ ने उनसे कोई संपर्क नहीं किया है। दुख की इस घड़ी में नेहा के पिता के परिवारवालों ने भी उनकी कोई सुध नहीं ली। एक निजी चैनल से उनके पास फोन जरूर आया था, जिसके तहत नेहा को गोद लेने की पेशकश की गई थी, जिसे उन्होंने ठुकरा दिया। वह अपनी नातिन को अपने पास ही रखना चाहती हैं। मायादेवी नेहा की पढ़ाई जारी रखना चाहती हैं। इसके लिए उन्होंने लोगों से मदद की अपील की है।

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कुछ कर गुज़र जाना है

अड़चनों की आंच में जलते रहें हम, अड़चनों को पार भी करते रहें हम।
कौन मुश्किलों से मानता हार है, ज़िंदगी तो क़ुदरत का उपहार है।

चलना ही है, बढ़ना ही है, बस पार उतर जाना है।
कुछ कर गुज़र जाना है।

हर तरफ है ताकत अंधेरे की, बात होती नहीं अब सवेरे की।
वो नोंच रहे हैं हमारा आशियाना, जिनको ज़िम्मा है उसको बनाना।

है हर तरफ नाउम्मीदी का आलम, मगर उम्मीदों का दीया जलाना है।
कुछ कर गुज़र जाना है।

लूट मची है हर तरफ हर जगह, इंसानियत को मिलती नहीं कहीं जगह।
कांटे सहें हम फूल की तलाश में, बढ़ते रहें उम्मीद और आस में।

चल पड़े हैं मंज़िल के वास्ते, खुद से खुद का हौसला बढ़ाना है।
कुछ कर गुज़र जाना है।

हैं देश के दुश्मन कई, कुछ भेड़िये भी भेड़ों की खाल में।
मासूम भी जवान भी, फंसते रहे सब इनकी जाल में।

नियमों का नीतियों का, कैसा ये अमली जामा है?
क्या यही देश की तरक्की का सफरनामा है?

अंतर्मन की आवाज़ पर क़दम तुम्हें बढ़ाना है।

कुछ कर गुज़र जाना है।

अमर आनंद

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बेटी, मैंने बहुत संघर्ष किया, अब हिम्मत हार रही हूं


दुनिया भर में जारी आर्थिक मंदी की राजधानी में पहली शिकार बनी एक मां जिसकी मौत के बाद गुमसुम हो गई है 13 बरस की नेहा। नीलम तिवारी (35) की 13 साल की बेटी नेहा अब गुमसुम है। 10 साल पहले आगरा में हुए ट्रेन हादसे में पिता को खोने के बाद अब उसकी मां नीलम भी नहीं रही। नीलम ICICI बैंक से लोन दिलवाने का काम करती थी...बदले में उसे कुछ कमीशन मिल जाया करता था...जिससे वो घर चलाती थी। घर में एक बूढ़ी मां हैं और है घर की जान-13 बरस की नेहा...जिसे मां की मौत ने गुमसुम कर दिया है। उसने अपनी मां को पंखे से झूलते हुए देखा....इसलिए अब रातों को जग कर चीखने भी लगती है। पिछले तीन महीने से नेहा की मां नीलम आईसीआईसीआई बैंक से एक भी लोन नहीं दिलवा पाई थी-नतीजतन दो दिन पूरा परिवार भूखा रहा और फिर एक दिन....नीलम को छुटकारे का एक रास्ता सूझा-उसने फांसी का फंदा बनाया और झूल गई।
कहानी के असली दर्द से आपकी पहचान कराना अभी बाकी है। इस परिवार में अब न तो कोई पुरुष है और न ही कोई कमाने वाला। मौके से पुलिस को तीन स्यूसाइड नोट मिले। बेटी नेहा को लिखे नोट में नीलम ने लिखा 'मैंने अब तक बहुत संघर्ष किया है। अब हिम्मत हार रही हूं। बेटा, आगे का सफर तुम्हें खुद तय करना होगा'। बूढ़ी मां को लिखे नोट में उसने माफी मांगते हुए लिखा कि 'दूर-दूर तक कोई रास्ता नज़र नहीं आ रहा। आपकी स्थिति भी ऐसी नहीं है कि कोई मदद कर सकें। मेरे पास न तो किराया देने के पैसे हैं और न खाने के। मेरे घर का सामान बेचकर मेरी बेटी की पढ़ाई का कम से कम यह साल जरूर पूरा करा देना'। तीसरा नोट नीलम ने पुलिस को लिखा और अपनी मौत का जिम्मेदार आर्थिक तंगी को बताया। दिल्ली के द्वारका इलाके के सेवक पार्क में रहने वाली माया शर्मा के घर की हालत देखकर किसी भी संवेदनशील इंसान का दिल पिघल सकता है। घर में माया, उनकी अविवाहित बेटी और नेहा ही हैं। कमाने वाला कोई नहीं है.....नेहा पढ़ाई में बहुत होशियार है... आठवीं क्लास में उसके 95 फीसदी नंबर आए थे। लेकिन अब वो इस स्थिति में नहीं हैं कि उसकी पढ़ाई जारी रखवा सकें। उन्हें उम्मीद है कि कोई गैर सरकारी संगठन नेहा की मदद करने आगे आएगा।
कानपुर की रहने वाली नीलम की शादी 1994 में आगरा के रहने वाले दिलीप तिवारी से हुई थी। 1998 में आगरा में हुए ट्रेन हादसे में दिलीप की मौत हो गई। नीलम ने दूसरी शादी नहीं की और एक साल की बेटी को साथ लेकर मां और बहन के साथ दिल्ली आ गई। माया ने बताया कि उन्होंने नीलम से कई बार शादी करने के लिए कहा था, लेकिन वह तैयार नहीं होती थी। पहले वह पीरागढ़ी में प्राइवेट कंपनी में नौकरी करती थी। एक साल से उसने आईसीआईसीआई बैंक से लोन दिलवाने का काम शुरू किया था। लेकिन आर्थिक मंदी ने रोजी-रोटी का यह आसरा भी खत्म कर दिया।
लेकिन चिंता का विषय कुछ और है...दिल्ली के जामिया नगर में मारे गये आतंकियों के बचाव में बुद्धिजीवियों ने देश भर में जम कर प्रदर्शन किए थे। ऐसे मौकों पर कहां हैं वो....लाख टके का सवाल यही है। मंदी पर लंबे और उबाऊ व्याख्यान देने वाले , दाढ़ीयुक्त चेहरे वाले बुद्धिजीवी , जो अगले दिन अखबारों में अपनी फोटो खोजते हों .... कहां हैं ? किसी पुलिस इंस्पेक्टर की शहादत पर सवाल उठाने वाले बेहया नेताओं की जमात अब क्यों नहीं बोलती.....और तो और अखबार और टीवी वाले इसे स्टोरी क्यों नहीं मानते...सोचने वाली बात यही है।

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सचिन तेंदुलकर का पहला इंटरव्यू--उम्र 15 साल

सचिन का ये इंटरव्यू फिल्म अभिनेता टॉम अल्टर ने किया था...साल 1989 में। ये तस्वीर उस वक्त की है जब सचिन टेस्ट टीम में नहीं आए थे..मुंबई की रणजी ट्रॉफी टीम के लिए खेलना शुरू ही किया था। गुजरात के खिलाफ मुंबई में 15 बरस की उम्र में सचिन के बल्ले ने पहले मैच में ही 100 रन उगले। लोग जब तक उसे समझ पाते ...वो टेस्ट टीम में था।

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पापा, जागते क्यों नहीं...


वो जगा रही थी
अपने पिता को
जो सो गए थे मौत की नींद
उसकी उंगली थाम ले गए थे
उसे कराने मां के दर्शन
जोधपुर के उस मंदिर में
जो है सबसे सिद्ध
जहां मांगने से पूरी होती है
सभी मुरादें पर,
यह क्या
उस मासूम से छिन गया
उसका बचपन छूट गया
वो दामन जिसे थाम चलना था
जग के पथरीले रास्तों पर
बार बार वो जगाती रही
अपने पिता को कहती रही
उठो पापा मंदिर जाना है..
रोती रही..सुबकती रही,
सोचती रही आज क्यों नहीं चुप कराते पापा
गोद में लेकर पुचकारते क्यों नही
पर लाडो के पापा
जागते कैसे वो तो सो चुके थे मौत की नींद
बनकर उस भगदड़ का हिस्सा
जो हुई जोधपुर के मंदिर में
पर वो न मानी झकझोरती रही,
उठाती रही अपने पापा को...

---- नवभारत टाइम्स में छपी शिखा सिंह की कविता

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मारा या बचाया ?


वो सिर झुकाये चुपचाप ज़मीन पर बैठा था। थानों में यूं भी अपना अपराध स्वीकार कर लेने वालों को स्टूल या कुर्सी देने की प्रथा कहां है....वो तो रसूख वालों या फिर इलाके के गुंडे बदमाशों के लिए होती है। खैर- ज़मीन पर बैठा 24 साल का वो शख्स बुत की तरह गुमसुम था। उसने अपनी दो दिन की बच्ची का गला घोंट कर मार डाला था। जानते हैं दो जून की रोटी कमाने के लिए करता क्या था वो-गुब्बारे बेचता था...उन बच्चों के लिए जिन्हें खाने को रोटी मिल जाती है। लेकिन अपनी दो दिन की बच्ची को वो भूख और गरीबी के भरोसे इस दुनिया में नहीं लाना चाहता था । उसने ऐसा क्यों किया...इसका जवाब ...पुरुलिया के पुलिस स्टेशन में बैठे इस आदमी ने ये कह कर दिया कि-- 30 रुपये रोज़ कमाने वाला... बीवी , मां और तीन बेटियों को कैसे पालता। जो उसने नहीं कहा वो ये कि कैसे वो ज़माने को सौंप देता बेटी को...आज नहीं तो कल भूखे समाज की शिकार तो होना ही था उसे ....इसलिए उसे मारकर असल में मैंने खुद को और अपने परिवार को बचाया है।

(टिकर पर आई एक ख़बर...जिसे बस मैंने कुछ कपड़े पहना दिए)

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