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जाना....देवानंद का

कल लंदन में देवानंद का अन्तिम संस्कार किया गया। मैं उनका फैन रहा हूं और उनकी फिल्में देखी – समझीं भी हैं। मुझे लगता है कि प्रेम करना देवानंद के लिए उस धागे की तरह रहा , जिसके दोनों सिरे हमेशा उनके पास रहे...जब चाहा प्यार किया और जब लगा कि हवा को मुट्ठी में कैद नहीं कर सकते, तो कमंडल उठाया और एक वैरागी की तरह सब कुछ छोड़ कर आगे बढ़ लिए। अपने से बड़ी स्टार सुरैया पर फिदा हुए तो ज़मीन – आसमान एक कर दिय...ा....दुर्गा खोटे और कामिनी कौशल के ज़रिये ख़त भिजवाए....मान-मनौव्वल की...और जब लगा कि सुरैया नहीं मिल सकती....तो एक ही झटके में सब भूल भी गए। उसके बाद कभी मिले भी नहीं सुरैया से.. एक बार किसी फिल्मी पार्टी में आमना – सामना भर हुआ..बस। अपने किसी इंटरव्यू में उन्होंने कहा भी कि – अगर उससे मेरी शादी हो भी गई होती , तो क्या पता उसके बाद मैं वो न रहता , जो अब हूं। सुरैया जब बीमार पड़ीं तो किसी ने देव साहब को इत्तिला की कि वो अस्पताल में हैं..उन्हें देखने जाना चाहिए। लेकिन वो नहीं गये। ये एक बड़ा सवाल है कि वो मरती हुई सुरैया को देखने क्यों नहीं गए। शायद उन्हें लगा हो कि प्रेम की जिस गली को वो ऐश्वर्य के उद्दाम पर छोड़ आए थे..उसमें फिर जाना ठीक नहीं। हो सकता है कि देव साहब सुरैया को उस हालत में देख न सकते हों..बूढ़ी ...जर्जर...अस्पताल के बिस्तर में धंसी हुई सुरैया...एक वक्त की मलिका.. जिससे उन्होंने सब कुछ भूल जाने की हद तक प्यार किया था। प्रेम में उन्होंने लोकतांत्रिक मूल्यों का भी पूरा खयाल रखा। ज़ीनत को ज़ीनत अमान उन्होंने ही बनाया था। पहला ब्रेक दिया और फिल्म पूरी होते होते उन्हें ज़ीनत अमान से प्यार हो गया। बकौल उनके इसके बाद जेनी बेबी के साथ उन्होंने एक और फिल्म सोच रखी थी। लेकिन एक रात किसी फिल्मी पार्टी में ज़ीनत के साथ पहुंचे तो , कुछ ऐसा हो गया कि उन्हें अपनी मंज़िल बदलनी पड़ी। इस पार्टी में उन्होंने ज़ीनत को राजकपूर की बांहों में झूलते देख लिया...और सन्न रह गए। पार्टी से बाहर आए...सिगरेट सुलगाई...और सोचा कि छोड़ो भी...वो मेरी गुलाम तो नहीं....राज के पास जाती है तो जाए। और...देव साहब एक बार फिर अकेले हो गए। बड़ा हौसला चाहिए इसके लिए...सिर झटक देना ..और दूर हो जाना। मेरे ख्याल से हर फिक्र से परे होना बहुत बड़ी बात है..और ग्लैमर की दुनिया के बीचों बीच बैठे शख्स के लिए तो असंभव सी बात। शायद ये भी होता हो कि आप जब किसी को बनाते हैं तो आप न चाहते हुए भी उसके प्रति पज़ेसिव हो जाते हैं। एक अधिकार भाव पैदा होता है जो आपको अहसास कराता है कि ‘वो’ वही करेगी जो आप कहेंगे। यही अहसास शायद देव साहब को उस रात पार्टी से बाहर आकर हुआ हो...जिसके बाद उन्होंने फिर से अपना रास्ता बदल दिया। इसलिए जब वो कहते हैं कि – मैं पीछे मुड़कर नहीं देखता, तो ये सही भी लगता है। अपने वक्त में हिंदी फिल्मों में के वो पहले ऐसे स्टार रहे जो फैशन स्टेटमेंट थे। वो जो पहने हुए स्क्रीन पर दिखते थे ..वही पहना जाता था....गले में ढीला सा स्कार्फ हो या फिर चौड़े कॉलर की शर्ट्स...हीरोइन के पीछे टेढ़े होकर भागना हो या फिर टूथलेस मुस्कान....सब कुछ अपनाने का जी करता था। प्रेम में वो जैसे डूबते थे..वो आइडियल माना जाता था और मुश्किलों से निपटते दिखने के उनके तरीके..भले ही फिल्मी हों लेकिन ज़िंदगी के करीब उतरते भी दिखने लगे थे।

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Two Hearts As One



When U Were Only 5 Yrs Old, I Said I Love U...
U Asked Me: "What Is It?"
When U Were 15 Yrs Old, I Said I Love U....
U Blushed.. U Look Down And Smile..
When U Were 20 Yrs Old, I Said I Love U....
U Put Ur Head On My Shoulder And Hold My Hand.. Afraid That I Might Dissapear..
When U Were 25 Yrs Old, I Said I Love U....
U Prepare Breakfast And Serve It In Front Of Me, And Kiss My Forhead N
Said : "U Better Be Quick, Is’s Gonna Be Late.."
When U Were 30 Yrs Old, I Said I Love U....
U Said: "If U Really Love Me, Please Come Back Early After Work.."
When U Were 40 Yrs Old, I Said I Love U....
U Were Cleaning The Dining Table And Said: "Ok Dear, But It’s Time For U To Help Our Child
With His/Her Revision.."
When U Were 50 Yrs Old, I Said I Love U....
U Were Knitting And U Laugh At Me..
When U Were 60 Yrs Old, I Said I Love U....
U Smile At Me..
When U Were 70 Yrs Old. I Said I Love U....
We Sitting On The Rocking Chair With Our Glasses On.. I’m Reading Your Love Letter That U

Sent To Me 50 Yrs Ago..With Our Hand Crossing Together..
When U Were 80 Yrs Old, U Said U Love Me!
I Didn’t Say Anything But Cried.

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सुना है......



केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल के दफ्तर के कर्मचारी आजकल परेशान हैं। वजह...सिब्बल के कंप्यूटर पर गालियों में लिपटी मेलों का झमाझम आना। माना जा रहा है कि ऐसा , अन्ना के आंदोलन के बाद हुआ है। रोज़ सुबह कंप्यूटर खोलते ही सैकड़ों मेलें भरभरा कर सामने आ जाती हैं। कर्मचारियों में से एकाध ने मंत्री जी को इस बारे में बताया तो सिब्बल ने एक की जिम्मेदारी सिर्फ मेल डिलीट करने की लगा दी। ताकीद की गई है कि वो कर्मचारी मेल सिर्फ डिलीट करे, भूल से भी उसे पढ़ें नहीं। ये फैसला भी यकायक नहीं हुआ। दफ्तर पहुंचते ही एक दिन जब सिब्बल को किसी कर्मचारी ने ऐसी मेलों के बारे में बताया, तो पहले तो उन्होंने हंस कर टाल दिया। लेकिन जब ऐसा रोज़ सुबह होने लगा, तो उन्हें अपने एक कर्मचारी को इस जिम्मेदारी पर लगाना पड़ा कि वो रोज़ सुबह दफ्तर आते ही ऐसी सारी मेलें डिलीट कर दे॥लेकिन उसे पढ़े नहीं। अब कर्मचारी सांसत में हैं कि बिना पढ़े किसी मेल को डिलीट कैसे किया जा सकता है भला। लिहाज़ा वो मेल बाकायदा पढ़ते हैं , मुंह दबा कर हंसते हैं, फिर उसे डिलीट कर देते हैं।

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'वो' गीता आंटी थीं



आज टीचर्स डे है और मुझे अपनी एक टीचर की याद हो आई है। पूरी पढ़ाई के दौरान न जाने कितने अध्यापक देखे होंगे मैंने॥लेकिन याद सिर्फ उनका चेहरा है। मैं कक्षा ४ में पढ़ता था...पीलीभीत के लायंस बाल विद्या मंदिर में। आमतौर पर टीचर के नाम के आगे दीदी या मैम आदि शब्द जोड़ दिए जाते हैं। उस स्कूल में नाम के आगे आंटी जोड़ा जाता था। आज शायद कोई भी टीचर अपने नाम के आगे ये विशेषण जोड़ा जाना पसंद न करे...लेकिन उस स्कूल में तब ऐसी परंपरा थी। आज न जाने वो परंपरा है या नहीं॥खैर ...तो वो गीता आंटी थीं। जैसे आजकल स्कूल बसें या रिक्शा होते हैं....वैसे ही तब एक साधन इक्का भी हुआ करता था। मैं मोहल्ला कुम्हरगढ़ से इक्के में बैठता था॥पीछे वाली सीट पर। और लक्ष्मी टॉकीज़ के आस-पास किसी इलाके से गीता आंटी इक्के में बैठती थीं॥पीछे यानी ठीक मेरे पास। यकीन कीजिए॥मुझे वहां से स्कूल तक का सफर बड़ा आसान लगता था। मैं पढ़ाई में अच्छा था और वो मुझे खड़ा कर सवाल भी पूछती थीं। एक और बात होती थी। हर शनिवार को हाफ डे होता था। और उससे ठीक एक घंटे पहले गीता आंटी हम सब को पीछे के लॉन में ले जातीं॥और सबसे कोई गाना गाने को कहतीं। उन नवोदित गायकों में मैं भी होता था और हर हफ्ते मेरी ज़ुबान पर एक ही गाना होता था। 'चुरा लिया है तुमने जो दिल को'......ये गीता आंटी की फरमाइश भी होता था। फिर साल भर बाद मैं पांचवीं में गया...तो गीता आंटी से मुलाकात सिर्फ इक्के भर की रह गई। फिर छठवीं में दूसरे स्कूल में भर्ती हुआ , तो सब पीछे छूट गया। कक्षाएं बदलती गईं...और गीता आंटी न जाने कहां खो गईं। फिर पिताजी का तबादला....नया स्कूल...नये टीचर॥नया माहैल.....लेकिन कहीं कोई उन जैसा नहीं मिला। बाद में फेसबुक पर लायंस के पुराने बच्चों को खोजने की खूब कोशिश की...ताकि उनके ज़रिये कुछ पता हो सके। लेकिन कुछ पता नहीं चला। मुझे लगता था कि जितना उन्होंने मुझे समझा...उतना किसी ने नहीं। अज॥जब मेरे दफ्तर के तीन बच्चों ने हैप्पी टीचर्स डे का समस भेजा...तो मुझे गीता आंटी याद आ गईं।

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अन्ना के बहाने

तेरह दिनों के अनशन के बाद अब बहस इस बात पर हो रही है कि अन्ना को क्या हासिल हुआ है। मुझे नहीं मालूम कि वाकई उन्हें कुछ मिला या नहीं॥लेकिन दो-तीन बातें ज़रूर साबित हुईं।
एक-तमाम सांसदों, विधायकों और ज़िला स्तर के नेताओं को मालूम हो गया कि आम आदमी के मन में उनकी क्या इज़्ज़त है...दो-अन्ना जैसा सीधा और बेलाग बातें कहने वाला कोई भी आगे आएगा तो पूरा देश उसके पीछे चल पड़ेगा। और तीसरा ये कि लोगों में उम्मीद बची है। इसीलिए लोग गर्मी बरसात के बावजूद ये देखने आए कि देखें इस युग का गांधी कैसा है। कभी कभी मुझे लगता है कि इस आंदोलन को अन्ना और आगे बढ़ा सकते हैं। वो इसे मूल्यों के आंदोलन में बदल सकते हैं। हालांकि इसी लड़ाई में उन्हें अंदाज़ा हो गया है कि आंदोलन की सफलता बहुत कुछ उसके विरोध पर भी निर्भर करती है। सरकारी हलके से जितनी बातें उनके खिलाफ कही गईं, वो सब उल्टी सरकार को पड़ीं।
किसी ने कहा-अन्ना ज़िद्दी हैं, किसी ने कहा-सिस्टम बदलना चाहते हो, तो इलेक्शन लड़ लो। किसी और ने तो ये भी कह डाला कि अन्ना की मेडिकल जांच सरकारी डॉक्टर से नहीं कराई गई..यानी कि अनशन पर संदेह।

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वो अन्ना हैं

सरकार में बैठे लोगों के तेवर अब ढीले होने लगे हैं। एक बूढ़ी काया ने पूरी सरकार के हिला दिया है और देश भर में लोग उसके नाम पर आंखें मूंद कर अंगूठा लगाने को तैयार हैं। आखिर क्या है इस आदमी में, जो हर कोई उसके पीछे चल पड़ता है। क्या मिडिल क्लास , क्या कस्बे वाला, क्या मर्सिडीज़ मे चलने वाला....हर कोई मानने लगा है कि कोई आया है , जो भरोसा करने लायक है। संसद में बहस हो रही है, प्रधानमंत्री तक बयान दे रहे हैं। सरकार को डर है कि उसके पीछे देश चला आया तो उनकी कुर्सियों का होगा, जो उन्होंने इतने दिनों से पलकों से पकड़ रखी है। एक मंत्री ने कहा-'ये अनशन एक फैशन की तरह है..देखते हैं कितने दिन चलता है' । दूसरे ने कहा-किसने अधिकार दिया आपको कि आप १२० करोड़ लोगों की ओर से बात करेंकोई मनीष तिवारी हैं...गालीगलौज की भाषा में दो दिन पहले अन्ना हजारे को दाने क्या क्या कह गए। पता चला कि यूथ कांग्रेस के नेता हैं...एनएसयूआई के अध्यक्ष थे सालों पहले....अब सांसद भी हैं। सच पूछिए तो बुरा नहीं लगा, क्योंकि NSUI का तो चरित्र ही वही है। दरअसल सत्ता का अहंकार सरकार का चरित्र बन गया है और ये पार्टी के छुटभैया नेताओं में भी दिखने लगा है। लेकिन इस देश का आदमी ये ऐंठ बर्दाश्त नहीं करता। वो दिन आने वाला है जब इस देश में भीड़ दफ्तरों में घुसेगी, अफसरों को पीटेगी....मंत्री मारे जाएंगे.....और पत्रकारों की झूठी इज्जत उतारी जाएगी...इसलिए अभी वक्त है , सरकार को चाहिए कि उस बूढ़े आदमी को बुलाएं और कहें कि चलो हम और तुम साथ मिल कर बैठते हैं।

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बाबू जी

रात के आठ बज रहे थे। लंबे चौड़े बरामदे की बत्ती धीमी पड़ चुकी थी। बीचोंबीच बाबूजी लेटे हुए थे। उनके अगल-बगल बर्फ की सिल्लियां रखी थीं। कोई कुछ बोल नहीं रहा था। बाबूजी कभी इसी बरामदे में कुर्सी पर बैठते थे सुबह सुबह। सामने मेज होती थी। एक हाथ में अखबार और दूसरे में चाय का प्याला। देर तक पढते। कभी कभी मुझे बुलाते , सामने टाईम्स ऑफ इंडिया रख देते । कहते- ज़ोर ज़ोर से पढ़ो....जुबान साफ होगी। या फिर जाड़ों की वो शाम , जब वो आलू-मटर की घुंघरी खाते, अलाव जलाकर। सारा परिवार बैठता ईर्द गिर्द। तीनों चाचा, बुआ, हम भाई...और बाबूजी। परिवार पर चर्चा होती...कौन क्या कर रहा है...किसे क्या करना चाहिए... पुराने असल चुटकुले जो परिवार के किसी न किसी कैरेक्टर से जुड़े होते। पढ़ाई लिखाई पर उनका ज़ोर ज़्यादा रहता। कहीं कोई मौका हो, कोई इंस्टीट्यूट हो...तुरंत बताते...वहां चले जाओ....दाखिला ले लो। शिक्षा का महत्व शायद उनसे बेहतर और कोई समझ भी नहीं सकता था। दस बरस के थे , तो मां चली गईं..पिता ने दूसरी शादी की। पढ़ाई कर पाएं , इसके लिए पैसे थे नहीं...इसलिए हाईस्कूल के बाद पढ़ाई का संकट आ गया। नौकरी की और नौकरी करते हुए साहबों के बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाते रहे॥ताकि बीए की पढ़ाई कर सकें। शायद इसीलिए उनकी कोशिश रहती कि हम अच्छे से अच्छी पढ़ाई करें, बेहतर सलीका सीखें, बेहतर इंसान बनें। इसी बरामदे में उनकी स्कूटर खड़ी होती थी...पहले लैम्ब्रेटा...फिर बजाज प्रिया। बाद में कार आई तो वो गाड़ियां जाने कहां खो गईं।
बाबूजी गजब के किस्सागो भी थे। अपने बचपन के , करियर से जुड़े ऐसे ऐसे किस्से जो अपने खत्म होने तक सबक भी देते जाएं। किस कलेक्टर ने क्या कहा...कैसे मुश्किल से निबटा कोई अधिकारी...कौन से कमिश्नर बात के पक्के थे और कौन कान के कच्चे...खूब सारी असल कहानियां। वो एक संघर्षशील शख्सियत थे, रोज़ १४ घंटे काम करते थे...गिर कर उठना उन्होंने खूब जाना था और जहां जिसकी जितनी मदद कर पाए , करते थे। मुझे याद है जब बड़े भइया फॉरेन सर्विस की नौकरी में पहली पोस्टिंग पर ज़ांबिया जा रहे थे...तो अम्मां को रोते देख कर उन्होंने कहा था...बेटवा रहै नाहर , चाहे घर रहै , चाहे बाहर।

लेकिन अब बरामदे में लेटे थे..असहाय। अम्मां के रोने की आवाज़ आती है बीच बीच में॥अस्फुट स्वर में वो जो कहती हैं..उसका मतलब ये कि वो कह के तो गए थे कि अस्पताल तक जा रहे हैं..अभी आते हैं....तो ऐसे क्यों आए...बेजान। बाबूजी की ओर फिर देखता हूं...इतने असहाय कभी नहीं दिखे वो....तब भी नहीं , जब तीन साल तक बिस्तर पर पड़े रहे। कहीं पढ़ा था...पिता का मन हिमालय की तरह होता है। अब सोचता हूं ...बाबूजी तन और मन दोनों से हिमालय थे।

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सीसा झूठ नई बोलता



आदरणीय बैन जी

बैन जी इसलिए कि पारटी की बैन हैं, तो पूरे परदेस की भी हैं। मुंबई के अखबार मिड डे की कापी मेरी मेज़ पर रखी है...पेज नंबर 4 पर आपकी एक तस्वीर देख रहा हूं। आप को आप के ‘लोग’ बड़ी सी एक माला पहनाने की कोसिस कर रहे हैं। इस बार इसमें हरे हरे नोट नहीं थे...सफेद और लाल गुलाबों की इस माला को आपको पहनाने की कोसिस कर रहे लोग उसे हाथों से छू लेने को आतुर दिख रहे हैं बैन जी। काले कमांडो चारों ओर देख रहे हैं , चौकन्नी निगाहों से...कहीं बैन जी की सुरच्छा को कोई ख़तरा तो नहीं। एक हाथ आपका भी फूलों की उस माला की ओर उठ कहा है बैन जी।
फूल देख कर आप परफुल्लित भी खूब हैं....फूलों से ताकत का अंदाज़ा होता हो शायद....हमने तो माखनलाल चतुर्वेदी की वो कविता सुनी है जिसमें उन्ने फूल की अभिलासा के बारे में कुछ लिक्खा है। उन्ने कहा है कि फूल की इच्छा है कि बाग का माली उसे तोड़े और उस रास्ते में बिछा दे, जिससे चलकर देश के वीर मातृभूमि के लिए बलिदान करने जाते हों। अब तो खैर बैन जी, बलिदान देने इस परदेस के वीर क्यों जायेंगे, देने से पहले उनसे बलिदान ले लिया जाता है। लोग कैते हैं बैन जी कि लखनऊ की जेल में बंद एक डिप्टी सीएमओ का बलिदान आपके ही लोगों ने ले लिया। आपको बचाने के लिए लिया, आपके मंत्रियों को बचाने के लिए लिया बैन जी , कुछ भी किया, किया तो परदेस के लिए ही ना...तो वीर ही हुए आपके।
लेकिन बैन जी जब आप मुंबई में उन फूलों को छूने के लिए उचक रही थीं...तो परदेस का भरोसा आप पर से तार तार हो रहा था। उस समय 14 बरस की एक बच्ची दिल्ली के अस्पताल में अपनी आंखें वापस पाने की जी-तोड़ कोसिस कर रही थी...आपके ही परदेस में कुछ लोगों ने उसकी इज़्ज़त से खेलना चाहा था बैन जी...नहीं कर पाए कुछ तो उसकी दोनों आंखों में छुरा घोंप दिया। उसकी तो खैर जान बच गई ...लेकिन लखीमपुर वाली बच्ची को तो अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। ऐसा कैते हैं कि आपके कुछ पुलिसिओं ने उसकी इज़्ज़त से खिलवाड़ करना चाहा था...भगवान जाने चाहा ही था, या कुछ कर भी बैठे थे...क्योंकि पोस्टमार्टम रिपोर्ट तो कुछ और ही कैती है...लेकिन अगले दिन वो बच्ची फांसी पर लटकी मिली॥वैसे ही जैसे अपने सचान साहब लटके मिले थे।

किस्से बहुत हैं बैन जी...लखनऊ के बगल में ही बाराबंकी में भी कुछ रोज़ पैले ऐसा ही हुआ। आपकी मानें बैन जी , तो ये कांगरेसिए हैं ना...इन्हीं की करतूत है ये सब...इन्हीं के लोगों ने आपको बदनाम करने के लिए परदेस की बच्चियों को निसाना बनाया है। लेकिन बैन जी, आप परदेस की राजा हैं....आपको अपने काम से फुरसत कहां मिलती होयगी...आगे पीछे अफसरान, हुक्मरान घूमते रैते हैंगे...इसीलिए सोचा आपको बता दूं कि दिन में कुछ पल आदमी को अपने लिए रखने चइए हैंगे...एकदम अकेले बैन जी। हमारे मास्साब कैते थे.....दूसरों के सामने झूठ बोल के निकल जाओगे...लेकिन खुद से कैसे बोलोगे राजा....इसलिए बैन जी....दिन में कुछ पल सीसे के सामने खड़े रैना चाइए.....अपनी सूरत खुद देखनी चाइए.....माथे पे कितना झूठ है....आंखों में कितना....और होठों पे कितना.....सब सामने आता है। दिन भर में आपके ‘लोग’ आपके बारे में जितना झूठ बोलते हैं...वो सब आप पैचान सकती हैं .... जब सीसे में आप खुद की सकल देखती हैंगी...क्योंकि सीसा झूठ नई बोलता है ना बैन जी।

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बात पते की

पहाड़ों से घिरा देश का एक कोना ऐसा है, जो आजकल दो अलग अलग तस्वीरें दिखा रहा है। ये इलाका है उत्तरांचल का देहरादून । यहां के एक अस्पताल में अभी हाल ही में देश भर के बड़े संतों ने बाबा रामदेव को जूस पिला पिला कर अनशन तुड़वाया। टेलीविजन पर प्रसारित करने के लिए इसकी तस्वीरें भी खिंचवाईं गईं और इसे राष्ट्र हित में बताया गया। लेकिन संतों की नज़र इसी अस्पताल में बिस्तर पर मौत की बाट जोह रहे उस साधु पर नहीं पड़ी, जिसने गंगा नदी के लिए महीनों से अनशन कर रखा था। वो निगमानंद थे , हरिद्वार में गंगा को , उन हाथों से बचाना चाहते थे जो नदी की तलहटी की खुदाई कर मालामाल होने में जुटे थे। सरकार ने निगमानंद की गुहार सुनी थी और खनन का काम रोक दिया था...लेकिन मामला हाइकोर्ट में गया तो स्टे लग गया।

निगमानंद इस स्टे के खिलाफ फिर अदालत के दरवाजे पहुंचे तो उन्हें ये कहकर लौटा दिया गया कि वो दूसरी बेंच में जाएं। अदालती दांवपेंच ने उस साधु को इतना हिला दिया कि उसे और कोई रास्ता नहीं सूझा॥और वो अनशन पर बैठ गया। बैठा तो फिर उठा नहीं.....चाहता तो जूस पी लेता.....लेकिन उसकी ज़िद उसे उस कोमा तक ले गई...जहां से वो फिर नहीं उठा। निगमानंद फिल्म 'गाइड' के उस राजू की याद दिलाता है, जिसे लोग ग़लती से पहुंचा हुआ साधु समझ लेते हैं। राजू जानता है कि वो कोई पहुंचा हुआ संत नहीं है, लेकिन फिर भी भोले गांववालों के उस भरोसे को तोड़ना नहीं चाहता कि उसके अनशन से बारिश ज़रूर होगी। बारिश ज़रूर हुई लेकिन कई दिनों का भूखा राजू भरोसे की वेदी पर चढ़ गया...तो फिर नहीं उठा। स्वामी निगमानंद १९ फरवरी से अनशन पर बैठे थे, यानी करीब ४ महीने उस व्यवस्था से वो अकेले लड़ते रहे , जिससे स्वामी रामदेव के ५० हज़ार चेले रामलीला मैदान में एक रात नहीं लड़ पाए। स्वामी रामदेव को तो खैर सातवें दिन इज़्ज़त बचाने के लिए जूस पीना पड़ा.....जूस पिया या अपमान का घूंट॥ये तो वही जानते हैं...लेकिन ये तय है कि सच्चे भरोसे की कीमत अपने देश में कोई नहीं समझता। अगर समझता होता , तो उमा भारती गंगा को बचाने के लिए अपनी मुहिम को अपनी पार्टी में लौटने का ज़रिया नहीं बनातीं...

अगर विश्वास की कद्र होती तो उस रात रामलीला मैदान में वो न होता जो हुआ। अगर भावनाओं की इज़्ज़त होती तो सोनिया या राहुल दूसरे दिन अस्पतालों में जाते और लोगों से उनका हाल पूछते। आखिर राहुल भट्टा पारसौल तक तो गए ही थे....रामलीला मैदान तो उनके घर से कुछ ही कदम दूर था। वर्ल्ड कप की जीत के बाद सोनिया दिल्ली के ITO चौराहे पर आ सकतीं थीं तो रामलीला मैदान तो उससे कुछ ही आगे है....चाहतीं तो जातीं...देखतीं कि वहां सोते हुए लोगों के साथ उनकी पुलिस ने जो किया है...वो भी किसी भरोसे का कत्ल है। शायद इसीलिए गाइड का राजू और हरिद्वार का निगमानंद दोनों एक ही चेहरा लगते हैं। भरोसे की इज़्जत करने वाले ऐसे चेहरे…. जिनकी कीमत हमें या तो समझ नहीं आती॥या फिर बहुत देर में समझ आती है।

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देवता



देवता मै नहीं पालना चाहती...



क्यूंकि....तब......सहज और समयानुकूल ही...



वह लगने लगता है...



मेरा पथ-प्रदर्शक....



और ........पालने लगता है गुमान......



मेरा प्रारब्ध तय करने का......



और तब ...वहां जन्मने लगती है........



स्वयमेव एक अपेक्षा.....जिसके आगे मेरा....



सर झुक जाय.....स्वयं....सादर....देवता......



तुम तो स्वर्ग में ही भले....



यहाँ मुझे मिलने दो.....बावरी॥,



अलमस्त... नादान सी॥प्रिया बन कर.....



अपने ''बाल-सखा'' से...जिसमे अपनी आस्था सहित...



विलीन होना....



मेरे लिए...गरिष्ठ ना हो..........



जो सदा बिना कहे ही....



मेरे झुके-थके कंधे पर.....



अयाचित॥अनापेक्षित...और.......



भार-अभार से मुक्त.....



अपना स्नेह-पगा हाथ रख दे.......



और उबार दे....



मुझे अपने तईं .....



किसी भी समस्या से..........



कुछ हद तक ही ॥भले.....और बेशक..............



कभी-कभार ही..........यानी...........



'देवता' मै मानती ज़रूर हूँ.........



मगर ज़रूरी यह है कि....



.वह हो...इतना साधारण और अपना सा...कि॥



कहीं से...देवता न लगे मुझे......



और ना ही दुनिया को.........



और ना ही जिसके लिए.......



किसी ''कामायनी-कर'' को कहना पड़े...



''देव-दंभ के महा-मेध में....



सब कुछ ही बन गया हविष्य॥









सुमन












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वही हुआ



मैंने कहा था तुमसे


एक रोज़


पीले पड़ जाएंगे


ये पत्ते


फिर टूट टूट कर नीचे गिरेंगे


और तुम उन पर चलते हुए


दूर निकल जाओगे


तुम्हे पीछे मुड़ कर जो


नहीं देखना है


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सब बीत गया...मैं हार गई

जो बीत गई सो बात गई

एक उमर धुंआ होने को है

वो प्रेम प्यार, वो प्रीत गई

एक सूना घर , ऊंची खिड़की

वो नन्हीं सी छोटी लड़की

रातों को तुम्हें जगाती है

वो अब भी तुम्हें बुलाती है

अपनी पहचान छुपाती है

कहने सुनने की हर हसरत

दिल ही दिल में रीत गई

ओ....बचपन के मीत मेरे

जो बीत गई सो बात गई

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