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बाबा प्यार करते थे...।


बाबा,

अम्मा ने लगाया था ना वो नीम का पेड़...
जिसकी गोद में ही आती थी आपको नींद...
और उसी की छांव में आपने ली थी आखरी सांस...
अब हम नई पीड़ी के शहरिये हो गए हैं...
और सोचते हैं कि सिर्फ हमें ही आता है... 'प्यार करना' !

- देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
 
9953717705

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प्रेम का पेड़


हमने पेड़ लगाना सीखा,
पंखुड़ियां सहलाना सीखा
सुबह-शाम फिर टुकुर-टुकुर
उसकी बात बताना सीखा...
यूं ही बातें कहते लिखते
आज यहां तक आया हूं...
राज की बात बताऊं , मैं अब
उसी पेड़ की छाया हूं...

--- देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
                9953717705

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http://www.youtube.com/watch?v=V-QuqnuPKxM&feature=youtu.be

ऊपर लिखे लिंक पर क्लिक कीजिए और 20 वीं शती के एक महानायक से मिलिए...ये हैं फिराक़ गोरखपुरी

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बेटा बड़ा हो गया है
रसे बाद अचानक

घर में किताबों की आमद बढ़ गई है
पॉलो कोल्हो..चार्ल्स डिकेंस...
.... रस्किन बॉंड और.....
और बहुत सारी दूसरी किताबें

मैं उन नये पन्नों की खुशबू सूंघता हूं
मुझे एक पीढ़ी का अहसास होता है
मैं उनके कवर पेज पर
एक ज़िंदगी की शुरुआत देखता हूं
नई कोंपलों जैसी नरमी.....
और सुबह के सूरज की किरणों की गुनगुनाहट
उनमें चिड़ियों की चहचहाहट भी सुनाई पड़ती है

मेरे भीतर का बच्चा बड़ा होने लगा है....

जब से क़िताबें.......घर आने लगी हैं



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ज़िद्दी होना ज़रूरी है

आईपीएल के मैचों में मेरी रूचि कोई खास नहीं है। लेकिन बीते शनिवार को दिल्ली डेयरडेविल्स - पुणे वारियर्स का मैच बहुत कुछ सिखा गया। अपनी आक्रामक कप्तानी के लिए मशहुर सौरव गांगुली को 40 की उम्र में अपने से आधी उम्र के बच्चों को छकाते देखना एक अनुभव है। ये साबित करता है कि जो चैंपियन होते हैं, वो पिच पर खेले जाने से पहले मैच दिमाग़ में खेलते हैं। गांगुली जब अपना पहला ओवर फेंकने  के लिए 20 गज के रन-अप से दौड़े, तो सच पूछिए मेरी रूह कांप उठी। अपने वक्त में लीग मैच और बाद में यूनिवर्सिटी टूर्नामेंटों के दौरान हमारे कोच एक ही बात कहते थे। वो कहते थे कि रन-अप उतना ही बड़ा होना चाहिए कि जिसे तुम्हारा शरीर संभाल सके। लंबा-चौड़ा और ताकतवर शरीर हो,  तो तूफानी दौड़ संभाल सकता है। इसीलिए तेज़ गेंदबाज़ों को दूसरे खिलाड़ियों के मुकाबले ज़्यादा स्टेमिना की ज़रूरत होती है। लेकिन गांगुली  के ढांचे का शरीर जब आंधी की तरह दौड़े, तो डर लगता है। 

जानकार मानते हैं कि लंबे रन-अप का मतलब तभी है , जब आपके शरीर की स्पीड बॉल की स्पीड में बदल जाए, वर्ना हांफते-डांफते बॉलिंग करना बेकार है। गांगुली को पहली बॉल के लिए दौड़ते देख मुझे वैसा ही लगा। लेकिन पहली ही गेंद में दादा ने जब पीटरसन की गिल्लियां उड़ा दीं, तो उनके शरीर में जैसे रॉकेट लग गया हो। गांगुली को उस तरह उत्तेजना में दौड़ते देखना एक ऐतिहासिक अनुभव था। वैसा ही जैसा बरसों पहले लॉर्ड्स में अंग्रेज़ों को हराने के बाद उनका टी-शर्ट लहरा कर दर्शकों की ओर फेंकना। उत्तेजना में जब उन्होंने और तेज दौड़ लगा दी, तो 90 के दशक के गांगुली की याद हो आई। उसी ओवर में जब उनकी गेंद पर दो कैच छूट गए, तो उनका गुस्सा उनके पुराने तेवर की याद दिला गया। उन्हें अपने इसी तेवर की वजह से जाना जाता है। गांगुली वो कप्तान हैं, जिन्होंने टीम के खिलाड़ियों को किसी भी कीमत पर जीतना सिखाया। उन्हें पता था कि खिलाड़ी को मैदान में उतरने से पहले इतना भरोसा होना चाहिए कि उनके कप्तान को उन पर भरोसा है। इसीलिए फील्डिंग करने उतरे गांगुली ने जहां हमेशा अपने खिलाड़ियों की तरफदारी की, वहीं उन्होंने अपने सिपाहियों को ये भी हमेशा बताया कि मैदानमें कोई चूक वो बर्दाश्त नहीं करेंगे। इसीलिए पुराने मैचों की रिकॉर्डिंग अगर आप देखें , तो देख सकते हैं कि गांगुली को गुस्सा कब आता है। 

ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों का हथियार उन्हीं के खिलाफ चलाने वाले वो पहले भारतीय कप्तान थे। इससे पहले कि ऑस्ट्रेलियाई  खिलाड़ी स्लेजिंग करें, गांगुली वो हथियार चला देते थे। उनका सिद्धांत था कि अगर आक्रामक होने से जीत मिलती है, तो वो भी करेंगे। इसीलिए पहली बार विपक्षियों को हड़काते उन्हीं के वक़्त में देखा गया, वर्ना हम तो शराफत ओढ़कर, सब कुछ सुन कर , मुंह लटका कर चुपचाप चले आते थे। आप देखें तो ग्रेग चैपल से सीधे लोहा उन्होंने ही लिया। चैपल उन्हें नुकसान पहुंचा गए, लेकिन कप्तानी  खोने के बाद दादा की फिर से वापसी हुई और मुझे याद है इसके लिए उन्हें शरद पवार की मदद भी लेनी पड़ी थी। लेकिन उन्होंने वापस मैदान पकड़ने के बाद शतक भी जमाया । 

हालांकि बुरे वक्त ने अभी  साथ छोड़ा नहीं था। पहले आईपीएल में नाइटराइडर्स की कप्तानी की और बुरी तरह पिटे। दूसरे आईपीएल में कप्तानी चली गई..हार से खीझे शाहरुख ने ये  कहकर कप्तानी किसी और को दे दी...कि टीम को एक नौजवान कप्तान चाहिए। चौथे आईपीएल तक आते आते तो ये हाल हो गया कि गांगुली बिके ही नहीं। किसी भी टीम को उनको खरीदने की हिम्मत नहीं हुई। अनबिके गांगुली टीवी पर कमेंट्री करने लगे। लेकिन पांचवें आईपीएल में पुणे वारियर्स ने उन्हें खरीदा ही नहीं, कप्तान भी बनाया। गिरना, फिर उठना और दौड़ना कोई सीखे तो गांगुली का उदाहरण सामने है। वो ज़िद्दी हैं जो चाहते हैं , उसके लिए मेहनत करते हैं, और फिर उसे पाने का सुख दूसरों को भी देते हैं। इसीलिए अपनी से आधी उम्र के खिलाड़ियों के सामने जब बीते शनिवार को गांगुली को मैन ऑफ द मैच का अवॉर्ड मिला, तो 'चैंपियन' की नई परिभाषा गढ़ी गई। 

आज के ज़माने की टीम इंडिया का तानाबाना गांगुली ने ही बुना था। गांगुली से पहले किसी कप्तान की हिम्मत नहीं होती थी कि दिल्ली और मुंबई के खिलाड़ियों को छोड़कर किसी और पर जुआ लगा दे। छोटे छोटे कस्बों से खिलाड़ियों की प्रतिभा पहचान कर उन्हें मौका देने के लिए बड़ा दिल चाहिए। एक कप्तान का दिल। धोनी , कैफ  से लेकर हरभजन और आरपी सिंह तक गांगुली की पैदावार हैं। इसीलिए शनिवार की शाम मान ऑफ द मैच का इनाम हाथ में पकड़े गांगुली को इस बात का संतोष ज़रूर होगा...कि वो अभी चुके नहीं हैं।             

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मन्नत के धागे

ऊंची पहाड़ी पर मंदिर है। मान्यता है कि मुरादें पूरी होती हैं। साल में जब मेला लगता है तो सैकड़ों लोग उमड़ आते हैं। आम दिनों में बीस-पच्चीस लोग तो चले ही आते हैं। मंदिर के सामने खड़ा है एक पेड़। उधर मंदिर में मुराद मांगी, इधर निकल कर पेड़ पर मन्नत का धागा बांधा। पेड़ धागों से अटा पड़ा है (पेड़ का जीवन बचाने के सवाल पर बाद में विचार कर लेंगे)। मेले वाले दिन भारी रेलमपेल। दूर-दूर से आते हैं श्रद्धालु। मेला भर उठता है पहाड़ी के नीचे। मेला देखा। खाया-पकाया, थक कर रात को वहीं सो रहे। बाकी दिन भी पर्याप्त मात्रा में श्रद्धालु पहुंच ही जाते हैं! सो, भगवान भी विश्वसनीयता को लेकर सतर्क हो गए हैं। भले कलयुग हो, भगवान के घर कोई देर-सबेर नहीं है! रात में ही धागा-प्रभारी से सामने रखवा लेते हैं पूरा हिसाब। एक-एक धागे की कैफियत पूछते हैं, परखते हैं, जांचते हैं, तब होता है किसी एकाध मन्नत पर विचार! लोभ-लालच के धागे भगवान एक नजर में ही ताड़ जाते हैं। धागा-प्रभारी तक ऐसे धागे भगवान के सामने लाने में हिचकता है। लेकिन आदेश है, सो हर दिन बांधे गए हर धागे का हिसाब कृपानिधान के सामने बखानता है।‘हां, प्रभु! वही कंजी आंखों वाले का धागा है। अपने ताऊ की जायदाद अपने नाम कराने के चक्कर में है। चांदी के मुकुट का लालच दे गया है।’ ‘धूर्त! डालो धागा कूड़ेदान में...’- प्रभु झटके में फैसला करते हैं। धागा-प्रभारी तत्परता से पालन करता है। ‘ये नीला वाला?’ ‘वह जो जोड़ा आया था और पत्नी कर रही थी प्रार्थना, उसी का है...।’ प्रभु को याद आया। पति हाथ जोड़े खड़ा था, पत्नी बुदबुदा रही थी। पति ने पूछा
चट से बोली थी कि क्यों बताएं? मन्नत बताई नहीं जाती। और मन्नत भी तो देखो क्या थी-‘ प्रभु! तुम्हारा लाख-लाख धन्यवाद। पति सुंदर है। घर सलोना है। बस सास से छुटकारा दिलवा दो, घर की चाबी मेरी कमर में लगवा दो। भंडारा करवाऊंगी।’ प्रभु हल्के-से मुस्करा भर देते हैं। ‘कूड़ेदान में डालूं!’ इसी बीच धागा-प्रभारी निवेदन कर देता है। झटके से टूट जाती है प्रभु की तंद्रा। ‘फौरन।’ प्रभु कुछ भी लंबित नहीं रखते!‘अब ये हरा धागा?’ ‘वह लड़की आई थी न, जो अपनी सौत से बचाने की प्रार्थना कर रही थी, उसी ने बांधा है।’ ‘वह जो अंग्रेजी में आ रहे विचारों को हिंदी में अनुवाद करके हमें सुना रही थी?’ ‘हां प्रभु, कितनी नादान थी। सर्वशक्तिमान के सामने खड़ी है और सोचती है प्रभु अंग्रेजी नहीं जानते! ये मनुष्य भी प्रभु!’ ‘खैर, क्या मांग थी?’ प्रभु ने धागा-प्रभारी को डपट दिया। ‘पति के जीवन से सौत निकल जाए, पूरी तरह से उसी का शिकंजा कस जाए।’ ‘अरे, उसकी तो अभी शादी ही नहीं हुई है।’ प्रभु गलती सुधारते हैं। फिर कूडेÞदान! प्रभु आधे घंटे में ही अधिकांश धागों का हिसाब कर देते हैं।‘अब ये तेरे हाथ में क्या चमक रहा है?’ प्रभु अचानक धागा-प्रभारी से पूछते हैं। ‘कृपा निधान, वह छोटी-सी बच्ची आई थी, जो अपनी नानी के लिए प्रार्थना कर रही थी, जिसका मोतियाबिंद का आॅपरेशन हुआ है। चाहती थी कि नानी की आंखें उसके जैसी नीली और खूबसूरत हो जाएं। क्या करूं?’ ‘ला, मेरे हाथ में दे।’ प्रभु ने हाथ में धागा लिया। मुग्ध होकर उसे निहारने में लगे। धागा-प्रभारी भक्त की भावना में डूबे प्रभु को जी भर कर निहारना चाहता है। उसे पता है, भगवान के चेहरे पर ऐसे अलौकिक भाव किसी चमत्कार से कम नहीं हैं।

किन्हीं अनुज खरे द्वारा लिखित

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चोर कौन है

"चोर की दाढी में तिनका" पर जो बवाल मचा , और उसके बाद सारे सांसद जिस तरह से अन्ना के खिलाफ इकट्ठे हुए.. उससे कुछ और मुहावरे प्रासंगिक हो चले हैं.....जैसे..चोर चोर मौसेरे भाई, उल्टा चोर कोतवाल को डॉटे..चोरी ऊपर से सीनाजोरी , इत्यादि इत्यादि। वैसे अब वो दिन आने वाला है, जब नेता मार खाएंगे..अफसर तो निशाने पर पहले से ही हैं..और ये परेशानी भी उन्हीं लोगों को हो रही है, जो मानते हैं कि सांसद बनकर वो एक कवच पहन लेते हैं...किसी की इतनी हिमाक़त कि हमें चोर कहे...पकड़कर संसद में लाओ उन सबको जिनकी कलम या ज़ुबान से हमारे इस अधिकार को ख़तरा है...


देश जब इन बहस-मुबाहिसों में मशगूल है, एक दूसरी तस्वीर भी उभरती है-देश में तेजी से बढ़ रही नवधनाढ्यों की क्षुद्र मानसिकता और उसके चलते उनके लगभग आपराधिक होते आचरण की तस्वीर। रोहिणी इलाके में एक डॉक्टर दंपत्ति अपनी नाबालिग मेड को घर के एक कमरे में बंद कर छुट्टियां मनाने परिवार समेत बैंकॉक चले गए। छह दिन तक भूखी - प्यासी रहने वाली इस लड़की की करुण पुकार जब पड़ोसियों ने सुनीं..तो पुलिस को इत्तिला की..और उसे किसी तरह बाहर निकाला गया। ये देश के किसी गांव या कस्बे की कहानी नहीं है, देश की राजधानी के एक इलाके की खबर है। उसी दिल्ली की, जहां संसद है और जिसमें करीब 800 जन-प्रतिनिधि रोज़ देश के लिए काम करते हैं और नाक पर मक्खी नहीं बैठने देते। उन्हें ये कतई मंजूर नहीं है कि कोई इस बात पर टिप्पणी करे कि उनके कर्तव्य त्या हैं। हां..अधिकार की बात ज़रूर वो करते हैं। जैसे लाल बत्ती की कार चाहिए...तनख्वाह और भत्ते और चाहिए..और वो कवच भी...जिस पर कोई कभी हमला न कर सके। लेकिन रोहिणी की उस बच्ची की हालत जानना शायद उसके कर्तव्यों की लिस्ट में नहीं है। उसके बारे में शायद इन 800 माननीयों में से किसी के पास सोचने के लिए वक्त भी नही है। देश इसी तरह चलता रहेगा...अन्ना और सरकार में से कौन सही है..दफ्तरों में, बसों में और घरों में भी लोग इस पर लड़ते झगड़ते रहेंगे, लेकिन इतना वक्त किसी के पास शायद ही होगा कि कोई उन हलात के बारे में सोचे जो किसी नाबालिग बच्ची को झारखंड से दिल्ली आकर बिकने पर मजबूर करते हैं।

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मां नाराज है।


तुझसे से दूर हुआ हूं बेशक,
पर मां तेरा हूं।
तेरे आंगन आता जाता,
नित का फेरा हूं।
तुझसे सीखा बातें करना
चलना पग-पग या डम मग
तूने कहा तो मान लिया
ये दुनिया है मिल्टी का घर
मिट्टी के घर की खुशबू तू,
तू गुलाब सी दिखती है
रूठी-रूठी मुझसे रहती
लेकिन फिर भी अच्छी है।
मां मेरी अब मान भी जाओ
अब तो हंस दो ना
तेरा लाला तुझे पुकारे
प्यार से बोलो- हां!
मुझे पता है तेरे आंसू
व्यर्थ नहीं बहते।
पर तू डर मत सांझ नहीं हूं
नया सवेरा हूं।
तुझसे दूर हुआ हूं बेशक,
पर मां तेरा हूं।
तेरे आंगन आता जाता
नित का फेरा हूं।

- देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9953717705

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ये हैं असली चैम्पियन

'ये समझ लीजिए कि ईशान मेरा भाई नहीं .... दूसरा बच्चा है..हमने उसे बच्चे की तरह पाला है' कहते-कहते 40 बरस के अमित गुप्ता का गला रुंध जाता है। ईशान आईटी प्रोफेशनल हैं और 4 बरस पहले नोएडा में एक सड़क दुर्घटना में कोमा में चले गए थे, ऐसे कि डेढ़ बरस तक वापस नही आए। डॉक्टरों ने जवाब दे दिया था, लेकिन अमित और उनके परिवार की उम्मीदों ने नहीं। ईशान के शरीर में सांसें तो थीं, लेकिन उनका दिमाग साथ नहीं दे रहा था। पूरे दो साल अमित गुप्ता , उनकी पत्नी और उनकी मां ने ईशान को कुछ ऐसे पाला जैसे कोई नवजात शिशु। अपने भाई को फिर से चलता देखने की ललक ने अमित और उनकी पत्नी में इतनी ऊर्जा भर दी थी कि साल भर की उनकी बच्ची की देखरेख भी इसके आड़े नहीं आई। अमित बताते हैं कि छोटा भाई ईशान कोमा से लौटेगा या नहीं, इसकी कोई गारंटी नहीं थी, लेकिन उसके ईलाज के लिए अमित और उनके परिवार ने कानपुर का घर बेच दिया।

होली और दीवाली जैसे त्योहार आते थे और कब चले जाते थे , उनके परिवार को पता भी नहीं चल पाया। डेढ़ बरस बाद जब ईशान कोमा से वापस लौटे, तो परिवार की जान में जैसे जान आई। लेकिन अभी इम्तिहान जैसे खत्म नहीं हुए थे। ईशान को खड़ा करना था जिसके लिए अमित , उनकी पत्नी और उनकी मां ने अपनी पूरी ताकत लगा दी। अमित ईशान को अपने आगे कर पीछे से एक बेल्ट में अपनी कमर से बांध देते और फिर ईशान को खड़ा रखने की कोशिश करते थे। बकौल अमित ये मुहिम एक सेकेंड के टारगेट से शुरू हुई। यानी पहले दिन एक सेकेंड के लिए ईशान को खड़ा किया फिर दूसरे दिन दो सेकेंड और तीसरे दिन तीन सेकेंड। इस तरह हर दिन वो एक सेकेंड बढ़ाते गए और टारगेट पूरा करते गए। एक-एक सेकेंड ईशान की ज़िंदगी के खाते में जुड़ते गए और अब किसी भी सामान्य व्यक्ति की तरह ईशान रोज़मर्रा की ज़िंदगी में वापस लौट आए हैं....ज़िंदगी के वो डेढ़ साल उन्हें याद नहीं हैं...और वो याद करना भी नहीं चाहते ... एमबीए की पढ़ाई उन्हें मसरूफ़ रखती है, लेकिन उनका चेहरा अगर आप देखें तो आप को उनके भाई, उनकी भाभी और उनकी मां की तस्वीर दिख जाएगी..क्योंकि मैंने देखे हैं उस चेहरे में ये अक्स।

ईशान अमित के लिए इकलौते पड़ाव नहीं थे... मुश्किलों ने अमित को जब-जब अकेले में धरना चाहा, वो हमेशा गच्चा दे गए। न सिर्फ गच्चा दे गए...बल्कि उस लड़ाई में अव्वल होकर बाहर भी निकले। ठीक उसी तरह जैसे यूपी बोर्ड की भयानक मानी जाने वाली दसवीं और बारहवीं की परीक्षाओं में मेरिट में उन्हें जगह मिली थी। इंटरमीडिएट के नतीजे आ गए थे और घर-बाहर , पड़ोसियों और रिश्तेदारों में मां-बाप की नाक और ऊंची हो गई थी। रुड़की इंजीनियरिंग कॉलेज में एडमिशन मिलने से पिता की छाती और चौड़ी हुई लेकिन इसके कुछ ही दिनों के भीतर जैसे परिवार की खुशियों को ग्रहण लग गया। जिस दिन उन्हें इंजीनियरिंग कॉलेज मे एडमिशन के लिए जाना था उसके एक दिन पहले पिता ने आंखें मूंद लीं। जब इंजीनियरिंग में एडमिशन मिलना प्रतिभा की सबसे बड़ी मिसाल मानी जाती थी, उन्हें देश के अच्छे कॉलेजों में से एक में जगह मिली, लेकिन पिता के यकायक जाने से टूटे आर्थिक मुश्किलों के पहाड़ ने उन्हें रुड़की से अलग रखा। हार कर अमित ने बीएससी की और ज़िंदगी के खेल में आगे बढ़ लिए। ज़िंदगी रोड़े अटकाती रही, और वो लोहा बनते गए।

इसीलिए अगर अपने बच्चों को बताना हो कि असली चैंपियन कैसे होते है , तो आप नोएडा के सेक्टर 25 में अमित गुप्ता के घर ज़रूर जाएं।

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