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आख़िर क्यों ?

आख़िर क्यों क्यों क्यों ?
ये 'क्यों' है... एक प्रवृत्ति के लिए। प्रवृत्ति दूसरों की ज़िंदगी में ताक-झांक करने की। कई बार हैरानी होती है कि क्यों हमारी दिलचस्पी अपने नंगे सचों को देखने के बजाए दूसरों की ज़िंदगी को नंगा करने में होती है? जहां चार लोगों की महफ़िल जमी वहां किसी पांचवे का ज़िक्र छिड़ जाता है। दूसरे की ज़िंदगी में भी दिलचस्पी लेना वहां तक समझ आता है, जहां तक उस दिलचस्पी से हमारी अपनी ज़िंदगी कुछ ख़ास तरह से जुड़ी हो। किसी ने क्या पहना है, क्या खरीदा, किसकी ज़िंदगी में कौन आया, कौन किससे बात कर रहा है, किसके साथ घूम रहा है, वो दुखी क्यों है, वो इतना खुश क्यों है....... आख़िर क्यों ? क्या एक सामाजिक प्राणी होने या दुनियादारी निभाने का मतलब ये होता है कि हम दूसरों की ज़िंदगी में गैरज़रुरी दख़ल देना शुरु कर दें.... या किसी दूसरे को अपनी सोच का गैरज़रुरी हिस्सा बना लें।
इस आदत की गुलामी में जी रहे लोगों पर अब तो तरस आने लगा है। फिल्म DDLJ का एक डॉयलॉग याद आ गया जो 'छुटकी' काजोल से कहती है...

"मिस लूसी कहती हैं कि... अगर आदतें वक्त पर न बदली जाएं तो ज़रुरतें बन जाती हैं"

----मीनाक्षी कंडवाल-----

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