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म्हारी प्रीत निभाजो जी

"प्यार में तकलीफ ही क्यों होती है ?"

"इसलिए कि प्रेम अधिकार देता है, और वो जब मिलता नहीं या मिलने का सिर्फ छलावा देता है तो एकाकीपन घेर लेता है। और उससे दुख का जन्म होता है।"

"प्रेम में तो एक से दो होते हैं न ? तो ये अकेलापन क्यों ?"

"अरे पगली, कभी-कभी तो एक और एक मिलकर ग्यारह भी हो जाते हैं। लेकिन कभी-कभी बस ज़ीरो। यही तो कलर्स हैं प्रेम के। कहीं फीके...तो कहीं चटक...कहीं ऐसे रंगीले कि वो रंग ही जैसे पहली बार दिखे हों...और कभी- कभी तो इतने उदास से कलर्स भी... जैसे पतझड़ वाली कोई दोपहर हो...अकेली... नितांत एकाकी।"

" प्रेम अधिकार देता है, तो प्राब्लम कहां है फिर "

" अरे मेरी सोनचिरैया....प्रेम अधिकार का अहसास कराता है, लेकिन वो अहसास बड़ा छलिया होता है रे...वो होता भी है ...और नहीं भी होता। अधिकार जो शब्द है न, बड़ा भ्रामक है, कभी लबालब छलकता सा है और कभी रीते प्याले सा पड़ा रहता है।"

" अच्छा एक बात बताओ रिक्की....ये प्रेम होता क्यों है...आई मीन ऐसा क्या होता है हमारे मन में जो हमें मुहब्बत हो जाती है।"

" तुम बताओ न ? तुम्हें क्या महसूस हुआ था पहली बार....जब तुम्हें लगा था कि तुम्हें मुझसे इश्क हो गया है।"

" एक्चुअली जब मुझे पहली बार कुछ हुआ था न....तो उसके कई दिन बाद इश्क जैसा महसूस हुआ था कुछ। तुम्हें बार-बार मुड़ कर देख लेने का मन होता था....कनखियों से देख लेने का मन.....रात में सोते वक्त तुम्हारा ख्याल और फिर सुबह उठते तुम्हारी शक्ल आंखों के सामने। लेकिन तुम मेरी ओर देखते भी नहीं थे, इसलिए गुस्सा भी आता था मुझे तुम्हारे ऊपर। मैं सोचती थी- जाने क्या समझता है अपने आप को। फिर मुझे लगा कि ...यार दरअसल उसके ऊपर नाराज़ होने से अच्छा है खुद को देखूं। मैं भी तो ऐसी ही हूं। बस...मेरी निगाह उस दिन से हर रोज़ क्लास में तुम्हें ही खोजने लगी। फिर एक दिन एहसास हुआ कि वो गुस्सा जाने कब मोहब्बत में बदल गया।"

" मुझे लगता है प्रेम की केमिस्ट्री बड़ी अजीब होती है... इश्क उसी से होता है , जो आप से बेहतर होता है....मतलब ज्ञान में हो....दिखने में हो....शार्पनेस में हो...स्मार्टनेस में हो....कुछ तुमसे अलग हो ..तो पहले आकर्षण ...फिर प्रेम। "

" तो फिर कभी-कभी अचानक ऐसा क्यों लगने लगता है कि प्रेम कम होने लगा है ? "

" प्रेम में जब एक व्यक्ति दूसरे से बहुत प्रेम करने लगता है...तो हमेशा उसके आसपास रहना चाहता है, हमेशा उस से बात करना चाहता है...ऐसा होने से दूसरे को अक्सर थोड़ी बोरियत होने लगती है...वही बातें , वहीं शक्लें...याद रखो इश्क में पड़े किन्हीं भी दो लोगों का प्यार का लेवल बराबर नहीं होता। उनमें से एक के प्यार का प्याला लबालब भरा होता है और दूसरे का थोड़ा खाली। बस इसी से गड़बड़ियां शुरू होती हैं। जब आप थोड़ा दूर होते हैं तो इश्क में भीगे-भीगे से रहते हैं। जादुई मैनरिज़्म होते हैं दोनों के। वो कैसे बालों को झटका देती है...कैसे नाराज़ होती है...वो कैसे लापरवाह-लापरवाह सा रहता है....क्या शानदार चाल है उसकी...वगैरह वगैरह। दिन में एक बार मिलते हैं तो सब कुछ करिश्माई ही लगता है। लेकिन जब पास आ जाते हैं तो एकदूसरे की छोटी-छोटी ग़लतिया भी बड़ी दिखने लगती हैं। "

"अच्छा ये बताओ, क्या प्रेम कई बार होता है ?"

" देखो, प्रेम रोज़ सुबह उठकर ब्रश करने या शेव करने जैसा कोई रूटीन काम नहीं होता, जो रोज़ हो जाए। रोज़ किसी नये आदमी से प्रेम नहीं हो सकता। आकर्षण हो सकता है रोज़-रोज़। प्रेम की अवस्था आकर्षण के बाद की है.....थोड़ा ऊपर का मामला है ये। जब आप प्रेम करते हैं ना....तो आपके इश्क का ग्राफ धीरे-धीरे ऊपर चढ़ता है...अपने पीक पर पहुंचता है...ज़्यादातर मामलों में कुछ देर ठहरता है...फिर उसी रफ्तार से नीचे भी आ जाता है। ज़िंदगी की सच्चाइयों से रू-ब- रू होते ही शिकवे-शिकायतों का सिलसिला शुरू हो जाता है। और फिर अक्सर दोनों लोग कोई आसरा खोज लेते हैं। कई केस ऐसे भी होते हैं जहां एक बार चरम पर पहुंच कर ग्राफ कभी नीचे आता ही नहीं। हमेशा वहीं बना रहता है। प्रेम होने और फिर रिश्ता टूटने में ही इतने बरस हो जाते हैं कि दूसरी बार प्रेम भी इतनी जल्दी नहीं होता। व्यक्ति पहले उस टूटन से उबरने में वक्त लेता है...और जब तक फिर लगता है कि उसे किसी से प्यार हो रहा है...तब तक आधी ज़िंदगी बीत चुकी होती है। "

" हम्म्म्म्म......... तो इश्क में तो पीएचडी हैं आप....हैं ना ?"

" नहीं.....डी लिट.....हा हा हा हा " -- -- -- -- -- -- -- -- -- -- -- -- -- -- -- -- -

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