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इंशाजी उठो अब कूच करो



इंशाजी उठो अब कूच करो,

इस शहर में जी का लगाना क्या

वहशी को सुकूं से क्या मतलब,

जोगी का नगर में ठिकाना क्या

इस दिल के दरीदा दामन में

देखो तो सही, सोचो तो सही

जिस झोली में सौ छेद हुए

उस झोली को फैलाना क्या

शब बीती चाँद भी डूब चला

ज़ंजीर पड़ी दरवाज़े पे

क्यों देर गये घर आये हो

सजनी से करोगे बहाना क्या

जब शहर के लोग न रस्ता दें

क्यों बन में न जा बिसराम करें

दीवानों की सी न बात करे

तो और करे दीवाना क्या


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26/11, मुंबई और असली आतंकवादी

" समझ नहीं आता, तारीखों से क्या रिश्ता है... क्या 26/11 के ज़ख्मों से खून सिर्फ आज के हीं दिन रिसता है..... ??? "ये वो लाइनें हैं जो 26 नवंबर को लिख पाया बस... लेकिन जब से मुंबई का दौरा कर के लौटा था तब से हीं सोच रहा था कि इस बाबत कुछ लिखुंगा.... पर समय नहीं मिल पाया... 26/11 पर बनने वाली एक डॉक्यूमेंट्री के सिलसिले में मुंबई गया था.... 3 दिन शूट किया... हर उस जगह को करीब से देखा जहां की दीवारों, गलियों और सडकों तक से खून रिस रहा था एक साल पहले.... लोगों को भी देखा.... जिन्होंने ये सब देखा और झेला है.... जिनके आस-पास हादसा तो हुआ लेकिन वो महज़ viewer भर थे, उनके लिए 26/11 को याद करना, कैमरे के सामने सब बोलना, कहानी की तरह बताना.... बहुत मुश्किल नहीं था... कुछ तो शायद बोलते बोलते प्रोफेश्नल हो गये थे.... कामा हॉस्पिटल में एक शख्स मिला जिसने कसाब के साथ बीस मिनट बिताये थे.... और जिन्दा बच गया था.... मिलकर मुझे लगा कि शायद इसकी रुह तक कांप जाये हमें उस दिन के बारे में बताने में... लेकिन उसने तो टेक पर टेक दिये... सबकुछ इनऐक्ट कर के बताया.... यहां तक कि जब हम उससे पहली बार मिले और लिफ्ट का इंतज़ार कर रहे थे तो मैंने बातों बातों में उससे पूछा कि उस दिन हुआ क्या था... और उसने कहा... देखो साहब, बार बार नहीं बताउंगा... घबराओ मत, ऊपर चलो... सब ऐक्ट कर के दिखाउंगा... मेरे तो होश फाख्ता हो गये.... क्योंकि जब उसने कहा कि वो नहीं बताएगा तो मुझे लगा कि बेचारे के जख्म हरे हो जाते होंगे शायद बार बार बताने में लेकिन फिर लगा कि नहीं ये तो हैबिच्वुअल हो चुका है और अपना समय बरबाद नही करना चाहता....इंटरव्यू खत्म होने के बाद तस्वीर और साफ हुई कि उसे बस पैसे चाहिए थे.... थोड़े और............लोग हंस रहे थे.... मस्त थे... बेखौफ हर उस जगह, जहां हमला हुआ था, मौजूद थे.... मुझे लगा शायद प्रशासन की तैयारियों ने इस बेखौफी को जन्म दिया है... लेकिन उनसे बात करके पता चला कि नहीं, उनसब को पूरा यकीन था कि मुंबई पर दुबारा ऐसा हमला हो सकता है.... फिर क्या चीज़ थी जो उन्हें डरने नहीं दे रही थी.... इस सवाल को साथ लिए मुंबई से दिल्ली वापस आ गया....और इस बात का जवाब मिला मुझे 26/11 के दिन शो एंकर करते वक्त, जब एक 10 साल की बच्ची हमारे साथ मुंबई से लाइव बैठी.... मुंबई हमलों में उसने टांगे गंवा दी हैं और कसाब मामले की सबसे कम उम्र की गवाह है वो.... बातचीत ठीक चल रही थी... मैं शायद उसका दर्द उससे ज्यादा महसूस कर पा रहा था... पर शो के अंत में जब उसका धन्यवाद करने लगा तो वो अचानक बोल पड़ी कि मैं लोगों से कहना चाहती हूं कि मेरा स्कूल में ऐडमिशन कराओ, मुझे घर चाहिए और टीवी भी और....... वो बोल हीं रही थी साउंड इंजीनियर ने पीसीआर से उसका ऑडियो काट दिया.... मैं सन्न था... जैसे तैसे शो वाइंड अप किया.... और उस वक्त लगा कि मुंबई में जो देखा और उस मंज़र ने जो सवाल पैदा किए उनसब का जवाब इस छोटी सी बच्ची ने दे दिया.... हर दर्द, हर तकलीफ शायद कुछ पल के बाद नहीं लौटती लेकिन भूखे पेट की हीं तकलीफ ऐसी है जो हर कुछ घंटों के बाद मुंह बाये सामने खड़ी हो जाती है.... और इसीलिए, किसी को डर नहीं लगता किसी आतंकी हमले से, किसी कसाब से, किसी अबु इस्माइल से... या फिर कहूं कि ज्यादा देर डर नहीं लगता क्योंकि सबको पता है कि इनसे डर गए तो पेट की आग जला कर मार देगी.... आतंकियों से तो फिर भी 60 घंटे लड़ा जा सकता है,जंग जीती जा सकती है लेकिन भूखे पेट का आतंक 60 घंटे क्या, 6 घंटे में हीं वो दर्द देने लगता है जो शायद AK-47 की गोलियां भी न देती होंगी.... 26/11 के आतंकियों ने भी सबकुछ धर्म के नाम पर भले किया हो लेकिन वो भी अपने परिवार वालों को भूख के आतंक से दूर रखने के लिए हीं खुद सूली चढ़े.... ये भी एक सच है....और शायद सबसे बड़ा सच ये है कि हर दिन एक 26/11 है... जहां हम सब जिन्दा रहने की लड़ाई लड़ रहे हैं... और आतंकी भूख, घात लगाये बैठी है...

सुशांत सिन्हा

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'लौ' रौशन हो रही थी...

एक लौ रौशन करना मक़सद था..।
याद आ रहे थे पिछले साल के वो लम्हें जब आंखों से शहीद एनएसजी मेजर संदीप उन्नीकृष्णन के पार्थिव शरीर पर उनकी मां को बदहवास, रोते-बिलखते देखा था... उन इमोशन्स को कैश करवाने के लिए मुझे दृश्यों को "लुका-छिपी बहुत हुई, सामने आ जाना... कहां-कहां ढूंढा तुझे, थक गई है अब तेरी मां" गाने के साथ एडिट करवाने का आदेश मिला..। मेरे दोस्त मुझे बेहद मज़बूत दिल और कभी न रोने वाली लड़की के तौर पर जानते हैं लेकिन इस काम को करते वक्त कितनी बार दिल रोया.. कितनी बारे आंखें छलकी और कितनी बार लंबी सांस लेकर ख़ुद को संभाला.. मैं ही जानती हूं..।
26/11 की बरसी पर उन यादों को मोमबत्ती की लौ में रौशन देखना चाहती थी..।
जानना चाहती थी कि दिल्ली के दिलवाले कैसे 'ख़ामोशी' के साथ आवाज़ बुलंद करते हैं..। इसलिए रात को दफ़्तर से जल्दी छुट्टी लेकर इंडिया गेट की तरफ़ रुख़ किया..। ऑटो मैं बैठी थी लेकिन मन जैसे ख़्यालों के बोझ से मनभर हुआ जा रहा था... मैं क्या करुंगी वहां, क्या किसी से मेल-मुलाकात या बातचीत करुंगी, ख़ामोशी से उस लम्हें को महसूस करुंगी या फिर बस मोमबत्तियां जलाकर वापस लौट जाऊंगी..। लेकिन जैसे ही इंडिया गेट दिखाई दिया और मैं ऑटो से उतरकर उसके क़रीब पहुंची तो ख़्यालों का तूफ़ान थम चुका था..। शान और रौब के साथ खड़े इंडिया गेट की दीवार... और उसके नीचे ख़ुद को बेख़ौफ़ खड़ा पाकर... मन ने सलाम किया उन वीरों को जिनकी बदौलत मुझे वहां खड़े रहने की 'आज़ादी' नसीब थी..। मैं जैसे उस लम्हें में खो सी गई थी, फिर किसी ने अचानक आकर पूछा "Do you want to light a candle", मुझे अचानक याद आया कि हां एक 'लौ' जलाने के लिए ही तो आई हूं मैं..। मैंने उस शख़्स से वो मोमबत्ती ली और ठीक अमर जवान ज्योति के सामने जहां सब लोग मोमबत्तियां जला रहे थे... एक मोमबत्ती जला दी..। सैंकड़ों मोमबत्तियों की रौशनी में मुंबई हमलों के शहीदों की तस्वीर वाला बोर्ड झिलमिला रहा था..। नज़रों ने कहा वाह दिल्ली, मानना पड़ेगा वर्किंग डे पर भी वक़्त निकालकर तुम लोग यहां आए हों..। ख़ैर, नज़रों की ये वाहवाही बहुत देर तक बरक़रार नहीं रही... क्योंकि जब नज़रों ने आसपास के मंजर को थोड़ा और गहराई से समझना शुरू किया तो दिल टूट सा गया..।
चेहरों पर कोई गंभीरता नहीं थी, लोग इंडिया गेट पर अपनी उपस्थिति का सबूत देना चाहते थे, लिहाज़ा इंडिया गेट के हर कोने पर खड़े होकर तस्वीरें खिंचवाई जा रही थी..। पिकनिक स्पॉट की कमी को पूरा करने के लिए चाट-पकौड़ी, आइसक्रीम, चाय-कॉफ़ी, बच्चों के खिलौने और लड़कियों के साज-श्रृंगार का सामान बेच रहे रेहड़ी वाले भी अच्छी-ख़ासी तादाद में मौजूद थे..। मीडिया के कैमरामैन और अखबारों के फोटोग्राफर्स को चिंता थी कि कहीं कोई तस्वीर कैमरे में कैद होने से छूट न जाएं, और रही सही कसर सिगरेट फूंक रहे नौजवानों ने पूरी कर दी..। बस सुक़ून था तो इस बात का कि कम से कम कुछ माता-पिता तो ऐसे थे जो अपने बच्चों को इंडिया गेट पर मोमबत्ती जलाने का मतलब समझा रहे थे, या फिर कुछ बुज़ुर्ग (शायद आर्मी के रिटायर अधिकारी रहे होंगे) जिनकी आंखें मोमबत्तियों के उस नूर को सम्मान के साथ देख रही थी..।
मै किनारे एक मुंडेर पर बैठकर इंडिया गेट को क़रीब से महसूस कर रही थी..। शायद इतने क़रीब से जितना 22 सालों के सफ़र मे कभी महसूस नहीं किया था..। खुले आसमान के नीचे, अनजान चेहरों के बीच... मोमबत्तियों की लौ पर नज़रें टिकाए हुए, मैं कहीं ख़ुद को भी तलाश रही थी..।
रात डूब रही थी.. भीड़ छंट रही थी..। खुले आसमान के नीचे ठंड जैसे बदन का खून जमा रही थी... लेकिन कुछ था जो पिघल रहा था और 'लौ' रौशन हो रही थी..।

--मीनाक्षी कंडवाल

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मैं मां बन गया हूं... (कॉन्ट्राडिक्शन-5)



निष्ठुर... उसके फोन में मेरा नाम इसी नाम से दर्ज था, और मैंने अपनी फोनबुक में उसके बारे में दुष्ट लिख रखा था... मैं अक्सर अपनी प्रेमिकाओं के वो नाम भूल जाया करता था जो उनकी हाईस्कूल की मार्कशीट में दर्ज थे या जिनके साथ मेरी पहली मुलाकात उनसे हुई थी... ये बात शायद अजीब लगे लेकिन शहर बदलने के बाद मैं अपनी उस प्रेमिका को सिर्फ इसलिए नहीं ढूंढ पाया कि उसे बिट्टू के नाम से कोई नहीं जानता था...

यानी ये दूसरी प्रेमिका थी... (अगर मैंने कहीं अपने लेखन में सोलन की चिड़िया का भी जिक्र किया है तो फिर तीसरी...) बुरा होना इस दौर की समझदारी थी, इसलिए मैं उसे और वो मुझे अक्सर बुरे नामों से पुकारता था... मेरे कमरे की दीवारें छोटी थी, और उसकी छत को में एकटक देखता था और अक्सर उस पर लटकते सपने को तोड़ लेता था... उन दिनों में उनींदा रहने लगा था...

मैं अपनी बकवास और फ्रस्टेशन को किसी से न कह सकने की स्थिति में अक्सर कागज पर उतार देता, और तालियां बटोरता... मुझे इसकी आदत हो गई थी, और अब तुम्हारे बिना भी मैं आत्ममुग्ध हो सकता था...

उन दिनों में मां होना चाहता था और छत के पंखे के नीचे पसीने के तर तकिये को भूलकर घंटों दुनिया से बेहोश रहता था... दिमाग बाकी जिस्म से अलग होकर कहीं तैरने चला जाता था, या लगता था कि सिर्फ दिमाग सो गया है... बाकी बेहोश जिस्म देर तक जिंदा रहता था... और फिर मर कर ना जाने कैसे लौट आता था... जैसा भी था, अच्छा दौर था...

मैं तुम्हें अक्सर याद करने की कोशिश करता था... और जब बहुत सोचने पर भी तुम्हारा चेहरा... तुम्हारा रंग और तुम्हारी कोई पहचान मुझे याद नहीं आती तो मैं शराबी हो जाना चाहता था... मुझे लगता कि मैं तुम्हें न जानते हुए भी भावुक होना चाहता हूं... तुममें डूब मरना चाहता हूं... तुम्हें तमाम रंगों में से चुन लेना चाहता हूं और तुम्हारे माथे पर लाली मलना चाहता हूं... पर तुम मुझे याद नहीं आती थीं...

मैं उस दौर की उलझनों से निकलने के लिए बहस करता... सिगार पीता... या शायद बीड़ी... किसी दोस्त के कहने पर फोस्टर की बीयर और बैगपाइपर की शराब... और फिर इन सबसे निजात पाने के लिए कभी कभी तुम्हें याद कर लिया करता... इस सब से मैं अक्सर परेशान रहता और फिर और नशीला हो जाता...

मैं हमेशा चाहता कि तुम मेरा जिक्र करो... मेरा नाम लो और मै तुम्हें पुकार लूं... लेकिन न तो मुझे तुम्हारा नाम याद रहता और ना ही तुम्हें मेरा... और अचानक मुझे पता चलता कि मैं अब तक तुमसे नहीं मिला हूं... देर तक तकिये पर पसीना बहाता रहता और अक्सर पंखा चलाना भूल जाता... मैं अक्सर खामोशी में सोचता कि तुम्हारा अस्तित्व कैसा है...? मैं तुम्हारे लिए परेशान होना चाहता और तुम्हें ढूंढने की कोशिश करता...

मैं अक्सर तुम्हारे ना होने में होने की उम्मीद करता... कल्पनाओं में जीता... और तुम्हारे जिस्म की बनावट को अक्सर ओढा करता... मैं तुम्हें बेपनाह मोहब्बत करना सीख गया था... इसलिए तुम्हें जानना चाहता था... इसलिए मैं अक्सर तुम्हें पैदा कर लिया करता था...

तुम अगर उस दौर में होतीं तो मैं तुम्हारी मां बनता... वैसे तुम आज भी होतीं तो भी मैं मां ही बनता... हर बार तुममें खपने की कोशिश करता और निराश होकर बार बार आत्महत्या करता रहता... और इस तरह जीना सीखकर तुम्हें इस दुनिया का सामना करना सिखाता... मैं उन दिनों मां होना चाहता था... हर लड़के की तरह...
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9811852336

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मां देख रही है

मां नहीं है
बस मां की पेंटिंग है,
पर उसकी चश्मे से झाँकती आँखें देख रही हैं
बेटे के दुख
बेटा अपने ही घर में
अजनबी हो गया है
वह अल सुबह उठता है
पत्नी के खर्राटों के बीच
अपने दुखोंकी कविताएं लिखता है
रसोई में जाकर चाय बनाता है
तो मुन्डू आवाज सुनता है
कुनमुनाता है
फिर करवट बदल कर सो जाता है
जब तक घर जागता है
बेटा शेव कर नहा चुका होता है
नौकर ब्रेड और चाय का नाश्ता
टेबुल पर पटक जाता है
क्योंकि उसे जागे हुए घर को
बेड टी देनी है
बेड टी पीकर बेटे की पत्नी नहीं ,
घर की मालकिन उठती है
हाय सुरू ! सुरेश भी नहीं
कह बाथरूम में घुस जाती है
मां सोचती है
वह तो हर सुबह उठकर
पति के पैर छूती थी
वे उन्नीदें से उसे भींचते थे
चूमते थे फिर सो जाते थे
पर उसके घर में,
उसके बेटे के साथ यह सब क्या हो रहा है
बेटा ब्रेड चबाता काली चाय के लंबे घूंट भरता
सफेद नीली-पीली तीन चार गोली
निगलता अपना ब्रीफकेस उठाता है
कमरे से निकलते-निकलते उसकी तस्वीर के पास खड़ा होता है
उसे प्रणाम करता है और लपक कर कार में चला जाता है
माँ की आंखें कार में भी उसके साथ हैं
बेटे का सेल फोन मिमियाता है
माँ डर जाती है
क्योंकि रोज ही ऐसा होता है
अब बेटे का एक हाथ स्टीयरिंग पर है
एक में सेल फोन है,
एक कान सेलफोन सुन रहा है
दूसरा ट्रेफिक की चिल्लियाँ,
एक आँख फोन पर बोलते व्यक्ति को देख रही है
दूसरी ट्रेफिक पर लगी है
माँ डरती है
सड़क भीड़ भरी है
कहीं कुछ अघटित न घट जाए
पर शुक्र है बेटा दफ्तर पहुँच जाता है
कोट उतार कर टाँगता है
टाई ढीली करता है
फाइलों के ढेर में डूब जाता है
उसकी सेक्रेटरी बहुत सुन्दर लड़की है
वह कितनी ही बार बेटे के केबिन में आती है
पर बेटा उसे नहीं देखता
फाइलों में डूबा हुआ बस सुनता है,कहता है,
आंख ऊपर नहीं उठाता
मां की आंखें सब देख रही
हैं, बेटे को क्या हो गया है
बेटा दफ्तर की मीटिंग में जाता है
तो उसका मुखौटा बदल जाता है
वह थकान औ ऊब उतार कर
नकली मुस्कान औढ़ लेता है
बातें करते हुए जान बूझ कर मुस्कराता है
फिर दफ्तर खत्म करके घर लौट आता है
पहले वह नियम से क्लब जाता था
बेडमिंटन खेलता था दारू पीता था
खिलखिलाता था उसके घर जो पार्टियां होती थीं
उनमें जिन्दगी का शोर होता था
पार्टियां अब भी होती हैं पर
जैसे कम्प्यूटर पर प्लान की गई हों
चुप चाप स्कॉच पीते मर्द,
सोफ्ट ड्रिक्स लेती औरतें
बतियाते हैं मगर जैसे नाटक में रटे रटाए संवाद बोल रहे हों
सब बेजान सब नाटक,
जिन्दगी नहीं
बेटा लौटकर टीवी खोलता है
खबर सुनता है फिरअकेला पैग लेकर बैठ जाता है
पत्नी बाहर क्लब से लौटती है
हाय सुरू! कहकर अपना मुखौटा ,साजसिंगार उतार कर
चोगे सा गाऊन पहन लेती है
पहले पत्नियाँ पति के लिए सजती संवरती थी
अब वे पति के सामने लामाओं जैसी आती हैं
किस के लिए सज संवर कर क्लब जाती हैं
मां समझ नहीं पाती है
बेटा पैग और लेपटाप में डूबा है
खाना लग गया है
नौकर कहता है
घर-डाइनिंग टेबुल पर आ जमा है
हाय डैडी! हाय पापा!उसके बेटे के बेटी-बेटे मिनमिनाते हैं
और अपनी अपनी प्लेटों में डूब जाते हैं
बेटा बेमन से कुछ निगलता है फिर बिस्तर में आ घुसता है
कभी अखबार कभी पत्रिका उलटता है
फिर दराज़ से निकाल कर गोली खाता है
मुँह ढक कर सोने की कोशिश में जागता है
बेड के दूसरे कोने पर बहू के खर्राटे गूंजने लगते हैं
बेटा साइड लैंप जला कर
डायरी में अपने दुख समेटने बैठ जाता है
मां नहीं है, उसकी पेंटिंग है
उस पेंटिंग के चश्मे के पीछे से झांकती मां की आंखे
देख रही हैं
घर-घर नहीं रहा
होटल हो गया है
और उसका अपना बेटा महज एक अजनबी।
--श्याम सखा ‘श्याम'
(यह कविता किसी ब्लॉग पर पढ़ी और यहां उतार दी, कवि को जानता नहीं , इसलिए क्षमाप्रार्थना समेत छाप रहा हूं)

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....और सियाराम मर गया

.....और सियाराम मर गया..उस चिट्ठी का इंतज़ार करते करते जो शायद उसके बेटे को नकली पैरों का एक जोड़ा दिलाती...अपनी बेचारगी से उपजने वाली शर्मिंदगी से निजात दिलाती..18 बरस का उसका जवान बेटा साल भर पहले ट्रेन से गिरकर रेल के पहियों के नीचे आ गया...और अपने दोनों पैर गंवा बैठा..उसका दुख हमारी एक रिपोर्टर से देखा नहीं गया और उसने सियाराम की मदद करने की ठान ली। कोशिशें शुरू हुईं सियाराम को सरकार की ओर से मदद दिलाने की। पता चला कि एक लाख रुपये का खर्चा है ...मंत्री जी चाहेंगे तो अपनी ओर से मदद दिलवा देंगे...ये भी कि सियाराम के बेटे को जो नकली पैर लगाए जाएंगे उनसे वो चलने लगेगा..कमोबेश वैसे ही जैसे हादसे से पहले चलता था। सियाराम हमारे ऑफिस का ड्राइवर था और उसकी माली हालत ऐसी नहीं थी कि एक लाख रुपये का जुगाड़ कर पाता। एक लाख तो क्या...वो तो अपने उस बुखार की भी दवा नहीं कर पाया जिसे उसने मामूली समझा था और जिसने आखिर उसकी जान ही ले ली। खैर...साहब, सियाराम के बेटे को नकली पैर दिलाने के लिए नकली कोशिशें शुरू हो गईं। कोशिशों को नकली बड़े भारी मन से कह रहा हूं..इसलिए कि उन सारी कोशिशों में कुछ कोशिशें मेरी ओर से भी थीं...और सियाराम के जीते जी उसके बेटे के पैर नहीं लग पाए..तो कोशिशें नकली ही समझिए.... ये मलाल मुझे अब भी खाए जा रहा है। रिपोर्टर की हैसियत होती है , कुछ यही सोच कर मैंने अपने एक रिपोर्टर को ये इमोशनल सी ज़िम्मेदारी सौंपी..कि वो अपने 'रिश्तों'के चलते उसे वो एक लाख रुपया दिलवा पाए जो सियाराम के बेटे को चाहिए। सुबह सुबह मैं जैसे ही अपनी कुर्सी पर आकर बैठता..उदास सियाराम सामने आ खड़ा होता..नि:शब्द...मूक। सच बता रहा हूं..मैं उसे आते देखता नहीं था ...लेकिन आभास हमेशा हो जाता था कि वो आकर खड़ा हो गया है....उसके सवाल जो वो कभी पूछता नहीं था..यकीन करिये.. बहुत तीखे होते थे.....मुझे पता होता था--वो कह रहा है ...साहब अब तक कुछ हुआ नहीं.....। अब लगता है सियाराम आर के लक्ष्मण के कार्टूनों का वो 'आम आदमी' था जो कभी कुछ बोलता नहीं है..हमेशा वो सब देखता रहता है जो उसके सामने हो रहा है। 'वो'कुछ कर नहीं सकता...बस गवाह है उन सारी अकर्मण्यताओं का , सारी नपुंसकताओं का जो हमारे शरीरों में भर दी गई है...और जैसे किसी बोरे में कुछ भरकर सूजे से सिल दिया जाए...वैसे ही कुछ । सियाराम की अर्जी जिस दिन से सरकारी फाइलों में लगी ...उसके जैसे पंख लग गए....फाइल थी कि जैसे हवाई जहाज़...खूब उड़ी...कभी अफसर छुट्टी पर ..तो कभी मंत्री दौरे पर..कभी होली की छुट्टियां तो कभी दीवाली की....इस बीच एलेक्शन भी सिर पर आ गया...अब मंत्री जी ढ़ंढे नहीं मिल रहे। खैर ...मंत्री के लिए देश और उसकी जनता पहले है...इसलिए सियाराम थोड़ा 'पीछे' रह गया। देश जब इन सारी 'ज़रूरी' जद्दोजहद से गुज़र रहा था-एक दिन सियाराम मर गया। पता चला ..उसे बुखार हुआ था और उसके शब्दों में.. जाने क्यों उसका पीछा ही नहीं छोड़ रहा था। बुखार डेंगू साबित हुआ और उसने बीमार सियाराम की जान ले ली। वो मर गया लेकिन जाते जाते उसने हम सबकी पोल खोल दी। उसने ये बता दिया कि बात बात पर हांकने वाले पत्रकारों की हैसियत दरअसल क्या है...उसने पोल खोल दी कि दुनिया भर की सच्चाई उजागर करने वाले भीतर से कितने कमज़ोर होते हैं...ये भी कि चौथे खंभे की असलियत क्या है। सवाल पूरे सिस्टम पर है। मंत्री जी जब दस्तखत करते हैं तो फाइल क्यों रुक जाती है...चल भी गई तो कागज अफसरों की टेबल पर पड़ा धूल क्यों फांक रहा होता है...किस्मत से काग़ज़ अगर चेक में तब्दील हो भी गया तो डाक में खो क्यों जाता है। और ऐसा सियाराम जैसे गरीब ड्राइवर के साथ ही क्यों होता है। देश में लाखों करोड़ों के चेक इधर से उधर आते - जाते हैं...फिर ऐसा सियाराम के साथ ही क्यों हुआ। रिपोर्टरों से अब नेता और अफसर डरते क्यों नहीं....एक सही बात की वकालत करते वक्त अब चौथा खंभा मिमियाने क्यों लगता है..और..चपरासी को अफसर का , अफसर को मंत्री का और मंत्री को जनता का डर क्यों नहीं है। मैं अब भी पसोपेश में हूं...समझ नहीं आता कि बीमार कौन था...देश या सियाराम।

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80 के बहाने

कपिल सिब्बल कहते हैं कि अब IIT का एंट्रेंस देने के लिए 12वीं क्लास में 80 परसेंट लाना होगा। यानी बाकी लोग बीए, एमए करें और अगले 5 सालों में दिल्ली –मुंबई के महानगरों में खो जाएं। मैं उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद शहर से हूं और मुझे पता है कि IIT में सिर्फ बैठने का एहसास भर कितनी ऊर्जा भर देता है। हो सकता है IIT में आप जगह न पाएं...तो कोई बात नहीं किसी रीजनल इंजीनियरिंग कॉलेज में जगह मिल जाएगी..अगर वहां भी नहीं मिली तो कोई बात नहीं , क्लास टू का कोई सरकारी ओहदा ही मिल जाता था, अगर वो भी नहीं मिली तो भी , इतनी बड़ी ज़िंदगी बिता देने के लिए वो हौसला बड़ा काम आता था , जो IIT की तैयारी के वक्त अपने आप पूरे बदन में भर जाता था। ठीक वैसे ही जैसे जाड़े में हम धूप को पूरे बदन में सोख लेना चाहते हैं। कई बार ऐसा होता था कि इंटर मे नंबर आए 65 परसेंट और IIT में तो नहीं , लेकिन अच्छे इंजीनियरिंग कॉलेज में एडमिशन ज़रूर मिल जाता था। और ऐसा IIT की धुन में होता था। सिब्बल साहब के मुताबिक सोचें तो 80 परसेंट की बाड़ इसलिए लगाई जा सकती है क्योंकि सरकार कोचिंग सेंटरों को रोकना चाहती है। क्यों –ये समझ में नहीं आया। सिब्बल साहब अगर प्राइवेट MBA और इंजीनियरिंग इंस्टीट्यूय्स पर वार करते तो शायद बेहतर होता। सैकड़ों की संख्या में ये इंस्टीट्यूट्स नोएडा-ग्रेटर नोएडा में फल फूल रहे हैं। कहने को एडमिशन के लिए MAT नामका एक टेस्ट होता है लेकिन ये प्राइवेट इंस्टीट्यूट वरीयता उस बच्चे को देते हैं जो ज़्यादा पैसा डोनेशन के तौर पर देने को तैयार हो जाता है। ऐसे ज़्यादातर कॉलेजों में उन उन घूसखोर IAS-IPS अफसरों के बच्चे एडमिशन पा जाते हैं , जिन्हें कहीं जगह नहीं मिलती। यानी सिब्बल की नाक के नीचे ये अंधेर हो रहा है और सिब्बल निशाना किसी और को बना रहे हैं। ज़ाहिर सी बात है जिन बच्चों को 80 परसेंट नहीं मिलेगा , वो वक्त नहीं खराब करेंगे , तुरंत नोएडा-ग्रेटर नोएडा की ओर दौड़ लगाएंगे और जगह मिलने के लिए नीलामी में बोली लगाएंगे। यानी कपिल सिब्बल 80 के बहाने उन शिक्षा ‘सरपंचों’ की मदद कर रहे हैं, जिन्होंने प्रॉपर्टी डीलिंग के धंधे में कमाया अनाप शनाप पैसा स्कूलों में लगाया है।

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बुरा जो देखन मैं चला... (कॉन्ट्राडिक्शन-4)


मैं दुनिया के सबसे वाहियात जोक सुनकर हंसना चाहता था, सबसे गंदी गाली किसी को देना चाहता था, और सबसे बुरी लड़कियों से मोहब्बत करना चाहता था… अक्सर लोग कहा करते थे कि दुनिया बिगड़ रही है, बूढ़े अक्सर इस बात का मलाल करते थे, और मुझे उनकी बातों पर आश्चर्य होता... मुझे मुझसे बुरा कोई नहीं दिखता था, सिर्फ मेरी दुनिया बुरी थी, बाकी सब उतना खराब नहीं था... मुझे मोहब्बत करनी थी... मैं बुराई ढूंढ रहा था...

लड़की उस शहर से थी जहां तक पहुंचते-पहुंचते गंगा सबसे गंदी हो जाती है... उसने बताया था कि दुनिया के सबसे बुरे अनुभव उसके पास हैं... और मैं ये सुनकर खुश हो जाता करता था... वो सांवली थी... मुझे लगता था कि वो मुझसे कुछ लंबी होगी... न भी हो शायद... पर कभी मैं उसके साथ खड़ा नहीं था... सिर्फ इस बात के अलावा कि मैं वाहियात हो जाता चाहता था... और मुझे एक बुरी लड़की की तलाश थी...

मैंने सोचना बंद कर दिया था कि किसी के साथ प्यार करते हुए जीया जा सकता है... मैं अक्सर सोचता था कि क्या किसी के गले लगकर सुकून से मरा जा सकता है... और जब मैं इस तरह की बातें किसी से करता था, लोग मुझे पागल करार देते थे... मुझे खुद लगता था कि मैं धीरे धीरे पागलपन की ओर बढ़ रहा हूं... मैं मेरे अंदर एक और बुराई की तासीर जानकर फिर खुश हो जाता था...

मुझे अपने बुरे होने पर पूरा यकीन था... उतना ही जितना मेरे पिता को मेरे होशियार होने पर था, या जितना मेरी मां को मेरे भोला होने पर... लेकिन फिर भी कई खालीपन थे, जो भरने पर आमादा था... मैंने कभी सिगरेट न ने पीने की कोई कसम नहीं खाई थी... कभी पिताजी ने मुझसे इस तरह का कोई वायदा भी नहीं लिया था... लेकिन फिर भी सिगरेट पीना मेरे लिए वैसी ही कल्पना थी जैसा एक सांवली बुरी लड़की का साथ... वैसे सिगरेट कभी भी पी जा सकती थी... और किसी लड़की के साथ रहना भी आजाद दिल्ली में कोई मुश्किल काम नहीं है... लेकिन फिर भी ये खालीपन मुझे बताता था कि पूरी तरह बुरा बनने के लिए मुझे सिगरेट पीनी चाहिये... और...

मैं अक्सर इंटरनेट पर सबसे बुरे लोगों के बारे में पढ़ता हूं... तो मैं कुछ देर के लिए निठारी के नरपिशाचों की तरह कल्पना में जीने लगता हूं... मैं किसी गुमनाम से या नामी कवि की कविता पढ़ता हूं तो लगता है कि पुलिस की मार और सरेआम बेशर्मी से भी बुरा सपनों का मर जाना हो सकता है... मैं रोज घर से दफ्तर और दफ्तर से घर तक के चक्कर काटना चाहता हूं... और अपने सारे सपनों को मारकर सबसे बुरा होने की कोशिश करना चाहता हूं...

मैं बुरा बनना चाहता हूं और सोचता हूं कि गांधी को गाली देकर बुरा बना जा सकता है... गांधी के नाम से जुड़ी कोई अच्छाई मेरे सामने आ नाची तो मैं थक जाऊंगा... इसलिए मैं गांधी का नाम नहीं लेता... मैं रास्ते चलते आवारा होना चाहता हूं... और उसी आवारगी में ऐसी हरकतें भी कि दुनिया हिकारत से देखने लगे... पर मैं ऐसा तब नहीं कर पाता जब पसीने से तरबतर कोई अंग्रेजी बोलने वाली और बेबकूफ सी दिखने वाली कोई सांवली लड़की रिक्शेवाले से मोलभाव करने लगती है और देर तक वो उसी संघर्ष में उलझी रहती है... मुझे उसकी परेशानी अपनी जैसी लगती है... और फिर मैं और बुरा होकर उससे नजर फेर लेता हूं... शायद उस वक्त में उससे ज्यादा बुरा नहीं हो सकता था... तब भी नहीं जब मैं उसकी इस मजबूरी का फायदा उठाकर उसे छेड़ रहा होता... और कुछ देर को ही सही वो उस संघर्ष से उबर पाती...

खैर बात दुनिया की सबसे बुरी लड़की की हो रही थी... और अक्सर लोग मुझसे कहते हैं कि आजकल की लड़कियां बिगड़ गई हैं... मैं उसके लिए खुद को तैयार कर रहा हूं..

देवेश वशिष्ठ खबरी
9953717705

http://deveshkhabri.blogspot.com/

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खबर में कॉन्ट्राडिक्शन

मैं प्रतिभा कटियार को नहीं जानता... लेकिन वो जानती हैं... उन्होंने मुझे मेरे नजरिये से पढ़ा है... ये भी नया कॉन्ट्राडिक्शन है... मुझे अनुमान है कि प्रतिभा आईनेक्ट में पत्रकार हैं... खबर ये है कि 11 अक्टूबर, आईनेक्स्ट के ब्लॉग श्लॉग कॉलम में कॉन्ट्राडिक्शन और ब्लॉग का जिक्र है... जो है वैसा स्कैन यहां लगा रहा हूं...
(पढ़ने लायक देखने के लिए चित्र पर दो बार क्लिक करें)

प्रतिभा कटियार, जो भी हैं... शुक्रिया करके उन्हें छोटा नहीं बनाना चाहता...
खबरी
9953717705

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मैं तुममें खप गया हूं... (कॉन्ट्राडिक्शन- 3)


-तुम्हें जुकाम हो गया है.
-कल भीग गया था-
-कब?
-जब पहली हिचकी आई थी रात को- उसके बात सोने नहीं दिया तुमने- बहुत बारिश हुई- तकिया गीला हो गया था-
-तो मैं नहीं आऊंगी आज तुमसे मिलने- पर तुम्हें तो बुखार हैं- तुम भी ना, जरा भी खयाल नहीं रखते अपना-
-पर वो काम तो तुम्हारा है- मुझे तो हमेशा तुम्हारा खयाल रहता है-
-तुम हो कहां अभी ?
-आई पॉड में जा छिपा हूं- दोनों कानों में ठूंस लिये हैं ईयर फोन- कि तुम्हें न सुन सकूं
-तो मैं जाऊं?
-तुम हर पल पूछती हो. और मैं हर बात कहता हूं- जाओ ना,
-फिर तुम क्यों बुलाते हो?
-तुम जाती क्यों नहीं हो.
-कितने कठोर हो ना तुम
-हां, पहाड़ की तरह
-उफ़, फिर पहाड़… तुम उतर क्यों नहीं आते मैदानों में
-और तुम क्यों नहीं चली जाती वापस, पहाड़ों में
-देव, अब पहाड़ मैले हो गये हैं- सावन पिछली बार भीग गया था- अबकी नहीं आया- पिछली बर्फ को भी सर्दी लग गई थी- अबकी बुरांश के पेड़ रूठ गये हैं- देवदार ठूंठ बन गये हैं- जिस नदी के किनारे पानी में पैर डालकर तुम मेरे बालों से चुगली किया करते थे, वो अब झील बन गई है- घाटी में बहुत सी मिट्टी जमा हो गई है- सुना है वहां एक बड़ा बांध बनने वाला है- सब डूबने वाला है- ये पहाड़ दुखता है-
-लेकिन तुम्हें तो पहाड़ अच्छे लगते थे ना बिट्टू-
-लगते थे, पर सिर्फ तुम्हारे साथ- अब नहीं देव.
-तुम कुछ खाओगी- ये काली रातें तुम्हें डराती नहीं हैं- इतनी दूर से रोज तुम कैसे आ जाती हो मेरे पास- रास्ते में कोई नहीं पकड़ता तुम्हें... मुझे डर लगता है-
-देव मेरे पास एक सेब है- दोनों खाएंगे- आधा आधा
-नहीं मुझे खट्टा दही खाना है- मम्मी से झगड़ना है
-तुम अपनी मम्मी से इतना झगड़ते क्यों हो देव-
-तुम मेरी मम्मी में घुस जाती हो- जब वो लाड़ करती हैं तो तुमसे लड़ने का मन करता है- तुम तो चुड़ैल हो ना
-और तुम मेरे पायलेट
-तुम्हें याद है-
-हां याद है, लेकिन जोर से मत बोला करो- सब समझ जाते हैं-
-मुझे तुम्हारी खुशबू चाहिये- सफेद बादल को दे देना- वो आकर मेरी आंखों में बैठ जाता है-
-और तुम अपनी मीठी सी हंसी मुझे भिजवा देना- उसी बादल को लौटा देना चलते वक्त- वो मेरे दिल में बैठा जाता है- भेजोगे ना-
-देव, मुझसे कुछ कहो ना-
-जो मैं कहूंगा, वो तो तुम्हें पता है-
-हां मालूम है- पर एक बार ऐसे ही सुनने का मन कर रहा है-
-मैं नहीं कहूंगा- सब सुन लेंगे- लौटते बादलों के कान में कह दूंगा- तुम उनसे पूछ लेना-
-देव मेरे साथ घूमने चलो-
-कहां-
-नील नदी के पास-
-तब ?
-जमीन के नीचे नीचे बहना मेरे साथ- झील फिर नदी बन जाएगी- और किसी को दिखाई भी नहीं देगी-
-लेकिन उसकी मछलियों का क्या?
-वो गुदगुदी करेंगी तुम्हारे पांवों में-
-लेकिन उसका पानी तो ठंडा होता होगा ना- तुमने जो सपना बुना था, वो पूरा हुआ या नहीं- मुझे तुम्हारा सपना ओढ़ना है-
-नहीं इस बार मैंने सावन बुना है- आंखों में उतर आया है वो- उसी से निकलती है नील नदी- कभी छिपी, कभी उघड़ी...
-और तुम्हारी सलाईयां, जिनसे तुम सपना बुनती हो- उन्हें तुम अपने बालों में लगा लेना- मैं तुम्हारी तस्वीर उतारूंगा- चीन की दीवार पर
-पर वहां तो प्लेन से जाना होगा ना- और वीजा भी बनवाना पड़ेगा, तुम कैसे जाओगे?
-तो नहीं जाऊंगा- नहीं उतारूंगा तुम्हारी तस्वीर- पर फिर तुम्हें हर वक्त मेरे सामने रहना होगा- फिर तुम मुझे याद मत करना- ये हिचकियां मुझे मार देती हैं-
-देव तुम बदल गए हो- कब से?
-जबसे नमस्ते बात खत्म करने के लिए और शुक्रिया ताना मारने के लिए इस्तेमाल होने लगा है- तबसे मैं भी बदल गया हूं- -------------------------------

मुझे यहां नहीं रहा जाता- मुझे कहीं और जाना है- किसी दूसरी जगह- नहीं- किसी दूसरे वक्त में-
किस वक्त में जाना चाहते हो ? किसके पास?
भगत सिंह के पास- सुखदेव और राजगुरू के पास- उनके वाले स्वर्ग में-
उनके स्वर्ग में? तो क्या उनका कोई अलग से स्वर्ग होगा? क्या वहां ज्यादा ऐशोआराम होगा-
हां उनका स्वर्ग अलग है- उस स्वर्ग से सभी देवता भाग गये हैं- इंद्र का सिंहासन हिला दिया है- वहां जगह जगह फांसी के झूले हैं- वहां फांसी पर झूलने वालों की लंबी कतार लगी है- भगत बार बार हिन्दुस्तान की तरफ देखते हैं- फिर मेरी और तुम्हारी तरफ देखते हैं- और भागकर फिर फंदे पर झूल जाते हैं- पर इस बार भगत की जान नहीं जा रही है- भगत के भीतर कुछ छटपटा रहा है- भगत के पांव बहुत देर तक तड़पते रहते हैं- सुखदेव और राजगुरू भी छटपटा रहे हैं- बड़ा बेचैन माहौल है- भगत का तड़पना बंद होता है तो वो मुझे फिर देखते हैं- फिर तुम्हें देखते हैं- सुखदेव और राजगुरू रोना बंद कर देते हैं- जोर जोर से आवाज लगाते हैं- लेकिन मुझे सिर्फ तुम्हारी आवाज सुनाई देती है-

वो दिन बड़े लम्बे होते थे... सूरज सारी गर्मी से देव को झुलसाना चाहता था और देव के वो पूरी ताकत से लड़ने के दिन थे... मायानगरी से लेकर राजनगरी तक में धक्के खाना उन दिनों देव की ड्यूटी हो गई थी... कठोर दिन और निष्ठुर रातें... पर देव की सनक के आगे सब कट गये... धीरे-धीरे... मुझे न तो भगत सिंह की आवाज सुनाई दी, और ना ही राजगुरू की तड़पन... अब तक मैं खप चुका था.

देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9953717705

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मेरे जिस्म में सरहदें हैं... (कॉन्ट्राडिक्शन-2)


दो आंखें हैं... एक जोड़ी होंठ... दो बाहें... कुल मिलाकर एक पूरा जिस्म है... कुछ और हिस्से हैं उस जिस्म के... कुछ उभरे हुए तो कुछ गहरे... जिस्म गीला है... मैं शायराना हूं... मैं रूहानी हूं... मैं जिस्मानी हूं...

एक जोड़ी बाहें एक और जोड़ी चाहती हैं...
एक जोड़ी आंखें अक्सर एक और जोड़ी तलाश लेती हैं...
एक जोड़ी होठों को शिकायत है एक और जोड़ी न मिलने की...
मुझे लगता है कि मेरे ही जिस्म में सरहदें खिंच गई हैं...

तुम्हारी शिकायतें अक्सर मुझे सुनाई देती हैं... तुम्हारे होंठ एक लम्हे के लिए कुछ भी नहीं बोलना चाहते... मैं अक्सर खामोश नहीं रह पाता... तुम कहती हो मुझे जीना नहीं आता... तब मुझे लगता है जीना जरूरी भी नहीं... तुम्हारी एक जोड़ी बंद आंखें नहीं बोलती और मुझसे अक्सर कह देती हैं कि मैं मैं जाहिल हूं... मैं तुममें डूब मरना चाहता हूं...

जिस्म बेलिबास नहीं है... होना चाहता है... दिल में दरिया है... दरिया में उथलपुथल है... कई लोग हैं... उथलपुथल से बेपरवाह हैं... बालों में भाप है... आंखों में खून है... रगों में लाली है... बस... रगों में सिर्फ लाली है...

मुझे रंग याद आते हैं... मुझे सर्दी का मौसम याद आता है... मुझे लता... रफी और मुकेश के गाने गुनगुनाने का मन करता है... तुम कहती हो मैं जमीन से जुड़ा हूं... मुझे लगता है कि तुम मुझे देसी कह रही हो... मैं फिर भी बोलता रहता हूं... तुम अक्सर खामोश रहती हो...

सब कुछ उल्टा पुल्टा है... जिस्म के चारों ओर शोर हो रहा है... कान परेशान हैं... वो कुछ सुनना नहीं चाहते... जिस्म बार बार सबको मना करना चाहता है... हाथ कानों को गले लगा लेते हैं... कानफोड़ू आवाजें हैं... सीने तक उतरना चाहती हैं... सीने के दरिया में उथलपुथल इसी वजह से है...

एक करवट एक नई सलवट बना देती है... मुझे सलवटें अच्छी नहीं लगतीं... मुझे बस तुम अच्छी लगती हो... सलवटों अक्सर सरहद बन जाती हैं... पड़ौसी सलवट शरारत करती है... पहली सलवट को शरारत पसंद नहीं है...

जिस्म को खामोशी पसंद है... जिस्म खामोश हो जाना चाहता है... जिस्म आवाजों से बेपरवाह है... कल ही किसी से सुना है कि जिस्म को अपनी शर्तों पर जिंदा रहना चाहिये... जिस्म को बाकी जिस्मों से फर्क नहीं पड़ता... जिस्म आजादी चाहता है... जिस्म गुलाम है...

ये सलवटें झगडालू हैं... जिस्म पंचायतें लगाता है... जिस्म चुगली करता है... जिस्म मौसम का मजा लेता है... जिस्म बुरे दौर को भूल जाना चाहता है... जिस्म खुदपरस्त है... जिस्म स्वार्थी है... जिस्म बेचैन जंगल को खूब गालियां देना चाहता है... फिर उसी जंगल में खो जाना चाहता है... जिस्म पहाड़ों पर जाना चाहता है... फिर संन्यासी हो जाना चाहता है...

आंखों को किताबें पसंद हैं... चेहरे को नकाब पसंद हैं... वैसे आंखों को आंसू भी पसंद है... लेकिन ओठ आजकल तौबापसंद हो गए हैं... रुह बेचैन जंगल में बेचैन है... पहाड़ों पर चली गई है... जिस्म खामोश है...

देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9953717705

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कॉन्ट्राडिक्शन-1


कई निगाहे हैं... उनमें में एक पुराने गुलदस्ते के सूखे गुलाब पर टिकी है... लेकिन एक वहां से हटकर किताबों की बेतरतीब अलमारी में कुछ ढूंढ रही है... इस निगाह को वो लावारिस खत नहीं मिल पा रहे हैं जो आवारगी के दौरान लिखे गए और वो बंजारे खत इन किताबों के हुजूम में कहीं छिपा दिये गए... अब ढूंढने से भी नहीं मिलते... बिस्तर पर कुछ गर्म सलवटें लेटी हैं... जिंदगी भर का आलस एक साथ अंगडाई ले रहा है... एक सलवट दूसरी को छू रही है... वो छुअन बहुत हसीन है...

अलाव है... आग है... सर्दी का मौसम है... हाथों की गुस्ताखी है... हाथ आग को चेहरा दिखा रहे हैं... एक शॉल में दुबकी दो जान बैठी हैं... एक के हाथ में पुरानी डायरी है... दूसरे के होठों पर प्यार के गीत हैं... बारिश हो के चुकी है... मौसम विज्ञानियों से बिना पूछे ही कोयले वाला बता गया है... कि बर्फ गिरेगी... बुरांश पर फूल नहीं आये हैं... बुरांश को न्यौता है... बर्फ नाज़ुक है... बुरांश पर झरने लगी है...

डायरी के पन्ने कई दिनों बाद उलटे हैं... हर पन्ने पर तारीख है... हर गीत में एक कहानी है... डायरी के पन्ने उड़ रहे हैं... शाल में दुबकी दो जान एक ही दिन में कई तारीखें पढ़ लेना चाहती हैं... आज की रात की कहानी फिर कभी गीत बनेगी... डायरी खुश है... जैसे आज के ही दिन के लिए सारे अर्से गीत बने थे...

एक जान को नींद आ रही है... वो दूसरी जान की गोद में लेट गई है... एक जान सो गई है... दूसरी सोना नहीं चाहती... आग को चेहरा दिखाता दूसरी जान का एक हाथ नर्म हो गया है... अब वो बालों में गुदगुदी कर रहा है... वो छुअन बहुत देर तक नहीं थकती... वो छुअन बहुत हसीन है...

बिस्तर की नर्म सलवटें अकेली हैं... नींद टूट गई है... चिपचिप है... उमस है... दिल्ली की गर्मी है... बिजली चली गई है... एसी बंद हो गया है... किताबें बेतरतीब हैं... एक निगाह फिर सूखा गुलाब देख रही है... दूसरी बेतरताब अलमारी पर अटकी है... एक पुरानी डायरी है... आग को चेहरा दिखा दिखाने वाले कठोर हाथों में आ गई है... गर्मी में पुरानी डायरी पंखा बन गई है... ज़ोर ज़ोर से हिल रही है... पंखे की तरह झल रही है... डायरी के पन्ने कई दिनों बाद उलटे हैं... हर पन्ने पर तारीख है... हर गीत में एक कहानी है... पन्ने जोर जोर से हवा में उड़ रहे हैं... हवा कर रहे हैं... डायरी से कुछ पन्ने रूखे फर्श पर गिर पड़े हैं... निगाहों की तलाश खत्म हो गई है... बंजारे खत मिल गए हैं... बेकारी का दौर है... दोपहर है... जिंदगी भर का आलस एक जान में भरा है...
इन दोपहरों की कहानी गीत नहीं बनती... खत वापस डायरी में ठूंस दिये गए हैं... डायरी फिर भर गई है...

देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9952717705

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मैं तेरा, तेरी दुनिया का


अंगडाई लेते मेरे मैले ख्वाबों को
तूने छू लिया था हौले से...
जैसे पहले चुंबन सा स्पर्श था वो...
और मैं जी लिया था ज़िंदगी मेरी...
ख्वाबों में हकीकत की दुनिया...
वो मोतियों की दुनिया थी...
आंखों से झरती थी...
और गर्म पानी का फव्वारा बुझाता था
उस शहर की प्यास
मैं अजीब सा था उन दिनों...
इन अजीब सी बातों की तरह...
बादल के पीछे दौड़ता था मैं...
जमीन से उठाता था किरच
और उसकी चमक देखकर हो जाता था खुश...
उतना जितना आज नहीं होता सच के हीरे पाकर...
अजीब सा था उन दिनों...
मैं भूल जाता था भगवान का अस्तित्व
मेरे सामने
और मैं बन जाता था रक़ीब
तेरा... तेरी दुनिया का
मैं कुछ नहीं था... पर तेरे साथ था...
बहुत दिन बाद आज लौट आया है वो दिन
मेरे बदन में छिपकर बैठ गई है तेरी रुह...
और मैं फिर बन गया हूं तेरा दुश्मन
आहिस्ता आहिस्ता...


देवेश वशिष्ठ ‘खबरी’
1-9-09

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एंकर का कोट

नमस्कार, मैं हूं राहुल शर्मा... और आप देख रहे हैं टेलीविजन इंडिया... इस वक्त की बड़ी खबर आ रही है आगरा के ताज महोत्सव से जहां भीषण आग लग गई है... आग में शिल्पियों के दो सौ से ज्यादा पांडाल जलकर खाक हो गए हैं... मौके पर दमकल की गाड़ियां पहुंच चुकी हैं... इस बीच खबर आ रही है कि कुछ लोग आग में फंसे हो सकते हैं... हमारे संवाददाता प्रशान्त कौशिक फोन लाईन पर हमसे जुड़ चुके हैं... प्रशांत क्या अपटेड है...?

असाइन्मेंट हैड आलोक श्रीवास्तव के चेहरे पर मुस्कान दौड़ रही थी... आउटपुट हैड शशिरंजन झा खुद पीसीआर संभाले हुए थे... ओवी पर शॉट आ गए हैं... जल्दी काटो... राहुल लाइव टॉस करो... हम सबसे पहले हादसे की सीधी तस्वीरें दिखा रहे हैं... खबर को बेचो... याद रखो खबर सबसे पहले हमने ब्रेक की है... शशिरंजन जी ने एंकर का टॉकबैक ऑन करके तमाम इंस्ट्रेक्शन एक सांस में दे मारे...

... और आपको सीधे लिए चलते हैं आगरा के ताजमहोत्सव में, जहां इस वक्त भयंकर आग लगी हुई है... इस वक्त आप अपने टेलीविजन स्क्रिन पर हादसे की पहली तस्वीरें देख रहे हैं... हम अपने दर्शकों को बता दें कि सबसे पहले ये खबर आप टेलीविजन इंडिया पर देख रहे हैं... और जैसा कि अभी हमारे संवाददाता प्रशान्त कौशिक बता रहे थे... आग में से चार शव निकाले जा चुके हैं... चारों शव इतनी बुरी तरह झुलस गए हैं कि उनकी शिनाख्त नहीं हो पा रही है... आग में शिल्पियों का तकरीबन एक करोड़ रुपये का माल जलकर खाक हो गया है... इस वक्त टेलीविजन स्क्रिन पर आप ताजमहोत्सव की आग की लाईव तस्वीरें देख रहे हैं... और हमारे साथ फोन लाइन पर जुड़ चुके हैं आगरा के एसएसपी जीपी निगम... निगम साहब, कैसे लगी ये आग? इतने बड़े जलसे के लिए पर्याप्त सुरक्षा इंतजाम क्यों नहीं किये गए थे... ?

एंकर की आवाज में अचानक जोश आ गया था... आउटपुट हैड बार बार टॉक बैक ऑन करके उसे याद दिला रहे थे कि ये तस्वीरें सिर्फ उन्हीं के चैनल पर दिखाई जा रही हैं... और राहुल हर बार और जोर से ये बात दर्शकों के सामने दोहरा रहा था...

प्राइम टाइम खत्म हुआ... भई वाह... छा गए... खूब बिक गई खबर... मार्केट मार लिया आज तो... एक्सक्लूसिव का टैग लगा लगा कर चलाई खबर... वैल डन राहुल... वैल डन... राहुल की जान में अब जान पड़ी... आउटपुट हैड औऱ एडिटर इन चीफ ने उसकी पीठ ठोंकी थी...

अरे सर... आगरा तो मेरा घर है... उस शहर की हर बारीकी जानता हूं मैं... आपने देखा कि कैसे लपेटा एसएसपी को सुरक्षा इंतेजामों के मुद्दे पर... एंकर ने टाई ढीली की... मेकअप रिमूव किया... आज की मजदूरी पूरी हो गई थी...

सर, शायद आपका फोन आ रहा है... मेकअप आर्टिस्ट ने राहुल को इशारा किया... राहुल हमेशा की तरह आज भी शो के बाद फोन का साइलेंट मोड डीएक्टीवेट करना भूल गया था... उधर पिताजी की भर्राई आवाज थी... अनर्थ हो गया बेटा... अंजली बुरी तरह से झुलस गई है... एट्टी पर्सेंट बर्न थी, जब हॉस्पीटल ले गए...

फोन के उस पार से जैसे शहर भर के रोने की आवाज आ रही थी... एंकर के कंधे से कोट उतर चुका था... एक आम आदमी अपनी बहन के लिए रो रहा था...

देवेश वशिष्ठ ‘खबरी’
9953717705

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दिल में कारगिल

कारगिल विजय की दसवीं सालगिरह पर ख़ास कार्यक्रम के दौरान राकेश जी ने अपने कारगिल रिपोर्टिंग के अनुभव बांटे उस वक़्त टीवी जर्नलिज़म का वो बूम नहीं था जो आज देखने को मिलता है। इसके बावजूद कुछ चुनिंदा चैनल थे जिन्होंने अपनी टीमें कारगिल युध्द को कवर करने के लिए भेजी थी, राकेश जी उन ख़ुशनसीब पत्रकारों में से एक थे। कार्यक्रम के दौरान उनकी तस्वीरें भी दिखाई गई जिनमें बोफ़ोर्स तोप हो, अलग-अलग बटालियन्स के जवान हो या फिर धमाकों की आवाज़ बंद होने के बाद ख़ामोश, ख़ूबसूरत वादियां हो, इन सभी को देखकर वहां मौजूद पत्रकारों के अनुभव का सिर्फ़ अंदाज़ा लगाया जा सकता है उसे महसूस करना मुश्किल है। लेकिन सिर्फ़ मज़ा ही नहीं था ख़तरा भी था, राकेश जी ने ये अनुभव भी बांटा की किस तरह एक मिसाईल वहां मौजूद पत्रकारों के उपर से होकर गुज़री और कुछ दूरी पर एक ट्रक पर जाकर गिरी। यहां से लौटते वक़्त बुरी तरह से ध्वस्त हुए इस ट्रक के अवशेष भी इन लोगों ने देखे।

यहां मौजूद सभी पत्रकारों को कुछ हिदायतें भी दी गई थी और थोड़ी ट्रेनिंग भी, क्योंकि भले ही ये पत्रकार सिपाही नहीं थे, लेकिन थे तो वॉर फ़ील्ड में ही। अब बाक़ायदा आर्मी की तरफ़ से कोर्सेस करवाये जा रहे, जिनमें वॉर रिपोर्टिंग की बारीक़ियां सिखायी जाती हैं। हमारे एक अन्य सहयोगी मनीष शुक्ला जो की इस कार्यक्रम का हिस्सा थे ऐसे ही एक स्पेशल कोर्स के लिए सिलेक्ट हुए हैं। मनीष ने इस ख़ास पेशकश के लिए कारगिल के आज के हालात पर वहां जाकर कुछ बेहतरीन पैकेज़ेस बनाए थे। इन ख़ूबसूरत तस्वीरों को देखकर आपका मन भी यहां जाने का होगा और यहां बस जाने का होगा। लेकिन पाकिस्तान के नापाक इरादों की वजह से इस जगह की जो तस्वीर दुनिया के सामने गई है, वो इसकी ख़ूबसूरती से इकदम जुदा है।

कारगिल का नाम ज़ेहन में आते ही सामने जंग की भयावह तस्वीर होती है, कानों में धमाकों की गूंज होती है और सैंकड़ों शहीदो के चेहरे होते हैं। कारगिल याद किया जा सकता है दुनिया के सबसे ख़ूबसूरत टुरिस्ट स्पॉट्स में से एक होने के लिए लेकिन इसे पाकिस्तानी फौज और घुसपैठियों ने तब्दील कर दिया है एक ख़तरनाक वॉर फ़ील्ड में। राकेश जी और मनीष के साथ किये इस कार्यक्रम का नाम हमने रखा था, “कारगिल कल और आज”, विश्वास जानिए इन दोनों से बातचीत के बाद एहसास होता है कि कारगिल आज भी उतना ही ख़ूबसूरत है जितना कल था, हां वहां टैंकर्स की तैनाती, बड़ी तदाद में फौज, आंखों को चुभती है लेकिन इस जगह की सुरक्षा के लिए वो देश की मजबूरी भी है।
राकेश जी भी बीते दिनों की यादों में खो गये थे और उनका कहना था की वो दोबारा कारगिल जाना चाहेंगे, लेकिन वॉर कवर करने नहीं बल्कि इसकी ख़ूबसूरती का नज़ारा करने के लिए। मनीष की ज़्यादातर रिपोर्ट्स में भी इस इलाक़े के बाशिंदों का यही दर्द सामने आते है कि जो जगह पर्यटकों के लिए स्वर्ग है उसे नर्क में तब्दील कर दिया गया है। यहां के तमाम होटल्स युध्द के दौरान तबाह हो गए थे। अब बहुत हद तक इस जगह को फिर से बसाने की कोशिश हो रही है। किसी एक्सीडेंट के बाद रिकवर करने में जैसे एक इंसान को समय लगता है वैसे ही कारगिल को भी रिकवर करने में वक़्त लगेगा और ये भी सही है कि जैसे ज़ख्मों के निशान रिकवर करने के बावजूद रहते है, कारगिल के ज़ख्मों के निशान भी हटना मुश्किल है। लेकिन यहां के लोगों को अब भी उम्मीद है की कारगिल अपनी सही वजहों के लिए जाना जाएगा न कि जंग के लिए।

राकेश जी, मनीष या जो भी इस जगह पर गया इसकी यादें अब भी उनके दिलों में ताज़ा हैं। मैं ख़ुद कभी कारगिल नहीं गया लेकिन इस पर ये कार्यक्रम करने के बाद और अपने सहयोगियों से इसकी ख़ूबसूरती के बारे में जानने के बाद, यहां के बेहतरी नज़ारों की तस्वीरें देखने के बाद ये मेरे भी दिल में बस गया है। जब मौक़ा मिलेगा में यहां ज़रुर जाऊंगा। आप को मौक़ा मिले तो आप भी जाईएगा, क्योंकि कारगिल में अगर हालात सामान्य होंगे तो ये नापाक मंसूबे वाले दुश्मनों को भी क़रारा तमाचा होगा। जय हिंद

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आख़िर क्यों ?

आख़िर क्यों क्यों क्यों ?
ये 'क्यों' है... एक प्रवृत्ति के लिए। प्रवृत्ति दूसरों की ज़िंदगी में ताक-झांक करने की। कई बार हैरानी होती है कि क्यों हमारी दिलचस्पी अपने नंगे सचों को देखने के बजाए दूसरों की ज़िंदगी को नंगा करने में होती है? जहां चार लोगों की महफ़िल जमी वहां किसी पांचवे का ज़िक्र छिड़ जाता है। दूसरे की ज़िंदगी में भी दिलचस्पी लेना वहां तक समझ आता है, जहां तक उस दिलचस्पी से हमारी अपनी ज़िंदगी कुछ ख़ास तरह से जुड़ी हो। किसी ने क्या पहना है, क्या खरीदा, किसकी ज़िंदगी में कौन आया, कौन किससे बात कर रहा है, किसके साथ घूम रहा है, वो दुखी क्यों है, वो इतना खुश क्यों है....... आख़िर क्यों ? क्या एक सामाजिक प्राणी होने या दुनियादारी निभाने का मतलब ये होता है कि हम दूसरों की ज़िंदगी में गैरज़रुरी दख़ल देना शुरु कर दें.... या किसी दूसरे को अपनी सोच का गैरज़रुरी हिस्सा बना लें।
इस आदत की गुलामी में जी रहे लोगों पर अब तो तरस आने लगा है। फिल्म DDLJ का एक डॉयलॉग याद आ गया जो 'छुटकी' काजोल से कहती है...

"मिस लूसी कहती हैं कि... अगर आदतें वक्त पर न बदली जाएं तो ज़रुरतें बन जाती हैं"

----मीनाक्षी कंडवाल-----

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मेराज़ साहब और वो शाम

मेराज़ फ़ैज़ाबादी बहुत बड़े शायर हैं और मैं उनसे एक बार 1992 में लखनऊ में मिला हूं। अब शायद उन्हें याद भी न हो..लेकिन पिछले हफ्ते लखनऊ में ही एक शाम चाय पर उनके साथ बीती। अच्छी आवाज़ और सुंदर शब्दों का जो सेलेक्शन उनकी बातचीत में होता है,वो यकीनन किसी भी अच्छे साहित्यकार की पहचान होता है। उनको बैठकर इत्मीनान से सुनना अपने आप में एक एहसास है। शायर तो हैं ही..किस्सागो भी हैं मेराज़ साहब। किस्से तो नहीं लेकिन बातचीत में कुछ अनुभव उन्होंने सुनाए जो भीतर तक भिगो गए। मेराज़ साहब 1993 में एक मुशायरे में मस्कत गए तो कुवैत के पाकिस्तानी राजदूत और उनकी पत्नी से उनकी मुलाकात हुई। करामतुल्ला गौरी और उनकी शरीक-ए-हयात आबिदा करामत। पति-पत्नी दोनों शायर थे और मुशायरे का एक हिस्सा भी। एंबेस्डर साहेब की बेगम ने जो शेर पढ़ा वो मेराज़ साहेब आज तक नहीं भूल पाए हैं...ये शेर उन्होंने अपने बेटे की याद में लिखा था जो पढ़ने के लिए अमरीका चला गया था। ये शेर कुछ यों था..

वो क्या गया कि दर-ओ-बाम हो गये तारीक
मैं उसकी आंख से घर का दिया जलाती थी।
ये शेर सुनाते सुनाते मेराज़ साहब की आंखों में पानी आ जाता है..कहते हैं कि ऐसे उम्दा शेर उन्होंने बहुत कम सुने और उस मुशायरे के बाद बेगम आबिदा करामात के लिए उनके मन में इज़्ज़त बढ़ गई। मेराज़ साहब यहीं नहीं रुकते। बताते हैं कि आगे चलकर कई सालों बाद बेगम साहिबा से उनकी एक और मुलाकात शिकागो में हुई। शिकागो में उन्होंने बरसों से ज़ेहन में दबा एक सवाल उनसे पूछ ही लिया। उन्होंने पूछा कि आपका हिंदुस्तान से क्या रिश्ता है। बेगम ने तपाक से कहा-मेराज़ साहब, मैं पाकिस्तानी एंबैस्डर की बीवी हूं...मुझसे हिंदुस्तान की बात क्यों। मेराज़ साहब ने कहा-क्योंकि ऐसी सोच सिर्फ उसी धरती से मिल सकती है..आप बताएं आप हिंदुस्तान के किस इलाके से वास्ता रखती हैं। बेगम ने ठंडी सांस ली और बताना शुरू किया.....मेराज़ साहब, आप का अंदाज़ा सही है। उम्र के 12 बसंत मैंने झांसी में बिताए हैं...वही झांसी..रानी लक्ष्मीबाई वाली। 12 बरस की उम्र में जब देश टूटा तो मां बाप के साथ मैं पाकिस्तान आ गई। आ तो गई लेकिन वो घर...उसकी देहरी ...उसके कमरे...सब कुछ मुझे भुलाए नहीं भूला। पढाई लिखाई की और फिर शादी...कई पड़ाव ज़िंदगी के पीछे छूटते गए लेकिन झांसी का वो घर न भुलाया गया। झांसी फिर से देखने की ललक लिए लिए कई साल बीत गए। डिप्लोमैट्स को हिंदुस्तान का वीज़ा मिलना कोई आसान नहीं होता , लेकिन फिर भी कई कोशिशो के बाद आखिर एक दिन झांसी जाने का मौका मिल ही गया। दिल्ली आई और सिर्फ एक अदद अटैची लेकर ट्रेन से झांसी रवाना हुई। शहर बदला हुआ सा था ...लेकि न अपने घर जाने की न जाने कैसी उमंग थी...कि सब कुछ जाना पहचाना सा लगता था। इक्के से मैं अपने उस मोहल्ले पहुंची....और कहीं खो गई। घर न जाने कैसे हो गए थे। कुछ नए मकानात बन गए थे और मोहल्ला कुछ सिकुड़ा सिकुड़ा सा लग रहा था। कुछ पलों के लिए मैं देश और सीमाएं भूल गई - होश आया तो सामने एक बूढ़े हज़रत खड़े थे...लंबी दाढ़ी...सौम्य चेहरा...उन्होंने पूछा-किसको खोजती हो बेटी ? मैंने अपने वालिद का नाम बताया ...तुरंत जवाब आया बगल वाली गली में चली जाओ बेटी...घुसते ही दूसरा घर है। मुझे हैरत थी..जिस धरती से हमने हर नाता तोड़ लिया था ..वहां लोगों को वालिद का नाम अब भी याद है.....वो वक्त भी आया जब मैंने खुद को अपने उसी घर के सामने खड़ा पाया , जिसे आज से कई बरस पहले छोड़कर हम पाकिस्तान चले गए थे। अटैची ज़मीन पर रखी और पहले जी भर कर उस इमारत को देख लेना चाहा..जो अब अपनी नहीं थी। चौंकी तब जब घर के किवाड़ खुले और एक पचासेक के आसपास की महिला सामने आकर खड़ा हो गईं। पूछा-कौन हो बेटा-कहां जाना है। मैंने कहा-अम्मां , मैं यहीं आईं हूं ..इस घर में 12 बरस बचपन के बिताए हैं मैंने...अब पाकिस्तान में हूं....ये घर मेरे सपने में आता था...आज देखने आई हूं। जवाब भी तपाक से आया-अरे बेटी , तो खड़ी क्यों हो ...अपने घर आने के लिए सोचना कैसा.. उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा..और सीधे घर के भीतर ले गईं। वो एक ऐसा हिंदू परिवार था जो विभाजन के बाद पाकिस्तान से यहा आया था । उसे हमारा घर दे दिया गया था। भीतर आकर उन्होंने ऊंची आवाज़ लगाई और सबको बुला लिया..और कहा-देखो बेटी आई है। इसका कमरा खाली कर दो....हफ्ते भर उस घर में मेराज़ साहब , मैं वैसे ही रही , जैसे शादी के बाद कोई लड़की अपने मायके में रहती है। और जब चलने का दिन आया...तो क्या देखती हूं...कि दरवाज़े के बाहर , चबूतरे पर मेरी उस एक अटैची के साथ तीन बड़ी बड़ी अटैचियां रखीं हुईं हैं। मेरे मुंह से बेसाख्ता निकला-अरे अम्मां ये क्या ? अम्मां ने मुझे थाती से चिपका लिया..बोलीं...बेटी हो ना...तो ऐसे वैसे थोड़ी न विदा करूंगी।
बेगम साहिबा ने फिर एक लंबी सांस ली। उनकी आंखें नम हों गईं थीं। बड़ी मुश्किलों के बाद वो बोल पाईं-तो मेराज़ साहब ...आपने सही पहचाना...ये था मेरा हिंदुस्तान से वो रिश्ता जो कोई झुठला नहीं सकता।

ये सच्चा किस्सा बयान करते करते मेराज़ साहेब का गला भर आया। वो कहीं खो से गए...उनकी चाय ख़त्म हो चुकी थी और उनका बेटा भी उन्हें लेने के लिए दरवाज़े पर खड़ा था।

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खबरी की पांच छहनिकाएं


दीवार पर गढ़ी कील,
दिल-दीवार,
बाकी तुम..!

बांस सा ज्वार,
फनकार,
बंसी की धुन!
-----

चुक गए सवाल,
सांस,
मोक्ष-

रंगीन पानी...
तेरा अक्स...
होश!
-----

आहट,
अकेलापन,
डर-

न तू,
न मां,
न घर!
-----

खारा सागर,
टूटी बोतल,
जिन्न-

कारे आखर,
कोरे कागज,
तेरे बिन!
-----

तड़पती भूख,
रेगिस्तान,
प्यास!

वादियां... झरना...
तू...
काश!
---------------
देवेश वशिष्ठ खबरी
9953717705

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ये क्या बात हुई

मुद्दत बाद ऐसा हुआ
तुम पास से निकल गए
नि:शब्द...




मैं सिर्फ
उस हवा को छू पाया
जो तुम्हें छू कर
आई थी

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ये क्या बात हुई

मुद्दत बाद ऐसा हुआ
तुम पास से निकल गए
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मैं सिर्फ
उस हवा को छू पाया
जो तुम्हें छू कर
आई थी

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ये क्या बात हुई

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मैं सिर्फ
उस हवा को छू पाया
जो तुम्हें छू कर
आई थी

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दाग झूठे हैं... देवेश वशिष्ठ 'खबरी'



सच सुंदर होता है...
और दाग अच्छे...
आज तक यही कहा है मैंने...
यही पढ़ा है...

मैंने इन दागों पर सुंदर कविताएं लिखीं,
और हर बार सुंदर धब्बों पर यकीन किया...
मैं डूबा रहा रंगों में...
गरारे करता रहा अपनी ही कविताओं के देर तक...

मैंने इंद्रधनुष को सुंदर कहा...
और समेटता रहा आंखों में सुंदर ख्वाब...
ये जानकर भी कि सुबह टूट जाएगी नींद...
और आंखों के झूठे ख्वाब भी...

सोता रहा मैं... आंखें मूंद कर
समेटता रहा सुंदर वादों का बोझ...
जैसे पोटली खोलूंगा तो सब बचा रहेगा...

मैं अक्सर बांधता रहा मुठ्ठी में किनारे की चमकीली रेत...
चुनता रहा फूल ये मानकर कि ये कभी नहीं मुरझाएंगे
मैं बटोरता रहा मुस्कान, शाश्वत खजाने की तरह...
पर मैं गलत था...

सब सुंदर चीजें सच नहीं थीं...
इंद्रधनुष बादलों का धोखा था...
मुस्कानों में दुनियादारी का फरेब था...
वादों में छिपी थी गद्दारी...

मेरी सब कविताएं झूठी थीं...
मेरे ख्वाब नकली थे...
अच्छे दागों की तरह...
अच्छे दाग झूठे होते हैं अक्सर...

देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9953717705

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हम भी तालिबान


कल फिर एक औरत को नंगा करके गांव में घुमाया गया। सजा के तौर पर। उसका अपराध ही इतना ' घिनौना ' था कि इससे कम तो सजा क्या मिलती ! लड़की को भागने में मदद की। पता नहीं लड़की को भगाया गया या वह ' प्यार के चक्कर ' में खुद ही चली गई , लेकिन औरत ने किया है , तो ' अपराध ' बड़ा है। और इतने बड़े अपराध की सजा भी तो बड़ी होगी ! वहां भीड़ जमा होगी। किसी ने पूछा होगा , क्या सज़ा दें ? कहीं से आवाज आई होगी , इनके कपड़े फाड़ डालो। वाह ... सबके मन की बात कह दी। हां .. हां फाड़ डालो। एक ढोल भी मंगाओ। नंगी औरतों के पीछे - पीछे अपनी मर्दानगी का ढिंढोरा पीटने के काम आएगा। सज़ा भी दी जाएगी और सबको बता भी दिया जाएगा कि हम कितने बड़े मर्द हैं।

हम '... वही हैं , जो तालिबान को जी भरकर कोसते हैं। वे लड़कियों के स्कूल जलाते हैं , हम उन्हें नामर्द कहते हैं। वे कोड़े बरसाते हैं , हम उन्हें ज़ालिम कहते हैं। वे टीचर्स को भी पर्दों में रखते हैं , हम उन्हें जंगली कहते हैं। ' हम ', जो हमारी संस्कृति और इज़्ज़त की रक्षा के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहते हैं। ' हम '... जो अपनी बेटियों के मुंह से प्यार नाम का शब्द बर्दाश्त नहीं कर सकते। यह सुनते ही उबल उठते हैं कि जाट की लड़की चमार के लड़के के साथ भाग गई। उन्हें ढूंढते हैं , पेड़ों से बांधते हैं और जला डालते हैं ... ताकि संस्कृति बची रहे।

इस काम में लड़की का परिवार पूरी मदद करता है , क्योंकि उसके लिए इज़्ज़त बेटी से बड़ी नहीं। उसके बाद लड़के के परिवार को गांव से निकाल देते हैं। ' हम '... जो भन्ना उठते हैं , जब लड़कियों को छोटे - छोटे कपड़ों में पब और डिस्को जाते देखते हैं। फौरन एक सेना बनाते हैं ... वीरों की सेना। सेना के वीर लड़कियों की जमकर पिटाई करते हैं और उनके कपड़े फाड़ डालते हैं। जिन्हें संस्कृति की परवाह नहीं , उनकी इज़्ज़त को तार - तार किया ही जाना चाहिए। उसके बाद हम ईश्वर की जय बोलकर सबको अपनी वीरता की कहानियां सुनाते हैं। ' हम '... जो इस बात पर कभी हैरान नहीं होते कि आज भी देश में लड़के और लड़कियों के अलग - अलग स्कूल - कॉलिज हैं।

जहां लड़के - लड़की साथ पढ़ते हैं , वहां भी दोनों अलग - अलग पंक्तियों में बैठते हैं। क्यों ? संस्कृति का सवाल है। दोनों साथ रहेंगे तो जाने क्या कर बैठेंगे। ' हम '... जो रेप के लिए लड़की को ही कुसूरवार ठहराते हैं क्योंकि उसने तंग और भड़काऊ कपड़े पहने हुए थे। ' हम '... जो अपनी गर्लफ्रेंड्स का mms बनाने और उसे सबको दिखाने में गौरव का अनुभव करते हैं और हर mms का पूरा लुत्फ लेते हैं। ' हम '... यह सब करने के बाद बड़ी शान से टीवी के सामने बैठकर तालिबान की हरकतों को ' घिनौना न्याय ' बताकर कोसते हैं और अपनी संस्कृति को दुनिया में सबसे महान मानकर खुश होते हैं। क्या ' हम ' तालिबान से कम हैं ?
नवभारत टाइम्स में विवेक सामरी

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ख़बरी की एक गज़ल


हुनर भी सब चुक गया है, मुस्कुराने का
अब जमाना लद गया है- दिल लगाने का


छांव, बारिश, नीम, नदिया- सब पुरानी हो गयी
जबसे चलन चला है- मेहमानखाने का


फोन वाले प्यार की तासीर कम होती रही
कब से वाकया नहीं हुआ- सपनों में आने का


होली, दीवाली, ईद- सब दरिया में जा कर मर गए
अब सलीका खो गया है रंग लगाने का


हर रोज मुझसे घूंट भर- छूटता सा तू रहा
और जमाना चल पड़ा- हर चीज़ पाने का...


देवेश वशिष्ठ 'खबरी'

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तीस साल बाद




मैं लेटा था
अस्पताल के सफेद
बिस्तर पर


तुम्हें देख सकता था
पर सुन नहीं


झुर्रियों वाले हाथ की
उंगलियां उठने को हुईं
पर ताकत उम्र से
मात खा गईं
तुम स्तब्ध थीं
तीस साल बाद देखा था शायद
खोज रहीं थीं पुराने चेहरे की
एक भी
कतरन जो मिल जाये

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दुनिया खट्टी होगी सब


मेरे पद डगमग हैं... तो?
मेरी गति दुर्धर है... तो?
तुम अपनी फिक्र करो,
नसीहत मत दो...
मैं जानता हूं रास्ते टेड़े करना...
तुम अड़ो, तो अड़ो।


कर्मण्येवाधिकारस्ते...
रट लिया... रट लो!
छाले मेरे हैं...
फैसला तुम क्यों लेने लगो?
नींद, सपने, लाड़, चुंबन,
सपनों ने सब तो छल लिया,
मैं पिटूंगा, पर लड़ूंगा,
तुम डरो, तो डरो!...


प्यार नहीं है कविता जैसा... तो?
भाव नहीं है राधा जैसा... तो?
तुम ढूंढो-फिरो... कन्हैया, राम, रसूल...
मैं जानता हूं... मैं बना रहना!
तुम खुदा बनो, तो बनो।

गर्म तवे पर,
बर्फ के डेले की तरह तड़पा हूं मैं...
हौसला करता हूं,
आग बुझेगी ये...
दही की हांड़ी में,
सहेजे सा जमा बैठा हूं...
उम्मीद में हूं,
दुनिया खट्टी होगी सब...


देवेश वशिष्ठ खबरी
9953717705

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राष्ट्रपति भवन में कूड़ा डालना और पेशाब करना मना है...


जी हां... बात कुछ अटपटी लग सकती है... पर यकीन जानिये ये बात मैंने बिल्कुल बिना मोड़े-तोड़े और बिना शब्दों से खेले लिखी है... राष्ट्रपति भवन में वास्तव में कूड़ा डालने पर प्रतिबंध लगा हुआ है... और तो और कोई भारतीय सज्जन वहां दीवार की ओट लेकर या कोई कोना पकड़कर पेशाब भी नहीं कर सकता... मैं मजाक नहीं कर रहा हूं... बल्कि जो देखकर आया हूं, वही बता रहा हूं... एक बात और ये बात विदेशियों पर लागू नहीं होती... खतरा सिर्फ हिंदुस्तानियों से है इसलिए ये आदेश भी सिर्फ उन्हीं के लिए है... दरअसल हुआ यूं कि मैं अपने एक मित्र के साथ तफरी करने यूं ही राष्ट्रपति भवन तक पहुंच गया... और धूप कड़ी थी इसलिए मुख्य परिसर के ही अंदर किसी पेड़ की छांह लेने का मन किया... लेकिन देश के सबसे संवेदनशील स्थान पर हर जगह अपनी मन मर्जी तो चलाई नहीं जा सकती... इसलिए पूरे सम्मान से सभी सरकारी आदेशों का पालन करना भी जरूरी है... राष्ट्रपति भवन में एक ऐसे ही आदेश का बोर्ड दिखाई दिया... उसका मजमून यही था जो मैंने अक्षरश: इस पोस्ट के ऊपर लिख दिया है... ये आदेश मुझे कुछ अटपटा नहीं लगा... क्योंकि जैसे देश भर की दीवारें हकीम उसमानी या डॉक्टर शेखों के इलाज की गारंटियों से पटे रहते हैं... वैसे ही हमारी प्यारी दिल्ली में ‘यहां पेशाब करना मना है’ का आदेश कई क्रियेटिविटियों से गुजरता हुआ गधे के पूत यहां मत ... तक हो जाता है. कई जगह पर्यावरण, स्वास्थ्य और समाज के प्रति जागरूक लोग व्यक्तिगत पहल करते हुए दीवारों पर ये नेक नारे लिखते हैं तो कहीं कहीं कुछ बेहद समाज सेवी संस्थाएं ये काम करती हैं... लेकिन दिल्ली प्रशासन और सरकार को भी इस राष्ट्रीय परेशानी का इल्म है, और जगह जगह उसने इस काम में खुद भी भागीदारी की है... दिल्ली में लगभग हर चौराहे पर साफ सुथरे शौचालय हैं जो प्राय: साफ सुथरे ही बने रहते हैं... नई दिल्ली रेलवे स्टेशन को छोड़ दें तो मैंने उनमें आते जाते लोग कम ही देखे हैं... प्रकृति-प्रेमी और खुली हवा में जीने की इच्छा रखने वाले हम खुले में ही करने के शौकीन भी हैं... लेकिन खुले खेल का ये डर राष्ट्रपति भवन तक में है ये मुझे नहीं पता था... अब ये भी जान लीजिये कि ये आदेश आया कहां से... रायसीना हिल्स को समतल करके वहां भव्य भवन तो अंग्रेज बना गये लेकिन वहां कूड़ा फेंकना मना है और गधे के पूत यहां मत ... लिखना वो भूल गए... अंग्रेजों की इस मिस्टेक को सुधारा है लोक निर्माण विभाग ने... वैसे प्रेशर वाली बात तो ठीक है लेकिन सरकार वाकिफ है कि हम राष्ट्रपति भवन तक में जाकर कूड़ा फेंकने तक की हिम्मत रखते हैं... एक बात और... ये आदेश सिर्फ हम हिन्दुस्तानियों के लिए ही है... मेहमानों को इससे छूट मिली हुई है... मेरा यकीन न हो तो फोटो को दोबारा ध्यान से देखें... दिल्ली में लगे अमूमन सभी आदेश हिन्दी और अंग्रेजी दोनों में होते हैं... लेकिन इस महत्वपूर्ण जगह पर ये महत्वपूर्ण आदेश सिर्फ हिंदी में ही है... मैं समझता हूं इतना काफी है... आप समझ गए होंगे कि राष्ट्रपति भवन में कूड़ा फेंकना और पेशाब करना सख्त मना है...


देवेश वशिष्ठ खबरी

+91-9953717705

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आकृति की मौत के बहाने


17 बरस की आकृति अब इस दुनिया में नहीं है। दिल्ली के मॉडर्न स्कूल में पढ़ने वाली आकृति दमे की मरीज़ थी और सोमवार को जब उसे दौरी पड़ा तो देश के सबसे मंहगे स्कूलों में से एक मॉडर्न स्कूल ने हाथ खड़े कर दिए। मेडिकल फेसिलिटी के नाम पर सैकड़ों रुपये हर महीने हर बच्चे से ऐंठने वाले इस स्कूल में एक नर्स भर थी....आकृति की तबीयत जब ज़्यादा बिगड़ गई और उसके मां बाप उसे अस्पताल लेकर जाने लगे तो जैसा कि लोग बताते हैं...उस नर्स ने ऑक्सीजन का मास्क तक हटा लिया। नतीजा-आकृति ने रास्ते में ही दम तोड़ दिया।

अब आइए असल कहानी पर। दिल्ली और देश के सारे बड़े पब्लिक स्कूलों में मेडिकल सुविधा के नाम पर हर बच्चे से हर महीने 500 से ज़्यादा वसूल किया जाता है। ठीक है...वसूलिए...लेकिन जब असल ज़रूरत पड़े तो आपकी सारी मशीनरी ही फेल हो जाए...तो सवाल खड़े होते हैं...क्या स्कूल अब धंधा बन चुका है...वैसे ही जैसे अस्पताल खोलना, शराब का ठेका चलाना वगैरह वगैरह....। यानी शन्नो हो या आकृति , MCD का स्कूल हो या फिर कनॉट प्लेस के मुहाने पर खड़ा -मॉडर्न स्कूल...हर जगह बच्चे की जान लेने पर सिस्टम आमादा है। कोई देखने वाला नहीं है कि शन्नो को धूप में मुर्गा बना देने वाली टीचर की गलती है या फिर उस व्यवस्था की, जिससे निकल कर ऐसे लोग टीचर बनते हैं।

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तुम खट्टी होगी...


तुम खट्टी होगी...
पर सच्ची होगी...
अभी छौंक रही होगी हरी चिरी मिर्चें...
खट्टे करौंदों के साथ...
या कच्ची आमी के...
या नींबू के...
या ना भी शायद...

नाप रही होगी अपना कंधा...
बाबू जी के कंधे से...
या भाई से...
और एड़ियों के बल खड़ी तुम्हारी बेईमानी
बड़ा रही होगी तुम्हारे पिता की चिंता...

तुम भी बतियाती होगी छत पर चढ़ चढ़
अपने किसी प्यारे से...
और रात में कर लेती होगी फोन साइलेंट...
कि मैसेज की कोई आवाज पता न चल जाए किसी को...
तुम्हें भी है ना...
ना सोने की आदत...
मेरी तरह...
या शायद तुम सोती होगी छककर... बिना मुश्किल के...
जब आना...
मुझे भी सुलाना...

गणित से डरती होगी ना तुम...
जैसे मैं अंग्रेजी से...
या नहीं भी शायद...
तुम लड़ती होगी अपनी मम्मी से...
पापा-भैया से भी,कभी कभी...
मेरी तरह...
पर तुम्हें आता होगा मनाना...
मुझे नहीं आता...
बताना...
जब आना...

तुम खट्टी होगी...
चोरी से फ्रिज से निकालकर
मीठा खाने में तुम्हें भी मजा आता होगा ना
तुम भी बिस्किट को पानी में डुबोकर खाती होगी...
जैसे मैं...
या शायद तुम्हें आता होगा सलीका खाने का...
मुझे भी सिखाना...
जब आना...

देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9953717705

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क्यों कर ली मोहब्बत


हथेली पे तेरा नाम उभारा क्योंकर

तुझको नज़रों के समंदर में उतारा क्योंकर

तेरा नाम मेरे नाम से मिलता ही नहीं

इस तरह नाम तेरा लेके पुकारा क्योंकर

मेरी बस्ती के उजाले भी खफ़ा हैं मुझसे

चांद तारों को अंधेरों में उतारा क्योंकर

इन निगाहों को निगाहों की कोई फिक्र नहीं

फिर ये छुप छुप के निगाहों का इशारा क्योंकर

तेरी दुनिया में सवालों के सिवा कुछ भी नहीं

फिर ये रंगीन निगाहों का नज़ारा क्योंकर

लो चलो खत्म हुआ अपना बिछड़ना मिलना

जिनसे मिलना ही नहीं उनसे किनारा क्योंकर


मसरूर अब्बास

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मैं श्रवण कुमार


अम्मां
अपने कमरे की दीवार पर
टांग ली है मैंने
तुम्हारी 30 साल पुरानी तस्वीर
और बन बैठा हूं श्रवण कुमार

तस्वीर काफी पुरानी है अम्मां
तब तुम हंसती थी
घर के हर कोने पर
अपनी मौजूदगी का अहसास
कराती थीं

रसोई के मुहाने से लेकर
लॉन के आगे गेट तक
हर जगह था तुम्हारा साम्राज्य
लेकिन अब कहां हो तुम अम्मां

एक और तस्वीर है अम्मां
बाबूजी और तुम्हारी
काले सूट और टाई में बाबूजी
और बाईं ओर तुम
संतुष्ट गृहिणी की तरह

अब तुम्हें रोज़ सुबह
उठकर देख लेता हूं
और डींगें हांकता हूं
लोगों से कहता हूं कि मैं
याद करता हूं अपनी अम्मां को
फ्रेम में जड़ी तस्वीर वाली
अम्मां को।

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मैं हूं श्रवण कुमार


अम्मां

अपने कमरे की दीवार पर

टांग ली है मैंने

तुम्हारी 30 साल पुरानी तस्वीर

और बन बैठा हूं श्रवण कुमार


तस्वीर काफी पुरानी है अम्मां

तब तुम हंसती थी

घर के हर कोने पर

अपनी मौजूदगी का अहसास

कराती थीं


रसोई के मुहाने से लेकर

लॉन के आगे गेट तक

हर जगह था तुम्हारा साम्राज्य

लेकिन अब कहां हो तुम अम्मां


एक और तस्वीर है अम्मां

बाबूजी और तुम्हारी

काले सूट और टाई में बाबूजी

और बाईं ओर तुम

संतुष्ट गृहिणी की तरह


अब तुम्हें रोज़ सुबह

उठकर देख लेता हूं

और डींगें हांकता हूं

लोगों से कहता हूं कि मैं

याद करता हूं अपनी अम्मां को

फ्रेम में जड़ी तस्वीर वाली

अम्मां को।

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ज़ुबान की राजनीति

चुनावी मौसम में राजनीतिक सरगर्मियां बढ़ना तो लाज़िमी है। लेकिन वोट बैंक जुटाने के लिए जिस तरह के हथकंडे अपनाए जा रहे हैं वो सिवाए लानत के मन में कोई और भाव पैदा नहीं करते। राजनीति में 'राज' से भी ज़्यादा 'अराजकता' का अस्तित्व फलता-फूलता दिखाई देने लगा है। वरुण गांधी का विलेन बनना, उस पर माया-मेनका की डॉयलॉग डिलीवरी और फिर कहानी में लालू का नया एंगल.. यानी एक पालीटिकल थीम पर बनने वाली फिल्म के लिए सारे चालू मसाले मौजूद हैं। मामला थमा भी नहीं था कि राबड़ी देवी ने मुख्यमंत्री नीतिश कुमार के खिलाफ़ जो ज़हर उगला, वो एक राजनैतिक लड़ाई कम और एक व्यक्तिगत लड़ाई ज़्यादा दिखाई दी। समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह का महिला डीएम के साथ अभद्र भाषा का इस्तेमाल करना। नेताओं के बीच चल रहा ये वाक्-युद्ध ये पूछने पर मजबूर करता है कि...

  • इस तरह का गैरजिम्मेदाराना और निहायती शर्मनाक व्यवहार अपनाने वाले नेताओं को क्या हम ये अधिकार देने के लिए तैयार हैं कि वो हमारा प्रतिनिधित्व करें ?
  • लाखों लोगों के बीच चुनावी रैली करने वाले इन नेताओं के पास एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने की बजाए क्या कोई वैचारिक ज़मीन या सोच है ?
  • क्या हम कभी भी जाति और धर्म की राजनीति से ऊपर नहीं उठ पाएंगे और यूं ही इन घटिया मुद्दों के आधार पर वोटो का ध्रुवीकरण होता रहेगा ?

------मीनाक्षी कंडवाल-------

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नीली छांह...


नीली स्याही... नीला कागज...

नीला बादल... नीला दु:ख...

नीली आंखों वाली की हर याद बहुत नीली है...

नीला सरगम... नीला पंचम...

नीली बातें... नीला चुप...

नीले-नीले जीवन की हर सांस बहुत नीली है...

लिख-लिख कर कागज पर सपने,

आग लगाए हाथों से...

जलते नीले सपनों की ये आग बहुत नीली है...

अब सूरज का बंद हुआ है,

मेरे घर आना जाना...

और तभी से इस कमरे की रात बहुत नीली है...

नीले पत्ते... नीली खुशबू...

नीली मिट्टी... नीली छांह...

मेरे रोपे हर पौधे की शाख बहुत नीली है...

नीला हंसना... नीला रोना...

नीला नीला कह देना...

अक्षय-अक्षय तेरी-मेरी, जात बहुत नीली है...


देवेश वशिष्ठ खबरी...

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जरनैल का जूता

इराक के पत्रकर जैदी ने मानों दुनिया भर के लोगों को एक रास्ता दिखा दिया है। जब हद हो जाए-तो क्या करे कोई। 1984 में सैकड़ों सिख मारे गये थे और आज 25 साल बाद उन दंगों के सारे आरोपी बाहर हैं। जैदी के ज़हन में था इराक की बर्बादी का सवाल...उसने जूता मारने से पहले बुश से कोई सवाल नहीं पूछा था। बरसों से अपने ज़ेहन में पनप रहे ग़ुस्से को ज़ैदी ने एक शक्ल दी-जूता फेंक दिया...सीधे साधे जरनैल सिंह भी मन से हिंसक नहीं हैं। मैं उन्हें कई दिनों से जानता हूं....अगर सरकार बदमाशी पर उतर आए तो कोई सीधा साधा आदमी हताशा में क्या कर सकता है ...जरनैल का ऐक्शन यही बताता है।

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स्लमडॉग के बहाने...

44 साल के विकास स्वरूप दक्षिण अफ्रीका में भारत के डिप्टी हाईकमिश्नर हैं। इलाहाबाद के हैं और मुझसे कुछ साल बड़े हैं , इसलिए उनकी ख्याति अच्छी भी लगती है। उन्होंने दो साल पहले एक उपन्यास लिखा-Q & A. अंग्रेज़ी में लिखी ये उपन्यास लेकर वो भारत के दो-चार बड़े फिल्म बनाने वालों के पास गए-लोगों ने कहा ठीक तो है लेकिन बॉक्स ऑफिस का क्या करेंगे......फिर पैसे हम नहीं दे पाएंगे....विकास उल्टे पांव लौट आए...कालांतर में डैनियल बॉयल ने उनकी वो किताब पढ़ी जो इतनी लोकप्रिय हो गई थी कि बॉयल ने तुरंत उसके अधिकार खरीद लिए। इस फिल्म में जो भूमिका अनिल कपूर ने निभाई है , उसके लिए वो पहले अमिताभ बच्चन के पास गए...लेकिन उन्होंने इसके लिए मना कर दिया। उन्हें शायद इज्जत में बट्टा लगता दिखाई दिया। फिर वो शाहरुख के पास गए...शाहरुख अपने बगीचे में बागवानी कर रहे थे...खुरपी से मिट्टी खोदते खोदते उन्होंने बॉयल से बात की। खान के पास शायद टाइम ही नहीं था ऐसी फिल्मों के लिए। हारकर ब़ॉयल ने अनिल कपूर को लिया। अब वही फिल्म वाहवाही बटोर रही है , तो इन दोनों को और इनके परिवार वालों को बुरा लग रहा है। असल बात भइया यही है। मुंबई में एक्टरों की राजनीति ऐसी है कि बिल्कुल केकड़ों के जैसी।
खैर अपन ने इनमें से कई लोगों से खुद बात की है...और अपन अब इसी नतीजे पर पहुंचे हैं कि अच्छी फिल्म हो तो बिना भाषा के देखो , मज़ा लो।

लेकिन जो बड़ा मुद्दा है वो आप सब लोग मिस कर गए। मुद्दा ये कि -हर भाषा के उतकृष्ट साहित्य से भरपूर इस देश में लोग हिंदी, बांग्ला या तमिल तेलुगू का साहित्य क्यों नहीं पढ़ते। अपने बच्चों को तो हम अंग्रेज़ी स्कूलों में पढ़ाते हैं लेकिन उन्हें हिंदी के उपन्यास नहीं पढ़ाते...क्यों..सोचिएगा-जवाब मिल जाएगा।

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स्लमडॉग पर सवालों के जवाब

स्लमडॉग ने एक बार फिर दुनिया भर में धूम मचायी है। फिल्मों से जुड़े सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार ऑस्कर की खेप की खेप पर कब्ज़ा कर लिया। दस में आठ ऑस्कर जीते और अकूत वाहवाही भी। लेकिन किसी अंग्रेज़ की बनाई फिल्म को मिली ये कामयाबी हममें से कई लोगों को हज़म नहीं हो रही। इस कामयाबी पर कई लोगों के कई तरह के तर्क हैं ... उनका जवाब देना ज़रूरी लगा...इसलिए लिखने बैठ गया।
(1)'तारे ज़मीं पर' को ऑस्कर क्यों नहीं मिला--
फिल्म -तारे ज़मीं पर-एक बहुत बढ़िया फिल्म थी, लेकिन ऑस्कर में वो विदेशी भाषा की कैटेगरी में नॉमिनेटेड थी। ऐसी फिल्में जो अंग्रेज़ी के अलावा दूसरी भाषाओं में बनती हैं वो सीधे कम्पीटीशन में नहीं आतीं। वो विदेशी भाषा के वर्ग में आती हैं जहां उनका कम्पीटीशन भी विदेशी भाषाओं की फिल्मों से ही रहता है। ये कहना बेमानी है कि -तारे ज़मीं पर -को ऑस्कर नहीं दिया तो बॉलीवुड या हिंदी फिल्मों की तौहीन हो गई। ये हम तब तक नहीं कह सकते जब तक हमें ये न पता हो कि उस वर्ग में जिस फिल्म को अवॉर्ड मिला है वो कैसी थी...हो सकता है -तारे से बेहतर हो...हो सकता है ...तारे से बहुत बेहतर हो....हो सकता है आमिर की इस फिल्म से वो फिल्म इतनी अच्छी हो कि तुलना ही न की जा सकती हो। इसलिए पूर्वाग्रह से ग्रस्त होने की बजाय ये देखना चाहिए कि जिसे इनाम मिला है , उसकी खासियत क्या है। उसे देखा ही नहीं और कहने लगे ...अंग्रेज़ों ने बेमानी की है। हो सकता है बेमानी करते हों अंग्रेज़...लेकिन हमसे बड़े बेईमान तो नहीं हैं वो। कम से कम पुरस्कारों के बारे में। वर्ना ऑस्कर की इज़्ज़त इतनी क्यों है...आपको फिल्म फेयर और स्क्तीन अवॉर्ड्स...और तो और आपको राष्ट्रीय पुरस्कारों की कितनीइज़्ज़त है ..ये देखना हो तो इस बार के पद्म भूषण, पद्म श्री पुरस्कारों की लिस्ट देख लें..समझ में आ जाएगा कि ऑस्कर की इज़्ज़त इतनी क्यों है।
(2)ऑस्कर के लोग इतने दीवाने क्यों ?
इसलिए कि ये एवॉर्ड्स बड़े कड़े पैमाने पर तौले जाते हैं। फिल्म के एक एक फ्रेम , संगीत के एक एक टुकड़े को पैमाने पर तौला जाता है। ऐसी काट छांट होती है भइये कि आपकी हिंदुस्तानी फिल्में कहीं ठहरें ही नहीं। क्योंकि हमारे यहां तो पुरस्कार जान पहचान पर मिलते हैं..शायद इसीलिए आमिर खान खुद कभी भारत के किसी पुरस्कार समारोह में जाते ही नहीं...और इन्ही आमिर की फिल्में अगर ऑस्कर में जाती हैं , तो हमें तो खुश होना चाहिए कि कोई ऐसा भी है हमारे बीच जो इन सारी बाधाओं के बावजूद इतने बड़े कॉम्पीटीशन में घुस पाता है। लेकिन नहीं...एक अजब सी नालायकी है हमारे अंदर ....न कुछ करते हैं , न करने देते हैं। आप में से कुछ लोगों को शायद याद हो-कि शाहरुख खा4न को जब पहले फिल्म फेयर मिला था तो , पुरस्कार लेकर पोडियम पर से उन्होंने कहा था कि -मैं तो पैसे लेकर तैयारी से आया था कि अगर नहीं मिला तो मंत के पीछे जाकर संयोजकों को थमा दूंगा थैली। तो हमारे पुरस्कारों की तो ये औकात है। हर आदमी को पता है कि हिंदुस्तान में बड़े से बड़ा ओहदा और बड़ी से बड़ी नौकरी कैसे मिल सकती है। पुरस्कार इसी कड़ी में है...वो कैसे भी मिल जाते हैं...मेरे सात के कई पत्रकार हैं...उनके घर में भांति भांति के सम्मान और ट्रॉफियां रखी हुईं हैं। लेकिन उन्होंने ऐसा क्या किया है कि उन्हें इनामों से नवाज़ा गया है -उन्हीं से पूछ लीजिए -तो बता न पाएं। खुद मुझे दो बार ऑफर हो चुके हैं अवॉर्डस ...लेकिन ऐसे कि जिनका किसी ने नाम तक न सुना हो-या फिर ऐसे कि जिसमें पुरस्कारलेने के बाद आपके इस्तेमाल की संभावनाएं हों। मैंने आयोजकों से दोनों बार पूछा कि -मैंने ऐसा किया क्या है ? तो उनका भी कहना सुन लीजिए-अरे साहब , बड़े लोग विनम्र होते हैं ..ये आपका बड़प्पन है कि आप खुद को कुछ नहीं मानते।
(3)मूल किताब को ऑस्कर क्यों नहीं मिला, ऐक्टर्स को क्यों नहीं मिला--
इसलिए कि फिल्म मूल किताब पर नहीं बनी...उस पर आधारित स्क्रिप्ट पर बनी ...किताब को विकास स्वरूप दो साल पहले 10 करोड़ रुपये में बेच चुके हैं। इसलिए अब अगर डैनी बोयल उन्हें अपने साथ हर समारोह में रखते हैं , तो ये उनका बड़प्पन है। विकास की किताब की चर्चा तो साहब आपने खुद अपने देश में नहीं की। उनकी प्रतिभा की कद्र तो आपके बॉलीवुड ने खुद नहीं की। वो मुंबई गये -कई फिल्मकारों से मिले -सबने दरवाज़े बंद कर लिए ...क्योंकि उनकी निगाह में ये फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बेकार होती। और वो फिल्म जब अंग्रेज़ों ने बना ली और तहलका मचा दिया तो लोगों को मिर्ची लग रही है। अब जया बच्चन और अमिताभ बच्चन कहते हैं कि मीडिया को स्लमडॉग की सफलता को इतनी हवा नहीं देनी चाहिए, क्योंकि ये एक विदेशी फिल्म है। अच्छा , तो जया जी आपको बच्चों की फिल्मों के बारे में बात करें हम ? उन फिल्मों के बारे मे जिनमे दुनिया भर के लटके झटके होते हैं और कहानी ढ़ूंढने पर भी नहीं मिलती..ये वही फिल्में हैं जिनके चलते आपने और आपके परिवार ने हिंदुस्तानी पुरस्कारों पर कब्ज़ा कर रखा है। जया जी -आपकी बहू को पद्मश्री मिला है इस साल का। लेकिन इस साल तो उन्होंने सिर्फ एक ही फिल्म की। जोधा अकबर। और उस फिल्म में अभिनय की तारीफ तो आजतक आपके ही लोगों ने नहीं की। विशुद्ध मसाले से भरपूर इस फिल्म में ऐश्वर्या ने क्या किया था ऐसा कि राष्ट्रपति भवन से रुक्का आ गया। खबर तो ये भी है कि भाई अमर सिंह ने चाबी घुमाई थी-ताज़ा ताज़ा समर्थन दिया था केंद्र को-इसलिए एक अदना सा पुरस्कार तो बांएं हाथ का खेल था। दूसरी बात- स्लमडॉग को ऐक्टिंग के किसी वर्ग में नॉमिनेट किया ही नहीं गया था। ये जान लें कि केंद्रीय रोल किसी का था ही नहीं ।
(आगे और है)

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स्लमडॉग पर सवालों के जवाब

स्लमडॉग ने एक बार फिर दुनिया भर में धूम मचायी है। फिल्मों से जुड़े सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार ऑस्कर की खेप की खेप पर कब्ज़ा कर लिया। दस में आठ ऑस्कर जीते और अकूत वाहवाही भी। लेकिन किसी अंग्रेज़ की बनाई फिल्म को मिली ये कामयाबी हममें से कई लोगों को हज़म नहीं हो रही। इस कामयाबी पर कई लोगों के कई तरह के तर्क हैं ... उनका जवाब देना ज़रूरी लगा...इसलिए लिखने बैठ गया।
(1)'तारे ज़मीं पर' को ऑस्कर क्यों नहीं मिला--
फिल्म -तारे ज़मीं पर-एक बहुत बढ़िया फिल्म थी, लेकिन ऑस्कर में वो विदेशी भाषा की कैटेगरी में नॉमिनेटेड थी। ऐसी फिल्में जो अंग्रेज़ी के अलावा दूसरी भाषाओं में बनती हैं वो सीधे कम्पीटीशन में नहीं आतीं। वो विदेशी भाषा के वर्ग में आती हैं जहां उनका कम्पीटीशन भी विदेशी भाषाओं की फिल्मों से ही रहता है। ये कहना बेमानी है कि -तारे ज़मीं पर -को ऑस्कर नहीं दिया तो बॉलीवुड या हिंदी फिल्मों की तौहीन हो गई। ये हम तब तक नहीं कह सकते जब तक हमें ये न पता हो कि उस वर्ग में जिस फिल्म को अवॉर्ड मिला है वो कैसी थी...हो सकता है -तारे से बेहतर हो...हो सकता है ...तारे से बहुत बेहतर हो....हो सकता है आमिर की इस फिल्म से वो फिल्म इतनी अच्छी हो कि तुलना ही न की जा सकती हो। इसलिए पूर्वाग्रह से ग्रस्त होने की बजाय ये देखना चाहिए कि जिसे इनाम मिला है , उसकी खासियत क्या है। उसे देखा ही नहीं और कहने लगे ...अंग्रेज़ों ने बेमानी की है। हो सकता है बेमानी करते हों अंग्रेज़...लेकिन हमसे बड़े बेईमान तो नहीं हैं वो। कम से कम पुरस्कारों के बारे में। वर्ना ऑस्कर की इज़्ज़त इतनी क्यों है...आपको फिल्म फेयर और स्क्तीन अवॉर्ड्स...और तो और आपको राष्ट्रीय पुरस्कारों की कितनीइज़्ज़त है ..ये देखना हो तो इस बार के पद्म भूषण, पद्म श्री पुरस्कारों की लिस्ट देख लें..समझ में आ जाएगा कि ऑस्कर की इज़्ज़त इतनी क्यों है।
(2)ऑस्कर के लोग इतने दीवाने क्यों ?
इसलिए कि ये एवॉर्ड्स बड़े कड़े पैमाने पर तौले जाते हैं। फिल्म के एक एक फ्रेम , संगीत के एक एक टुकड़े को पैमाने पर तौला जाता है। ऐसी काट छांट होती है भइये कि आपकी हिंदुस्तानी फिल्में कहीं ठहरें ही नहीं। क्योंकि हमारे यहां तो पुरस्कार जान पहचान पर मिलते हैं..शायद इसीलिए आमिर खान खुद कभी भारत के किसी पुरस्कार समारोह में जाते ही नहीं...और इन्ही आमिर की फिल्में अगर ऑस्कर में जाती हैं , तो हमें तो खुश होना चाहिए कि कोई ऐसा भी है हमारे बीच जो इन सारी बाधाओं के बावजूद इतने बड़े कॉम्पीटीशन में घुस पाता है। लेकिन नहीं...एक अजब सी नालायकी है हमारे अंदर ....न कुछ करते हैं , न करने देते हैं। आप में से कुछ लोगों को शायद याद हो-कि शाहरुख खा4न को जब पहले फिल्म फेयर मिला था तो , पुरस्कार लेकर पोडियम पर से उन्होंने कहा था कि -मैं तो पैसे लेकर तैयारी से आया था कि अगर नहीं मिला तो मंत के पीछे जाकर संयोजकों को थमा दूंगा थैली। तो हमारे पुरस्कारों की तो ये औकात है। हर आदमी को पता है कि हिंदुस्तान में बड़े से बड़ा ओहदा और बड़ी से बड़ी नौकरी कैसे मिल सकती है। पुरस्कार इसी कड़ी में है...वो कैसे भी मिल जाते हैं...मेरे सात के कई पत्रकार हैं...उनके घर में भांति भांति के सम्मान और ट्रॉफियां रखी हुईं हैं। लेकिन उन्होंने ऐसा क्या किया है कि उन्हें इनामों से नवाज़ा गया है -उन्हीं से पूछ लीजिए -तो बता न पाएं। खुद मुझे दो बार ऑफर हो चुके हैं अवॉर्डस ...लेकिन ऐसे कि जिनका किसी ने नाम तक न सुना हो-या फिर ऐसे कि जिसमें पुरस्कारलेने के बाद आपके इस्तेमाल की संभावनाएं हों। मैंने आयोजकों से दोनों बार पूछा कि -मैंने ऐसा किया क्या है ? तो उनका भी कहना सुन लीजिए-अरे साहब , बड़े लोग विनम्र होते हैं ..ये आपका बड़प्पन है कि आप खुद को कुछ नहीं मानते।
(3)मूल किताब को ऑस्कर क्यों नहीं मिला, ऐक्टर्स को क्यों नहीं मिला--
इसलिए कि फिल्म मूल किताब पर नहीं बनी...उस पर आधारित स्क्रिप्ट पर बनी ...किताब को विकास स्वरूप दो साल पहले 10 करोड़ रुपये में बेच चुके हैं। इसलिए अब अगर डैनी बोयल उन्हें अपने साथ हर समारोह में रखते हैं , तो ये उनका बड़प्पन है। विकास की किताब की चर्चा तो साहब आपने खुद अपने देश में नहीं की। उनकी प्रतिभा की कद्र तो आपके बॉलीवुड ने खुद नहीं की। वो मुंबई गये -कई फिल्मकारों से मिले -सबने दरवाज़े बंद कर लिए ...क्योंकि उनकी निगाह में ये फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बेकार होती। और वो फिल्म जब अंग्रेज़ों ने बना ली और तहलका मचा दिया तो लोगों को मिर्ची लग रही है। अब जया बच्चन और अमिताभ बच्चन कहते हैं कि मीडिया को स्लमडॉग की सफलता को इतनी हवा नहीं देनी चाहिए, क्योंकि ये एक विदेशी फिल्म है। अच्छा , तो जया जी आपको बच्चों की फिल्मों के बारे में बात करें हम ? उन फिल्मों के बारे मे जिनमे दुनिया भर के लटके झटके होते हैं और कहानी ढ़ूंढने पर भी नहीं मिलती..ये वही फिल्में हैं जिनके चलते आपने और आपके परिवार ने हिंदुस्तानी पुरस्कारों पर कब्ज़ा कर रखा है। जया जी -आपकी बहू को पद्मश्री मिला है इस साल का। लेकिन इस साल तो उन्होंने सिर्फ एक ही फिल्म की। जोधा अकबर। और उस फिल्म में अभिनय की तारीफ तो आजतक आपके ही लोगों ने नहीं की। विशुद्ध मसाले से भरपूर इस फिल्म में ऐश्वर्या ने क्या किया था ऐसा कि राष्ट्रपति भवन से रुक्का आ गया। खबर तो ये भी है कि भाई अमर सिंह ने चाबी घुमाई थी-ताज़ा ताज़ा समर्थन दिया था केंद्र को-इसलिए एक अदना सा पुरस्कार तो बांएं हाथ का खेल था। दूसरी बात- स्लमडॉग को ऐक्टिंग के किसी वर्ग में नॉमिनेट किया ही नहीं गया था। ये जान लें कि केंद्रीय रोल किसी का था ही नहीं ।
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एक 'मुस्कान' की कहानी

अगर इस कहानी को दुनिया के किसी भी कोने में बैठा शख़्स सुन रहा हो.. तो वो इसका हिस्सा बन जाता है... ये उत्तर प्रदेश के मिर्ज़ापुर में बसे एक गांव की कहानी है। सात साल की मासूम लड़की की कहानी है... कहानी को समझना है... उससे जुड़ी उम्मीदों को समझना है लिहाज़ा ज़रा गहरे चलते हैंउम्र सात साल... नाम है... ख़ैर छोड़िए, नाम जो भी रखा गया हो, उसके साथ के बच्चे तो उसे होठकटवा कह कर ही बुलाते हैं। बिलकुल नन्ही गुड़िया जैसी... आंखों में शरारत और भीतर बचपन समेटे... स्कूल जाती है.. पढ़ती है.. खेलती है.. लेकिन हर वक़्त उसके ऊपर चिपकी होती है ज़िल्लत। होठ जन्म से कटे हैं.. कोई कहता है ग्रहण का प्रकोप है.. कोई कहता है देवी की क्रूर नज़र पड़ी है। वो हंसना चाहती है.. लेकिन उसकी मुस्कराहट पर ताले पड़े हैं। क्लास में पीछे बैठती है, शायद खुद पर शर्म आती है इसलिए..। सब उसे चिढ़ाते हैं कोई उसके साथ नहीं खेलता... लेकिन बच्ची है न.. तो खुद ही गोल गोल चक्कर काटते हुए, उछलते हुए किसी ख्याल पर, मस्त हो जाती है.. फिर अचानक उसे अहसास होता है कि वो अकेली है और खोई खोई आंखों से लुका छिपी खेलते बच्चों में देर तक खुद को ढूंढती रहती है। सात साल की इस बच्ची की दुनिया जन्म से ऐसी ही रही ... जब कभी आईना देखती है... उसे अपनी शक्ल नहीं... डरावने... नुकीले दांतों वाले सवाल दिखाई देते हैं..। बीच बीच में अपने बाबू(पिता) को अपना चेहरा दिखाती है, बड़े इसरार से उनकी तरफ देखती है, और बाबू... वो अपनी तरफ देखते हैं, अपनी जेब बहुत छोटी और फटी दिखाई देती है उन्हें, नहीं जानते कि कभी इस बच्ची के हाथ पीले भी होंगे या नहीं। वो नहीं मानते कि उनकी बेटी कभी मुंहफट आईने से ये लड़ाई जीत सकेगी... या वो कभी शान से मुस्करा भी सकेगी..फिर एक सुबह, गंदी सी दीवार पर चिपका एक उजला इश्तेहार होठकटवा कही जाने वाली इस लड़की को अपने नाम पिंकी जैसा खिला खिला बनने की उम्मीद देता है... पिंकी की आंखों में चमक है.. वो एक बार फिर बाबू के सामने है.. अपने हाथ में बाबू की अंगुलियां लिए हुए कह रही है... चलो, चलो न बाबू..। बाबू के सवाल - बहुत दूर है कैसे जाओगी..? बहुत पैदल चलना पड़ेगा.. तुम्हें डर नहीं लग रहा ? लेकिन पिंकी की एक ही रट है बनारस जाना है। उसे विश्वास था कि उसकी ‘smile’ उसे हमेशा के लिए वापस मिल जाएगी। और ऐसा ही हुआ
कल तक जिस लड़की को सब होठकटवा कह कर बुलाते थे अब वो पिंकी हो गई है.... एक ऑपरेशन ने पिंकी की ज़िंदगी बदल दी है। अब उसकी ‘smile’ को पूरी दुनिया देख रही है... पिंकी की मुस्कान ने भारत को ऑस्कर के स्टेज तक पहुंचा दिया... क्योंकि अपनी मुस्कान को हासिल करने की इस सच्ची कहानी पर बनी डॉक्यूमेंट्री स्माइल पिंकी को दुनिया भर के सिनेमाप्रेमियों के साथ साथ एकेडमी अवार्ड्स के ज्यूरी मेंबर्स ने भी बहुत पसंद किया.. गांव रामपुर दाबाही के लोगों को भी खुशी है कि उनके ही गांव की पिंकी पर बनी डॉक्यूमेंट्री का डंका ऑस्कर में बजा, अब गली गली में अक्सर पिंकी के नाम के नारे सुनाई दे जाते हैं। गांव की हिरोइन पिंकी है तो गांव के हीरो डॉ सुबोध कुमार जिन्होंने पिंकी के क्लेफ्ट लिप्स को ऑपरेशन से ठीक कर दिया।
अब पिंकी से कभी मिलिए... उसे देखिए... शान से शीशा देखती है.. उसकी दुनिया एकदम बदल गई है
पिंकी की मुस्कान पर लगे ताले खुल चुके हैं...पहले बच्चे पिंकी को चिढ़ाते थे लेकिन अब सब उसके साथ खेलते हैं, पहले पिंकी स्कूल में सबसे पीछे बैठती थी लेकिन अब वो सबसे आगे बैठती है, मन लगाकर पढ़ती है। पिंकी को नई मुस्कान के साथ एक नया लक्ष्य मिला है अब उसे डॉक्टर बनना है अपने जैसे तमाम बच्चों का इलाज करना है.. कई और होंठ कटवा बच्चों को पिंकी बनाना है। और हां.. अब वो तन्हा नहीं है.. उसके साथ उसकी मुस्कान है।
हैरत है कि ये कहानी ख़ालिस हिंदुस्तानी है लेकिन ये दिखाई दी एक अमेरिकी फिल्म निर्देशक को.. 39 मिनट में अमेरिकी निर्देशक मेगन मायलन ने बोला कम है.. कहा ज़्यादा है.. गौर से देखें तो पिंकी की मुस्कराहट में हमारे लिए बहुत सारे सबक हैं।
सोचता हूं कि इस कहानी का सबसे अहम किरदार कौन है... पिंकी... डॉ सुबोध.. या फिर मेगन

सिद्धार्थ त्रिपाठी
(सिद्धार्थ यूं तो एक टीवी जर्नलिस्ट हैं पर ख्वामख्नाह अपनी ऊर्जा ज़ाया नहीं करते...वो जो दिन में करते हैं उसे रात में गुनते हैं...और फिर काग़ज़ पर बिखेर देते हैं...लोगों की कही-अनकही, किसी से सुना या फिर अखबार के किसी कोने में छपी एक छोटी सी खबर उन्हें आइडिया दे गई तो समझिए कुछ पक सा गया। तो, जो उन्होंने ताज़ा ताज़ा पकाया है ...वो आपके सामने है।)

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रिश्तों का पद्मश्री




प्रतिभा पाटिल लगातार रोए जा रही थीं...राष्ट्पति नहीं .... (यही तो अंतर है) मुंबई पुलिस के कांस्टेबल जयंत पाटिल की बेवा-प्रतिभा पाटिल। जयंत को 26 नवंबर को मुंबई हमले में आतंकियों ने गोलियों का शिकार बनाया था। जिस वक्त हमला हुआ वो उस वक्त अपने अफसरों - हेमंत करकरे,काम्टे और विजय सालस्कर के साथ एक पुलिस जीप में बैठकर कामा अस्पताल जा रहे थे। आतंकियों ने इनमें से किसी को हिलने का मौका नहीं दिया और सामने बैठे तीनों अफसरों और पीछे बैठे दोनों सिपाहियों को भून दिया। क्या हुआ - ये बताने के लिए जाने कैसे - एक कांस्टेबल बच गया और उसीने सारी कहानी बताई। प्रतिभा के रोने की कहानी यहां से शुरू होती है। जीप में आगे बैठे तीनों अफसरों को वीरता के पदक अशोक चक्र से नवाजा गया लेकिन पीछे मारे गए सिपाहियों को सरकारी फाइलें भूल गईं। कांस्टेबल जयंत पाटिल की बेवा इसीलिए रो रही थी.....आखिर उसके पति की वीरता उस जीप में बैठे किस से कम थी। उसका मूक सवाल यही था। तो क्या पुरस्कार रौब-दाब और हैसियत को देख कर तय किए जाते हैं। कम से कम ऐश्वर्य राय को पद्मश्री देने के फैसले ने तो इसी बात की तस्दीक की है। सरकारी पुरस्कारों का कोई मतलब नहीं होता ...ये तो सबको पता है। लेकिन बांटने में अंधेरगर्दी होगी ..ये इस बार ही पता चला। सूरमा भुला दिए गए...और बड़े लोगों पर प्रतिभा लाद दी गई। अमिताभ बच्चन की बहू (अभी इन्हें ऐसे ही जाना जा सकता है)ऐश्वर्य को पद्मश्री से नवाज़ा गया है-क्यों -किसी को पता नहीं। शायद ऐश्वर्य को भी नहीं। उनके ससुर जी ने अपने ब्लॉग में अपने परिवार और पद्म पुरस्कारों के रिश्तों का बखान भी किया। कहा-परिवार में ये पांचवा पुरस्कार और प्रतिष्ठा लाया है। मेरी समझ में ये सारे 2008 के पुरस्कार हैं और 2008 में ऐश्वर्य ने सिर्फ एक फिल्म की है-जोधा अकबर। जिन लोगों ने ये फिल्म देखी है और अभिनय समझते हैं...वो जानते हैं कि ऐश की एक्टिंग के नमूने याद करने के लिए दिमाग पर ज़ोर डालना होगा। कौन सा ऐसा दृश्य है जहां - लगा हो कि ऐश ने सबकी छुट्टी कर दी। लेकिन सरकारी हिसाब किताब ऐसे ही चलता है। कहते हैं कि अमर सिंह ने बिग बी की इस मामले में भी मदद की है...अगर ऐसा है तो ये रिश्तों का पद्मश्री उन्हें ही मुबारक। लेकिन काश...बॉक्सिंग में ओलंपिक में पदक लाने वालों के लिए भी कोई अमर सिंह आता । खैर उन्हें भुला दिया गया और सरकारी बाबुओं को अभिनव बिंद्रा याद रहे। हर साल इन पुरस्कारों के लिए सिफारिशों का जो दौर नॉर्थ ब्लॉक-साउथ ब्लॉक में चलता है , वो लोग उससे अच्छी तरह जानते हैं। और शायद इसीलिए साल दर साल ये पुरस्कार अपनी चमक खोते जा रहे हैं। बहादुरी के इनामों की बात भी कर लें।

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Q & A के निहितार्थ




विकास स्वरूप एक राजनयिक हैं, साहितयिक अभिरुचि के हैं...और सबसे बड़ी बात इतने बड़े पद पर होते हुए भी ज़मीन से जुड़े हैं। विकास , हाल ही में चर्चा में इसलिए आए हैं क्योंकि तीन बरस पहले लिखी गई उनकी पहली उपन्यास पर बनी एक फिल्म ने दुनिया भर में तहलका मचा दिया है। मैंने वो फिल्म देखी और विकास की समझदारी की तारीफ किए बगैर नहीं रह सका। कहानी का ताना बाना जिस माहौल के इर्द गिर्द तैयार किया गया है......विकास ने लिखने से पहले उसे अच्छी तरह समझने की कोशिश भी की। विकास की तरह बहुत से अफसर विदेश सेवा में मजे लेकर जीते हैं..और दुनिया भर में घूमते रहते हैं। लेकिन विकास के भीतर कोई कीड़ा था , जो उन्हें चैन नहीं लेने दे रहा था। जब वो दिल्ली में थे, तब उन्होंने एक सरकारी योजना की कहानी पढ़ी थी। इस योजना के तहत दिल्ली के एक स्लम इलाके में एक कंप्यूटर रख दिया गया था। कुछ दिनों बाद गौर किया गया कि स्लम के बच्चे कंप्यूटर का इस्तेमाल सीखने लगे। किसी अखबार में पढ़ी गई उस छोटी सी खबर ने विकास को कहानी का एक प्लॉट दे दिया। उनकी उपन्यास -Q & A स्लम में पले बढ़े एक ऐसे ही बच्चे की कहानी है जो एक क्विज़ प्रतियोगिता में जाकर सबसे बड़ा ईनाम जीत लेता है। हर सवाल का जवाब उसे अपनी ज़िंदगी में भोगे हुए यथार्थ से मिलता है। वो अनुभव जो उसे 15-16 साल तक की उम्र में मिले हैं...हर सवाल का जवाब किसी न किसी घटना में छिपा कोई अनुभव , कोई शब्द या फिर कोई नाम होता है...जिसे वो बुद्धिमानी से जोड़ता चलता है....ह़ॉट सीट पर बैठ कर उसमें इतनी चालाकी भी आ जाती है कि वो, वक़्त की नज़ाकत भांप कर सवाल पूछने वाले को भी गच्चा दे जाता है।


फिल्म का हीरो-वो बच्चा, विकास स्वरूप के उस यकीन का मानवीय रूप है-जिसके तहत वो मानते हैं कि हममें से हरेक व्यक्ति बुद्धिमान है, जिसको पढ़ाई लिखाई का मौका मिला , वो अफसर बन गया ...या फिर ज़िंदगी से लड़ने के लिए ज़रूरी चालाकियां सीख गया। जिसे मौका नहीं मिला ....उसने 'बहादुर' बनकर मालिकों की चाकरी में पूरी ज़िंदगी बिता दी। लेकिन विकास की कहानी का हीरो एक पॉज़िटिव मेसेज भी देता है....कि स्लम में रहने वाला भी महलों के सपने देखता है...और उसे मुमकिन भी बना सकता है। हम पढ़े लिखे हैं तो इसका मतलब ये नहीं कि हम ही ज्ञानी हैं....ज्ञान की कोंपलें उनमें भी फूटती हैं जो सड़कों पर कूड़ा बीनते रोज़ दिखाई दे जाते हैं....उनमें भी जिन्होंने अपना बचपन हादसों और डर से भरे लम्हों के बीच बिताया है।


कहने को लोग कहेंगे कि हिंदी में लिखने वालों की कद्र नहीं है। लेकिन मानना होगा कि अंग्रेजी में लिखने वाले विकास स्वरूप की आत्मा में हिंदी पूरी तरह रची बसी हुई है....ये भी कि उनसे मिलने के बाद शायद ही कोई कहे कि वो हिंदी के लेखक नहीं हैं। Q & A लिखी भले ही अंग्रेज़ी में लिखी गई हो-उसका ताना बाना विशुद्ध रूप से एक हिंदी में सोचने वाले का ही बुना है।

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