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इंशाजी उठो अब कूच करो



इंशाजी उठो अब कूच करो,

इस शहर में जी का लगाना क्या

वहशी को सुकूं से क्या मतलब,

जोगी का नगर में ठिकाना क्या

इस दिल के दरीदा दामन में

देखो तो सही, सोचो तो सही

जिस झोली में सौ छेद हुए

उस झोली को फैलाना क्या

शब बीती चाँद भी डूब चला

ज़ंजीर पड़ी दरवाज़े पे

क्यों देर गये घर आये हो

सजनी से करोगे बहाना क्या

जब शहर के लोग न रस्ता दें

क्यों बन में न जा बिसराम करें

दीवानों की सी न बात करे

तो और करे दीवाना क्या


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26/11, मुंबई और असली आतंकवादी

" समझ नहीं आता, तारीखों से क्या रिश्ता है... क्या 26/11 के ज़ख्मों से खून सिर्फ आज के हीं दिन रिसता है..... ??? "ये वो लाइनें हैं जो 26 नवंबर को लिख पाया बस... लेकिन जब से मुंबई का दौरा कर के लौटा था तब से हीं सोच रहा था कि इस बाबत कुछ लिखुंगा.... पर समय नहीं मिल पाया... 26/11 पर बनने वाली एक डॉक्यूमेंट्री के सिलसिले में मुंबई गया था.... 3 दिन शूट किया... हर उस जगह को करीब से देखा जहां की दीवारों, गलियों और सडकों तक से खून रिस रहा था एक साल पहले.... लोगों को भी देखा.... जिन्होंने ये सब देखा और झेला है.... जिनके आस-पास हादसा तो हुआ लेकिन वो महज़ viewer भर थे, उनके लिए 26/11 को याद करना, कैमरे के सामने सब बोलना, कहानी की तरह बताना.... बहुत मुश्किल नहीं था... कुछ तो शायद बोलते बोलते प्रोफेश्नल हो गये थे.... कामा हॉस्पिटल में एक शख्स मिला जिसने कसाब के साथ बीस मिनट बिताये थे.... और जिन्दा बच गया था.... मिलकर मुझे लगा कि शायद इसकी रुह तक कांप जाये हमें उस दिन के बारे में बताने में... लेकिन उसने तो टेक पर टेक दिये... सबकुछ इनऐक्ट कर के बताया.... यहां तक कि जब हम उससे पहली बार मिले और लिफ्ट का इंतज़ार कर रहे थे तो मैंने बातों बातों में उससे पूछा कि उस दिन हुआ क्या था... और उसने कहा... देखो साहब, बार बार नहीं बताउंगा... घबराओ मत, ऊपर चलो... सब ऐक्ट कर के दिखाउंगा... मेरे तो होश फाख्ता हो गये.... क्योंकि जब उसने कहा कि वो नहीं बताएगा तो मुझे लगा कि बेचारे के जख्म हरे हो जाते होंगे शायद बार बार बताने में लेकिन फिर लगा कि नहीं ये तो हैबिच्वुअल हो चुका है और अपना समय बरबाद नही करना चाहता....इंटरव्यू खत्म होने के बाद तस्वीर और साफ हुई कि उसे बस पैसे चाहिए थे.... थोड़े और............लोग हंस रहे थे.... मस्त थे... बेखौफ हर उस जगह, जहां हमला हुआ था, मौजूद थे.... मुझे लगा शायद प्रशासन की तैयारियों ने इस बेखौफी को जन्म दिया है... लेकिन उनसे बात करके पता चला कि नहीं, उनसब को पूरा यकीन था कि मुंबई पर दुबारा ऐसा हमला हो सकता है.... फिर क्या चीज़ थी जो उन्हें डरने नहीं दे रही थी.... इस सवाल को साथ लिए मुंबई से दिल्ली वापस आ गया....और इस बात का जवाब मिला मुझे 26/11 के दिन शो एंकर करते वक्त, जब एक 10 साल की बच्ची हमारे साथ मुंबई से लाइव बैठी.... मुंबई हमलों में उसने टांगे गंवा दी हैं और कसाब मामले की सबसे कम उम्र की गवाह है वो.... बातचीत ठीक चल रही थी... मैं शायद उसका दर्द उससे ज्यादा महसूस कर पा रहा था... पर शो के अंत में जब उसका धन्यवाद करने लगा तो वो अचानक बोल पड़ी कि मैं लोगों से कहना चाहती हूं कि मेरा स्कूल में ऐडमिशन कराओ, मुझे घर चाहिए और टीवी भी और....... वो बोल हीं रही थी साउंड इंजीनियर ने पीसीआर से उसका ऑडियो काट दिया.... मैं सन्न था... जैसे तैसे शो वाइंड अप किया.... और उस वक्त लगा कि मुंबई में जो देखा और उस मंज़र ने जो सवाल पैदा किए उनसब का जवाब इस छोटी सी बच्ची ने दे दिया.... हर दर्द, हर तकलीफ शायद कुछ पल के बाद नहीं लौटती लेकिन भूखे पेट की हीं तकलीफ ऐसी है जो हर कुछ घंटों के बाद मुंह बाये सामने खड़ी हो जाती है.... और इसीलिए, किसी को डर नहीं लगता किसी आतंकी हमले से, किसी कसाब से, किसी अबु इस्माइल से... या फिर कहूं कि ज्यादा देर डर नहीं लगता क्योंकि सबको पता है कि इनसे डर गए तो पेट की आग जला कर मार देगी.... आतंकियों से तो फिर भी 60 घंटे लड़ा जा सकता है,जंग जीती जा सकती है लेकिन भूखे पेट का आतंक 60 घंटे क्या, 6 घंटे में हीं वो दर्द देने लगता है जो शायद AK-47 की गोलियां भी न देती होंगी.... 26/11 के आतंकियों ने भी सबकुछ धर्म के नाम पर भले किया हो लेकिन वो भी अपने परिवार वालों को भूख के आतंक से दूर रखने के लिए हीं खुद सूली चढ़े.... ये भी एक सच है....और शायद सबसे बड़ा सच ये है कि हर दिन एक 26/11 है... जहां हम सब जिन्दा रहने की लड़ाई लड़ रहे हैं... और आतंकी भूख, घात लगाये बैठी है...

सुशांत सिन्हा

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