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आख़िर क्यों ?

आख़िर क्यों क्यों क्यों ?
ये 'क्यों' है... एक प्रवृत्ति के लिए। प्रवृत्ति दूसरों की ज़िंदगी में ताक-झांक करने की। कई बार हैरानी होती है कि क्यों हमारी दिलचस्पी अपने नंगे सचों को देखने के बजाए दूसरों की ज़िंदगी को नंगा करने में होती है? जहां चार लोगों की महफ़िल जमी वहां किसी पांचवे का ज़िक्र छिड़ जाता है। दूसरे की ज़िंदगी में भी दिलचस्पी लेना वहां तक समझ आता है, जहां तक उस दिलचस्पी से हमारी अपनी ज़िंदगी कुछ ख़ास तरह से जुड़ी हो। किसी ने क्या पहना है, क्या खरीदा, किसकी ज़िंदगी में कौन आया, कौन किससे बात कर रहा है, किसके साथ घूम रहा है, वो दुखी क्यों है, वो इतना खुश क्यों है....... आख़िर क्यों ? क्या एक सामाजिक प्राणी होने या दुनियादारी निभाने का मतलब ये होता है कि हम दूसरों की ज़िंदगी में गैरज़रुरी दख़ल देना शुरु कर दें.... या किसी दूसरे को अपनी सोच का गैरज़रुरी हिस्सा बना लें।
इस आदत की गुलामी में जी रहे लोगों पर अब तो तरस आने लगा है। फिल्म DDLJ का एक डॉयलॉग याद आ गया जो 'छुटकी' काजोल से कहती है...

"मिस लूसी कहती हैं कि... अगर आदतें वक्त पर न बदली जाएं तो ज़रुरतें बन जाती हैं"

----मीनाक्षी कंडवाल-----

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11 comments:

ओम आर्य said...

आख़िर क्यों ? क्या एक सामाजिक प्राणी होने या दुनियादारी निभाने का मतलब ये होता है कि हम दूसरों की ज़िंदगी में गैरज़रुरी दख़ल देना शुरु कर दें..



bahut hi sahi panktiya.........sahi sawaal bhi ..........sundar

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

आपकी बात तो बिल्कुल ठीक है। लेकिन सन्दर्भ क्या है यह समझ में नहीं आया।

कभी-कभी कोई व्यक्ति जब आम जनता के ध्यानाकर्षण का केन्द्र बन जाता है, कोई नेता अभिनेता या अन्य सेलिब्रिटी, तो उसे अपनी निजता का त्याग करना पड़ता है। जनता जो उसे प्यार और सम्मान देती है उसकी कीमत उससे इसी रूप में वसूलती है। उसके बारे में अधिकाधिक जानने का प्रयास करती है। इस चक्कर में पब्लिक और प्राइवेट डोमेन के बीच की लक्ष्मण रेखा कब धुँधली हो जाती है इसका पता ही नहीं चलता।

इसी प्रकार किसी से सामान्य परिचय के बाद दोस्ती, फिर प्रगाढ़ता और फिर अपनापन का भाव भी इस सीमारेखा को कब लाँघ जाता है इसका ध्यान नहीं रह जाता।

इसलिए इस काम्प्लेक्स इश्यू को थोड़ा विस्तार से उठाइए तो कुछ निष्कर्ष निकाल कर आएगा।

GAURI SHANKER said...

खुदा ने इंसान को सूरत बख्शी और सीरत कमाने के लिए पूरी दुनिया की जमीन और जायदाद दिये..उसके बाद खुदा सबसे बड़ा गवाह बना इंसानी कमजर्फी और कामयाबी के लिए..कुछ समय बाद किसी के पास नफरत थी, तो किसी के पास मुहब्बत..लेकिन दोनों के जेहन में एक सवाल जरूर था..नफरत करने वाले लोग सोचते कि 'आखिर क्यों'मैं किसी से प्यार करूं..वहीं प्यार करने वाले सोचते कि'आखिर क्यों'मैं किसी से नफरत करूं..जब भगवान ने देखा कि सबको तो एक जैसा बनाया था,फिर इंसानों की बस्ती में कहीं भेड़िये, तो कहीं घोड़े क्यों दिखाई दे रहे...फिर खुदा ने माथे पर बल देकर सोचा कि दरअसल गलती हमारी है..इंसान बनाने से पहले 'आखिर क्यों'सिर्फ सूरत दी सीरत नहीं..भगवान इंसान की कामयाबी से डर गया था साथ ही उसकी गद्दारी से भी...मतलब साफ है'आखिर क्यों'के साथ नकारात्मक बातें कम जुड़ी हैं..'आखिर क्यों' नहीं होता तो विज्ञान नहीं होता,इतिहास नहीं होता,सामज में अच्छा-बुरा का भेद नहीं होता,पुरूष और महिला में भेद नहीं होता..इंसान और जानवर में फर्क नहीं होता..और सबसे बड़ी बात कि भगवान और इंसान में कौन बड़ा इसे भी समझने में भूल होती..
'आखिर क्यों' के साथ आपने जिन शब्दों का प्रयोग किया दरअसल इसका महत्व वैसे लोगों के लिए हो सकता है जो जिंदगी को बहुत ही कुटिलता के साथ देखता है..लेकिन वैसे लोगों के लिए बिलकुल नहीं जिसके लिए जिंदगी का मतलब क्रिस्टल की रोशनी है..जिधर देखो उधर ही प्रकाश है..अपनी सोच में थोड़ा ठंडा पानी डालिये और फिर देखिये 'आखिर क्यों'का कितना बड़ा मतलब है..तालाब की परिभाषा तो गांव का गनुआ धोबी भी कर सकता है..सागर को समझाने के लिए समंदर की सैर जरूरी है...गौरी शंकर.

Unknown said...

गौरी शंकर जी का कमेन्ट पसंद आया सही बात है की गाँव का गनुआ धोबी भी तालाब के बारे में बता सकता है सत्य को जानने के लिए तो "क्यों " की कश्ती लेकर सोच के गहरे समुन्दर में उतरना पड़ता है. सिद्धार्थ जी की बात जायज़ है इस पर तो बहस होनी चहिये. राकेश जी के "डॉली आंटी" वाले आर्टिकल पर कमेन्ट करते हुए सिद्धार्थ जी ने एक मुद्दे पर वाद-विवाद के लिए जोर दिया था जिसमे बहस की काफी गुंजाइश थी तब नहीं हुई पर भाई अब तो होनी चाहिए

Meenakshi Kandwal said...

गौरीशंकर जी आपका कमेंट अच्छा लगा। मन को भाएगा भी ज़रुर, आखिर सकरात्मक और फील गुड फैक्टर से ओतप्रोत जो है। लेकिन फिर भी मैं ये कहना चाहूंगी कि ज़िदंगी गुलाबों से बिछा रास्ता नहीं है। और जब कांटे चुभते हैं तो तकलीफ़ होती है। और अगर ये कांटे आपके रास्ते में कुछ नासमझ बोए जा रहे हैं, तो ये आपका हक़ है कि आप ज़िंदगी के रास्ते पर लहूलुहान होने की बजाए, आत्मरक्षा के कदम उठाएं। इसलिए ज़रुर कहना चाहूंगी कि
"LIFE IS BEAUTIFUL... *Condition Apply"

GAURI SHANKER said...

”If you think you can, you are right. If you think you can’t, you are also right”In fact this is the basic philosophy where anyone correct themselves through different ideas, notions and sermons. Paths of our life become smooth by parasite ideas but become frictional by un-conditional act and notions. So I agree with this line---" Life is beautiful--but conditions prohibited”.

SWETA TRIPATHI said...

बिल्कुल ठीक कहा आपने मिनाक्षी जी लेकिन क्या आपने इस बात पर कभी गौर नहीं फरमाया की क्या आप क्यों से मतलब नहीं रखती क्या आप दूसरों की जिंदगी में ताक झांक नहीं करती...क्या आपके इर्द गिर्द जो लोग है वह किसी की जिंदगी में ताक झांक नहीं करते लिखने से पहले अपने आप को समझो तो आपको आपको अपने क्य़ों का जवाब खुद ही मिल जाएगा...

SWETA TRIPATHI said...

आपने बहुत सही बात लिखी क्यों हम दूसरो की जिंदगी में ताक झांक करते है लेकिन आप भी कहीं ना कहीं इस फितरत से ताल्लुक रखती है..इसलिए हर बात लिखने से पहले अपने आप पर भी थोड़ा गौर फरमाया करे क्योंकि कई बार जो चींज जितनी मासूम होती है उसकी हकीकत उतनी ही बुरी होती है

Meenakshi Kandwal said...

श्वेता जी अच्छा लगा कि आपने मेरे लेख को पढ़ा। लेकिन अगर आप और ध्यान से पढ़ती तो समझ पाती कि मैंने बात दूसरों की ज़िंदगी में "गैरज़रुरी" दख़ल की। वो गैरज़रुरी दखल जो आपकी सोच को कुछ घटिया दायरों में बांध देता है। और आपकी सलाह कि पहले ख़ुद को समझना चाहिए, तो मैं ये कहना चाहूंगी कि ख़ुद को समझने की प्रकिया (i.e ongoing process) में ही मैंने इस "आख़िर क्यों" को समझा। और समझने के बाद ही मैं इस निष्कर्ष पर पहुंची हूं कि ज़िंदगी के और भी बहुत से अहम कामों को अंजाम देना है तो क्यों दूसरों की जिंदगी में क्या घट रहा है, ये सोचकर वक्त बर्बाद किया जाए। हम एक समाज में जीते हैं तो आपस में एक जुड़ाव होना भी लाज़िमी है, लेकिन अगर वो जुड़ाव आपको एक इंसान के तौर पर बेहतर बनाने वाला होना चाहिए। आपके दूसरे कमेंट की बात को ठीक से समझ नहीं पाई कि आप मासूमियत की हक़ीकत से आपका क्या तात्पर्य है। लेकिन अगर आपको सचमुच में मासूमियत की हक़ीकत बुरी नज़र आती है, तो शायद आजतक आप मासूमियत की हक़ीकत से वाक़िफ़ ही नहीं हो पाई। क्योंकि मासूमियत की मह़ज़ एक ही हक़ीकत होती है कि वो "मासूम" है।

jyotish ka sach said...

Mr Rakesh,
ur opinion is excellent and relevent in this modern context,but please make us know about the duties and religion(nature)of a person so that we can get rid of this habit ,i.e.,nature.
Good comment...............Appericiable

Neelesh K. Jain said...

Hi Dear Rakesh
Nice to catch you on blog..this is Neelesh Jain your old friend. Presently I am in Mumbai and working as Sr. Creative Consultant with Ogilvy & Mather Advertising Agency under the great patronage of Mr. Piyush Pandey. You give me your mail id to share few wonderful golden moments of our past (Lali mere lal kl)
Neelesh Jain
neelesh.nkj@gmail.com
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