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'लौ' रौशन हो रही थी...

एक लौ रौशन करना मक़सद था..।
याद आ रहे थे पिछले साल के वो लम्हें जब आंखों से शहीद एनएसजी मेजर संदीप उन्नीकृष्णन के पार्थिव शरीर पर उनकी मां को बदहवास, रोते-बिलखते देखा था... उन इमोशन्स को कैश करवाने के लिए मुझे दृश्यों को "लुका-छिपी बहुत हुई, सामने आ जाना... कहां-कहां ढूंढा तुझे, थक गई है अब तेरी मां" गाने के साथ एडिट करवाने का आदेश मिला..। मेरे दोस्त मुझे बेहद मज़बूत दिल और कभी न रोने वाली लड़की के तौर पर जानते हैं लेकिन इस काम को करते वक्त कितनी बार दिल रोया.. कितनी बारे आंखें छलकी और कितनी बार लंबी सांस लेकर ख़ुद को संभाला.. मैं ही जानती हूं..।
26/11 की बरसी पर उन यादों को मोमबत्ती की लौ में रौशन देखना चाहती थी..।
जानना चाहती थी कि दिल्ली के दिलवाले कैसे 'ख़ामोशी' के साथ आवाज़ बुलंद करते हैं..। इसलिए रात को दफ़्तर से जल्दी छुट्टी लेकर इंडिया गेट की तरफ़ रुख़ किया..। ऑटो मैं बैठी थी लेकिन मन जैसे ख़्यालों के बोझ से मनभर हुआ जा रहा था... मैं क्या करुंगी वहां, क्या किसी से मेल-मुलाकात या बातचीत करुंगी, ख़ामोशी से उस लम्हें को महसूस करुंगी या फिर बस मोमबत्तियां जलाकर वापस लौट जाऊंगी..। लेकिन जैसे ही इंडिया गेट दिखाई दिया और मैं ऑटो से उतरकर उसके क़रीब पहुंची तो ख़्यालों का तूफ़ान थम चुका था..। शान और रौब के साथ खड़े इंडिया गेट की दीवार... और उसके नीचे ख़ुद को बेख़ौफ़ खड़ा पाकर... मन ने सलाम किया उन वीरों को जिनकी बदौलत मुझे वहां खड़े रहने की 'आज़ादी' नसीब थी..। मैं जैसे उस लम्हें में खो सी गई थी, फिर किसी ने अचानक आकर पूछा "Do you want to light a candle", मुझे अचानक याद आया कि हां एक 'लौ' जलाने के लिए ही तो आई हूं मैं..। मैंने उस शख़्स से वो मोमबत्ती ली और ठीक अमर जवान ज्योति के सामने जहां सब लोग मोमबत्तियां जला रहे थे... एक मोमबत्ती जला दी..। सैंकड़ों मोमबत्तियों की रौशनी में मुंबई हमलों के शहीदों की तस्वीर वाला बोर्ड झिलमिला रहा था..। नज़रों ने कहा वाह दिल्ली, मानना पड़ेगा वर्किंग डे पर भी वक़्त निकालकर तुम लोग यहां आए हों..। ख़ैर, नज़रों की ये वाहवाही बहुत देर तक बरक़रार नहीं रही... क्योंकि जब नज़रों ने आसपास के मंजर को थोड़ा और गहराई से समझना शुरू किया तो दिल टूट सा गया..।
चेहरों पर कोई गंभीरता नहीं थी, लोग इंडिया गेट पर अपनी उपस्थिति का सबूत देना चाहते थे, लिहाज़ा इंडिया गेट के हर कोने पर खड़े होकर तस्वीरें खिंचवाई जा रही थी..। पिकनिक स्पॉट की कमी को पूरा करने के लिए चाट-पकौड़ी, आइसक्रीम, चाय-कॉफ़ी, बच्चों के खिलौने और लड़कियों के साज-श्रृंगार का सामान बेच रहे रेहड़ी वाले भी अच्छी-ख़ासी तादाद में मौजूद थे..। मीडिया के कैमरामैन और अखबारों के फोटोग्राफर्स को चिंता थी कि कहीं कोई तस्वीर कैमरे में कैद होने से छूट न जाएं, और रही सही कसर सिगरेट फूंक रहे नौजवानों ने पूरी कर दी..। बस सुक़ून था तो इस बात का कि कम से कम कुछ माता-पिता तो ऐसे थे जो अपने बच्चों को इंडिया गेट पर मोमबत्ती जलाने का मतलब समझा रहे थे, या फिर कुछ बुज़ुर्ग (शायद आर्मी के रिटायर अधिकारी रहे होंगे) जिनकी आंखें मोमबत्तियों के उस नूर को सम्मान के साथ देख रही थी..।
मै किनारे एक मुंडेर पर बैठकर इंडिया गेट को क़रीब से महसूस कर रही थी..। शायद इतने क़रीब से जितना 22 सालों के सफ़र मे कभी महसूस नहीं किया था..। खुले आसमान के नीचे, अनजान चेहरों के बीच... मोमबत्तियों की लौ पर नज़रें टिकाए हुए, मैं कहीं ख़ुद को भी तलाश रही थी..।
रात डूब रही थी.. भीड़ छंट रही थी..। खुले आसमान के नीचे ठंड जैसे बदन का खून जमा रही थी... लेकिन कुछ था जो पिघल रहा था और 'लौ' रौशन हो रही थी..।

--मीनाक्षी कंडवाल

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1 comments:

निर्मला कपिला said...

बहुत रोचक वर्णन है । इन शहीदों को शत शत नमन