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इंशाजी उठो अब कूच करो



इंशाजी उठो अब कूच करो,

इस शहर में जी का लगाना क्या

वहशी को सुकूं से क्या मतलब,

जोगी का नगर में ठिकाना क्या

इस दिल के दरीदा दामन में

देखो तो सही, सोचो तो सही

जिस झोली में सौ छेद हुए

उस झोली को फैलाना क्या

शब बीती चाँद भी डूब चला

ज़ंजीर पड़ी दरवाज़े पे

क्यों देर गये घर आये हो

सजनी से करोगे बहाना क्या

जब शहर के लोग न रस्ता दें

क्यों बन में न जा बिसराम करें

दीवानों की सी न बात करे

तो और करे दीवाना क्या


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4 comments:

Meenakshi Kandwal said...

"दीवानों की सी न बात करे
तो और करे दीवाना क्या"

बेहतरीन बयां किया है..
बस यही हम समझ जाएं तो सारे फर्क़... सारे गिले-शिक़वे फ़ना हो जाएं

निर्मला कपिला said...

जिस झोली में सौ छेद हुए

उस झोली को फैलाना क्य
बहुत सुन्दर रचना है धन्यवाद्

परमजीत सिहँ बाली said...

बढ़िया रचना प्रेषित की है आभार।

Anonymous said...

'शब बीती चाँद भी डूब चला
ज़ंजीर पड़ी दरवाज़े पे
क्यों देर गये घर आये हो
सजनी से करोगे बहाना क्या..'

बेहद खूबसूरत..। हर सिम्त सूरत बदलता चांद अगर न भी मिले..तो उस अचल शुक्र की ख्वाहिश..यही है दीवानगी..