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पापा, जवाब दो ना


अब भी याद है 30 साल
पहले की वो बात
जय करते थे हम उस पार्क में
जहां थे मोर, खरगोशऔर थे बारहसिंघे
एक झरना था, पुल था ,
और था एक हाथी
बहुत बड़ा...

हाथी भी क्या खूब
जिसकी पूंछ से चढ़ते और सूंड़ से थे फिसलते
30 साल बाद पार्क अभी है , लेकिन बदरंग
हाथी है ,पर कमज़ोर
झरने की जगह बचा है, तो एक छोटा नाला
जिसमें पड़ी हैं बेजान सैकड़ों पन्नियां,
सिगरेट के डिब्बे और कंडोम
5 साल के मेरे बेटे के उस सवाल का जवाब
मेरे तो क्या
पूरे शहर के पास नहीं है
गेटकीपर,डिप्टी कलेक्टर , कलेक्टर, सीईओ,
एसपी,एसएसपी,और यहां तक कि डिविज़नल कमिश्नर
तक के पास नहीं
बेटे का सवाल था...
पापा.......वो बत्तखें कहां हैं जिनकी
कहानी तुम रोज़ सुनाते हो
जो कभी टहलती थीं किसी झरने में
जहां पानी होता था, हिरन चौकड़ी भरते थे
खरगोश थे ... उजले से,
साही भी था कांटों वाला
और था एक पत्थर का काला हाथी
क्या झूठी थी कहानियां...???

अफसरों से लदे इस शहर में
मैं मूक हूं
किससे पूछूं इसका जवाब
इसलिए सिर्फ कहता हूं
आप अगर इलाहाबाद के किसी
घर से पढ़ लिख कर बने हों कोई अफ़सर
और खेले हों कभी उस काले हाथी की गोद में
तो एक बार ज़रूर जाइएगा वहां
बचपन के रंगीन सपनों को
बदरंग हुआ
ज़रूर देखिएगा
ये विरासत शायद आपने ही
छोड़ी हो
अपने बच्चों के लिए

-----इलाहाबाद से स्कंद शुक्ला


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6 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत जबरदस्त संदेश दिया है, बहुत बधाई.

डॉ .अनुराग said...

bahut badhiya sandesh......

बालकिशन said...

पीडा को शब्द दिया आपने.
आभार.

Unknown said...

Skand, nice message...best wishes for the park...
Ujjwal, occasional visitor of Allahabad during C-91 days :)

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

हाथी पार्क घूमने का आकर्षण बच्चों में अभी भी बना हुआ है तो इसलिए कि वे भोले बच्चे हैं। नहीं तो इलाहाबाद के बड़े लोग इसे इतिहास में दफन मान चुके हैं। जब मैं यहाँ पढ़ने आया था तो गाँव-गिराँव से आने वाले परिजनों, रिश्तेदारों आदि को संग्रहालय के साथ-साथ हाथी पार्क भी दिखा लाता था। उन्ही दिनों इसकी देखभाल में गिरावट आनी शुरू हो गयी थी। जी.टी.रोड से लगा हुआ यह बच्चों का पार्क अनेक अवांछित तत्वों की अड्डेबाजी का केन्द्र बन गया। उन दिनों इसके दूसरी ओर स्थित एक नामी छात्रावास के बदनाम अन्तःवासियों की करतूतों की चर्चा से पार्क को ‘न जाने लायक’ बताया जाता था। वहीं चौराहे पर भोर के समय अनेक बाहरी छात्र अपने घर से छुट्टी बिताकर लौटते हुए राशन इत्यादि के साथ बस से उतर कर रिक्शे पर अपने ‘कमरे’ की ओर जाते हुए अपना रुपया-पैसा व घड़ी इत्यादि लुटवा लेते थे।
अभी जब यहाँ तैनाती होने पर दुबारा आया तो एक दिन बच्चों को वहाँ ले गया था। वहाँ शहर के समझदार लोगों की संख्या नगण्य थी। दूर-दराज के देहाती लोग जरूर नया साल मनाने वहाँ आये हुए थे। सबकुछ वैसा ही था जैसा ‘स्कन्द की कविता’ में चित्रित है।
बस गनीमत यह थी कि मेरी बेटी ने वैसा कोई सवाल नहीं पूछा जिसका उत्तर देना मुश्किल हो। यह इसलिए कि मैने उसे परीकथा जैसी कोई कहानी नहीं सुनाई थी।

राकेश त्रिपाठी said...

सिद्धार्थ भाई

असल में गहराई से सोचें तो लगता है कि आज के वक्त में जब टीवी-रेडियो पर खबरों के अलावा सब कुछ दिखाते हैं, बच्चों के लिए रह क्या जाता है। इसलिए स्कंद शुक्ला ने अपनी सरकारी नौकरी में मसरूफ रहने के बाद भी परीकथाएं सुनाईं तो शायद इसीलिए कि उनके पास विकल्प ही नहीं था...अब , जब बच्चे वक्त से पहले बड़े हो रहे हैं, बचपन कहीं खो न जाय, शायद ये रही हो वजह।