अमा यार, आप लोगों ने वो हैवी वाला डायलोग सुना है. ‘जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो.’ यार निकाल तो दें, पर परेशानी ये है कि अखबार से तोप का कनेक्शन पल्ले नहीं पड़ रहा. अमा छोड़िये तोप को, हमें तो इतना बता दीजिए, कि जब सामने सफेद टोपी और गेरूए लिबास में तोपची खड़े हों तो क्या किया जाय. तोप कोई बड़ी चीज नहीं है. बड़ी चीज है तोपची. वो भी ऐसे वैसे नहीं, हल्ला मचाते- आग लगाते- हुड़दंगी जमात के खतरनाक तोपची. अबकी नसल में ये पौध खूब हुई है. तोप के छर्रे तो हमारे पुरखों ने खूब छाती पर झेले हैं, फिर भी हम यहां बकतोली के लिए बचे रह गये. पर ये जो पुराने ठंग के नये तोपची आ गये हैं, इनका इलाज नजर नहीं आ रहा. अब हम खबरी टाइप इंसान निकाल लें अखबार. तो क्या होगा. बड़े ही जाहिल गंवार टाइप जमात है इन तोपचियों की. पहले तो कुछ सुनते ही नहीं. सिर्फ कहते हैं. माइक वालों से. अखबार वालों से. टोपी वालों से. बंदूक वालों से. पजामे वालों से. नेकर वालों से. ये लोग बस बोलना जानते हैं. अब चचे तुम ही बताओ क्या कर लेगा अखबार और क्या कर लोगे तुम. अच्छा चलो, हिम्मत भी की और उनकी बोलती पर तुमने अपनी कहनी-पूछनी शुरू कर दी तो पहले तो तुम्हारे जूते उतारेंगे. फिर तुम्हारे पैरों के सामान से पटापट तुम्हारा ही शीर्षाभिषेक करेंगे. बच आओ तो तुम्हारा भाग्य, नहीं तो उनका आंदोलन. रह गया तुम्हारा अखबार तो हां वो उनके काम आ जायेगा. उन तोपचीयों में कुछ कुशल शिल्पकार होते हैं जो किसी भी वक्त उन अखबारों को बांस की दो खपच्चियों पर गुत्थम-गुत्था करके एक जैसे आकार-प्रकार वाले पुतले बनाने में माहिर होते हैं और दूसरे उस पर बड़े सम्मान से तुम्हारी ही स्याही, (नहीं तो बूट-पॉलिश) से उस पर बड़े बड़े कर्णिम अक्षरों से दूसरी पार्टी वाले किसी भी महानुभाव का सादर नाम लिख देते हैं. और फिर कभी सरेराह, नुक्कड़- चौराहे पर दशहरे का प्री रिहर्सल या फिर किसी प्रिय के अंतिम संस्कार की पूर्व पैक्टिस. सब कुछ चालू है, अब ये बताओ कि अखबार निकालकर क्या करें. हम लिखें और खुदा बांचे तो क्या फायदा. सब पर काम है पर हम खबरियों की परेशानी कोई समझने को तैयार ही नहीं. अगर अखबार निकालना है तो बकौल बड़े बुजुर्ग पहले मुकाबिल तोपें ढूंढनी होंगी. और फिर अखबार की फ्रंट पेज लीड और संपादकीय ठूंस ठूंस कर उनकी नाल बंद करनी होगी. इस संपादकीय रिस्क के लिए न तो इग्नू अलग से स्पेशलाइज्ड रिस्क मैनेजमेंट कराती है और न ही एल आई सी सरे चौराहे इन तोपचियों से मुकाबले के लिए कोई इंश्योरेंस पॉलिसी देती है. हम बेचारी अबला खबरिया जात के लिए कोनूं आरक्षण-वारक्षण है कि नाहीं. अरे कोई आंदोलन वांदोलन करो यार. नहीं आता तो इन तोपचियों से ही पूछ लो. इन्हें सब रास्ते पता हैं.
देवेश वशिष्ठ खबरी
9811852336
आपने आज तहलका पढ़ा या नहीं?,- ये लेख तहलका पर देखें.- http://hindi.tehelka.co.in/stambh/anyastambh/fulka/116.html
अखबार तो निकाल दें, पर तोप कहां ढ़ूंढें?
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मैं गूंगा हूं
'घर का सारा काम कराती हैं और तीन घंटे बाद छोड़ती हैं मेमसाब... '
'क्या क्या काम करती हो बेटा वहां ' मेरे पसीज उठे मन ने सवाल पूछा।
'झाड़ू-पोंछा,घर के सब लोगों का कपड़ा धोना, खाना बनाना... ' एक चुप्पी के बाद उसने मुंह खोला ।
मेरे पास पूछने के लिए कोई सवाल नहीं था-जवाब तो खैर क्या होता...लेकिन मुझे उसकी शक्ल में अपनी बेटी नज़र आ रही थी। वो हमारे घर काम करने वाली बाई की बेटी थी....और हमारे अपार्टमेंट्स में रहने वाले पाठक जी के घर काम करती थी। पाठक जी के घर पर उनकी मां का राज था और आज बारिश में उन्होंने इस बच्ची से जमकर कपड़े धुलवाए थे....अपने सूजे हुए नन्हें गुलाबी हाथ वो दूसरे हाथ से सहला रही थी....मौन थी लेकिन मुझे लगता था कि सवाल पूछ रही है.....हम सब से....लेकिन हममे से किसी को कुछ सुनाई नहीं दे रहा। मुझे लगा -मैं बहरा हो गया हूं...मुझे सिर्फ अपने मतलब की बातें सुनाई पड़ती हैं...बच्चों की फीस, उनके बर्थ डे गिफ्ट्स,कार का एसी बनवाना, घर का ईएमआई...नये घर का लोन सैंक्शन करवाना...और अपने बच्चों की..हां ...अपने बच्चों की सारी ज़िदें पूरी करना। लेकिन फिर भी मैं बहरा हूं...क्योंकि मुझे ख्वामख्वाह तंग करने वाली आवाज़ें अच्छी नहीं लगतीं....आवाज़ें ... जो मुझे अपने छोटेपन का अहसास दिलाएं
सब ढंक गया
जिसके हो चले हैं अब ठाठ
वहाँ पक्की, मजबूत सीढ़ियाँ
देख कर ठिठक गया
नदी किनारे की वो बालू की जमीन,
उस जमीन पर बना
दो जोड़ी पैरों का निशान,
सब ढक गया
यहीं तो थी कभी गीली-दलदली जमीन,
जिसके पास ही उसने सूखी
और साफ जगह दिखायी थी
थोड़ी देर शान्त और एकान्त बैठकर,
अपनी बात सुनाने को,
उसने अपने दुपट्टे की चादर बिछायी थी
वो यही जगह थी
वो था एक कठिन दौर,
जब वह अपनी कमज़ोरियां कहें,
या कायरता मिटा न सका थाघर–परिवार के सपने तोड़कर
अपने मदमस्त
सपने सच करने का
हौसला न जुटा सका
उनके बीच की
डोरतनती जा रही थी।
प्यार के सपनों की राह
पर दुनियादारी की
दीवारबनती जा रही थी।
दुनिया से हारकर दोनो
ने समेट ली अपनी दुनिया
दूर हो जाएंगे, यह जान कर
एक दूसरे को मन ही
मनभेंट लिया था।
फिर भीबैठे रहते थे,
ठहरी हुई यमुना के किनारे,
मुट्ठी भर समय को पकड़कर।
जैसे रोक ले कोई,
पानी से भींगी रेत कोमुट्ठी में जकड़कर।
इस आस में,कि जब तक पानी है,
यह रेत मुट्ठी से नहीं निकलेगी।
मानो यहाँ की गहरी यमुना चंद
कदम चलकर,वेगवती गंगा में नहीं
आस को जिन्दा करने की उम्मीद में,
उन्होंने समय की उस रेत मेंआँखों का
पानी भी मिलाया था
लेकिन होनी तो
होनी ही थी,
अँधेरा घना हुआ, वे लौट गये,
यमुना का पानी गंगा में जा समाया था ।
--सिद्धार्थ शंकर
(सिद्धार्थ एक बड़े अफसर हैं..लेकिन लाल फीतों वाली भूरी सरकारी फाइलें उनके मन के कवि को ख़त्म नहीं कर पाईं..उनकी इस कविता ने इलाहाबाद से जुड़ी मेरी भी वो यादें ताज़ा कर दी हैं..जो उनके अनुभवों से मिलती जुलती हैं..और कहीं अब भी उस अद्भुत शहर की हवाओं में मौजूद हैं)
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