जिसके हो चले हैं अब ठाठ
वहाँ पक्की, मजबूत सीढ़ियाँ
देख कर ठिठक गया
नदी किनारे की वो बालू की जमीन,
उस जमीन पर बना
दो जोड़ी पैरों का निशान,
सब ढक गया
यहीं तो थी कभी गीली-दलदली जमीन,
जिसके पास ही उसने सूखी
और साफ जगह दिखायी थी
थोड़ी देर शान्त और एकान्त बैठकर,
अपनी बात सुनाने को,
उसने अपने दुपट्टे की चादर बिछायी थी
वो यही जगह थी
वो था एक कठिन दौर,
जब वह अपनी कमज़ोरियां कहें,
या कायरता मिटा न सका थाघर–परिवार के सपने तोड़कर
अपने मदमस्त
सपने सच करने का
हौसला न जुटा सका
उनके बीच की
डोरतनती जा रही थी।
प्यार के सपनों की राह
पर दुनियादारी की
दीवारबनती जा रही थी।
दुनिया से हारकर दोनो
ने समेट ली अपनी दुनिया
दूर हो जाएंगे, यह जान कर
एक दूसरे को मन ही
मनभेंट लिया था।
फिर भीबैठे रहते थे,
ठहरी हुई यमुना के किनारे,
मुट्ठी भर समय को पकड़कर।
जैसे रोक ले कोई,
पानी से भींगी रेत कोमुट्ठी में जकड़कर।
इस आस में,कि जब तक पानी है,
यह रेत मुट्ठी से नहीं निकलेगी।
मानो यहाँ की गहरी यमुना चंद
कदम चलकर,वेगवती गंगा में नहीं
आस को जिन्दा करने की उम्मीद में,
उन्होंने समय की उस रेत मेंआँखों का
पानी भी मिलाया था
लेकिन होनी तो
होनी ही थी,
अँधेरा घना हुआ, वे लौट गये,
यमुना का पानी गंगा में जा समाया था ।
--सिद्धार्थ शंकर
(सिद्धार्थ एक बड़े अफसर हैं..लेकिन लाल फीतों वाली भूरी सरकारी फाइलें उनके मन के कवि को ख़त्म नहीं कर पाईं..उनकी इस कविता ने इलाहाबाद से जुड़ी मेरी भी वो यादें ताज़ा कर दी हैं..जो उनके अनुभवों से मिलती जुलती हैं..और कहीं अब भी उस अद्भुत शहर की हवाओं में मौजूद हैं)
1 comments:
लेकिन होनी तो
होनी ही थी,
अँधेरा घना हुआ, वे लौट गये,
यमुना का पानी गंगा में जा समाया था ।
-वाह, अद्भुत!! सिद्धार्थ जी की रचना पेश करने का आभार.
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