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कई निगाहे हैं... उनमें में एक पुराने गुलदस्ते के सूखे गुलाब पर टिकी है... लेकिन एक वहां से हटकर किताबों की बेतरतीब अलमारी में कुछ ढूंढ रही है... इस निगाह को वो लावारिस खत नहीं मिल पा रहे हैं जो आवारगी के दौरान लिखे गए और वो बंजारे खत इन किताबों के हुजूम में कहीं छिपा दिये गए... अब ढूंढने से भी नहीं मिलते... बिस्तर पर कुछ गर्म सलवटें लेटी हैं... जिंदगी भर का आलस एक साथ अंगडाई ले रहा है... एक सलवट दूसरी को छू रही है... वो छुअन बहुत हसीन है...

अलाव है... आग है... सर्दी का मौसम है... हाथों की गुस्ताखी है... हाथ आग को चेहरा दिखा रहे हैं... एक शॉल में दुबकी दो जान बैठी हैं... एक के हाथ में पुरानी डायरी है... दूसरे के होठों पर प्यार के गीत हैं... बारिश हो के चुकी है... मौसम विज्ञानियों से बिना पूछे ही कोयले वाला बता गया है... कि बर्फ गिरेगी... बुरांश पर फूल नहीं आये हैं... बुरांश को न्यौता है... बर्फ नाज़ुक है... बुरांश पर झरने लगी है...

डायरी के पन्ने कई दिनों बाद उलटे हैं... हर पन्ने पर तारीख है... हर गीत में एक कहानी है... डायरी के पन्ने उड़ रहे हैं... शाल में दुबकी दो जान एक ही दिन में कई तारीखें पढ़ लेना चाहती हैं... आज की रात की कहानी फिर कभी गीत बनेगी... डायरी खुश है... जैसे आज के ही दिन के लिए सारे अर्से गीत बने थे...

एक जान को नींद आ रही है... वो दूसरी जान की गोद में लेट गई है... एक जान सो गई है... दूसरी सोना नहीं चाहती... आग को चेहरा दिखाता दूसरी जान का एक हाथ नर्म हो गया है... अब वो बालों में गुदगुदी कर रहा है... वो छुअन बहुत देर तक नहीं थकती... वो छुअन बहुत हसीन है...

बिस्तर की नर्म सलवटें अकेली हैं... नींद टूट गई है... चिपचिप है... उमस है... दिल्ली की गर्मी है... बिजली चली गई है... एसी बंद हो गया है... किताबें बेतरतीब हैं... एक निगाह फिर सूखा गुलाब देख रही है... दूसरी बेतरताब अलमारी पर अटकी है... एक पुरानी डायरी है... आग को चेहरा दिखा दिखाने वाले कठोर हाथों में आ गई है... गर्मी में पुरानी डायरी पंखा बन गई है... ज़ोर ज़ोर से हिल रही है... पंखे की तरह झल रही है... डायरी के पन्ने कई दिनों बाद उलटे हैं... हर पन्ने पर तारीख है... हर गीत में एक कहानी है... पन्ने जोर जोर से हवा में उड़ रहे हैं... हवा कर रहे हैं... डायरी से कुछ पन्ने रूखे फर्श पर गिर पड़े हैं... निगाहों की तलाश खत्म हो गई है... बंजारे खत मिल गए हैं... बेकारी का दौर है... दोपहर है... जिंदगी भर का आलस एक जान में भरा है...
इन दोपहरों की कहानी गीत नहीं बनती... खत वापस डायरी में ठूंस दिये गए हैं... डायरी फिर भर गई है...

देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9952717705

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1 comments:

Meenakshi Kandwal said...

वाह, बेहतरीन..। उर्दू शब्दों के इस्तेमाल ने लेखक के विचारों को ऐसा उभारा है कि पूरा लेख किसी फिल्म की तरह दिमाग में चल रहा है..।
"दोपहर के गीत नहीं लिखे जाते"... अद्भुत !