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मैं तुममें खप गया हूं... (कॉन्ट्राडिक्शन- 3)


-तुम्हें जुकाम हो गया है.
-कल भीग गया था-
-कब?
-जब पहली हिचकी आई थी रात को- उसके बात सोने नहीं दिया तुमने- बहुत बारिश हुई- तकिया गीला हो गया था-
-तो मैं नहीं आऊंगी आज तुमसे मिलने- पर तुम्हें तो बुखार हैं- तुम भी ना, जरा भी खयाल नहीं रखते अपना-
-पर वो काम तो तुम्हारा है- मुझे तो हमेशा तुम्हारा खयाल रहता है-
-तुम हो कहां अभी ?
-आई पॉड में जा छिपा हूं- दोनों कानों में ठूंस लिये हैं ईयर फोन- कि तुम्हें न सुन सकूं
-तो मैं जाऊं?
-तुम हर पल पूछती हो. और मैं हर बात कहता हूं- जाओ ना,
-फिर तुम क्यों बुलाते हो?
-तुम जाती क्यों नहीं हो.
-कितने कठोर हो ना तुम
-हां, पहाड़ की तरह
-उफ़, फिर पहाड़… तुम उतर क्यों नहीं आते मैदानों में
-और तुम क्यों नहीं चली जाती वापस, पहाड़ों में
-देव, अब पहाड़ मैले हो गये हैं- सावन पिछली बार भीग गया था- अबकी नहीं आया- पिछली बर्फ को भी सर्दी लग गई थी- अबकी बुरांश के पेड़ रूठ गये हैं- देवदार ठूंठ बन गये हैं- जिस नदी के किनारे पानी में पैर डालकर तुम मेरे बालों से चुगली किया करते थे, वो अब झील बन गई है- घाटी में बहुत सी मिट्टी जमा हो गई है- सुना है वहां एक बड़ा बांध बनने वाला है- सब डूबने वाला है- ये पहाड़ दुखता है-
-लेकिन तुम्हें तो पहाड़ अच्छे लगते थे ना बिट्टू-
-लगते थे, पर सिर्फ तुम्हारे साथ- अब नहीं देव.
-तुम कुछ खाओगी- ये काली रातें तुम्हें डराती नहीं हैं- इतनी दूर से रोज तुम कैसे आ जाती हो मेरे पास- रास्ते में कोई नहीं पकड़ता तुम्हें... मुझे डर लगता है-
-देव मेरे पास एक सेब है- दोनों खाएंगे- आधा आधा
-नहीं मुझे खट्टा दही खाना है- मम्मी से झगड़ना है
-तुम अपनी मम्मी से इतना झगड़ते क्यों हो देव-
-तुम मेरी मम्मी में घुस जाती हो- जब वो लाड़ करती हैं तो तुमसे लड़ने का मन करता है- तुम तो चुड़ैल हो ना
-और तुम मेरे पायलेट
-तुम्हें याद है-
-हां याद है, लेकिन जोर से मत बोला करो- सब समझ जाते हैं-
-मुझे तुम्हारी खुशबू चाहिये- सफेद बादल को दे देना- वो आकर मेरी आंखों में बैठ जाता है-
-और तुम अपनी मीठी सी हंसी मुझे भिजवा देना- उसी बादल को लौटा देना चलते वक्त- वो मेरे दिल में बैठा जाता है- भेजोगे ना-
-देव, मुझसे कुछ कहो ना-
-जो मैं कहूंगा, वो तो तुम्हें पता है-
-हां मालूम है- पर एक बार ऐसे ही सुनने का मन कर रहा है-
-मैं नहीं कहूंगा- सब सुन लेंगे- लौटते बादलों के कान में कह दूंगा- तुम उनसे पूछ लेना-
-देव मेरे साथ घूमने चलो-
-कहां-
-नील नदी के पास-
-तब ?
-जमीन के नीचे नीचे बहना मेरे साथ- झील फिर नदी बन जाएगी- और किसी को दिखाई भी नहीं देगी-
-लेकिन उसकी मछलियों का क्या?
-वो गुदगुदी करेंगी तुम्हारे पांवों में-
-लेकिन उसका पानी तो ठंडा होता होगा ना- तुमने जो सपना बुना था, वो पूरा हुआ या नहीं- मुझे तुम्हारा सपना ओढ़ना है-
-नहीं इस बार मैंने सावन बुना है- आंखों में उतर आया है वो- उसी से निकलती है नील नदी- कभी छिपी, कभी उघड़ी...
-और तुम्हारी सलाईयां, जिनसे तुम सपना बुनती हो- उन्हें तुम अपने बालों में लगा लेना- मैं तुम्हारी तस्वीर उतारूंगा- चीन की दीवार पर
-पर वहां तो प्लेन से जाना होगा ना- और वीजा भी बनवाना पड़ेगा, तुम कैसे जाओगे?
-तो नहीं जाऊंगा- नहीं उतारूंगा तुम्हारी तस्वीर- पर फिर तुम्हें हर वक्त मेरे सामने रहना होगा- फिर तुम मुझे याद मत करना- ये हिचकियां मुझे मार देती हैं-
-देव तुम बदल गए हो- कब से?
-जबसे नमस्ते बात खत्म करने के लिए और शुक्रिया ताना मारने के लिए इस्तेमाल होने लगा है- तबसे मैं भी बदल गया हूं- -------------------------------

मुझे यहां नहीं रहा जाता- मुझे कहीं और जाना है- किसी दूसरी जगह- नहीं- किसी दूसरे वक्त में-
किस वक्त में जाना चाहते हो ? किसके पास?
भगत सिंह के पास- सुखदेव और राजगुरू के पास- उनके वाले स्वर्ग में-
उनके स्वर्ग में? तो क्या उनका कोई अलग से स्वर्ग होगा? क्या वहां ज्यादा ऐशोआराम होगा-
हां उनका स्वर्ग अलग है- उस स्वर्ग से सभी देवता भाग गये हैं- इंद्र का सिंहासन हिला दिया है- वहां जगह जगह फांसी के झूले हैं- वहां फांसी पर झूलने वालों की लंबी कतार लगी है- भगत बार बार हिन्दुस्तान की तरफ देखते हैं- फिर मेरी और तुम्हारी तरफ देखते हैं- और भागकर फिर फंदे पर झूल जाते हैं- पर इस बार भगत की जान नहीं जा रही है- भगत के भीतर कुछ छटपटा रहा है- भगत के पांव बहुत देर तक तड़पते रहते हैं- सुखदेव और राजगुरू भी छटपटा रहे हैं- बड़ा बेचैन माहौल है- भगत का तड़पना बंद होता है तो वो मुझे फिर देखते हैं- फिर तुम्हें देखते हैं- सुखदेव और राजगुरू रोना बंद कर देते हैं- जोर जोर से आवाज लगाते हैं- लेकिन मुझे सिर्फ तुम्हारी आवाज सुनाई देती है-

वो दिन बड़े लम्बे होते थे... सूरज सारी गर्मी से देव को झुलसाना चाहता था और देव के वो पूरी ताकत से लड़ने के दिन थे... मायानगरी से लेकर राजनगरी तक में धक्के खाना उन दिनों देव की ड्यूटी हो गई थी... कठोर दिन और निष्ठुर रातें... पर देव की सनक के आगे सब कट गये... धीरे-धीरे... मुझे न तो भगत सिंह की आवाज सुनाई दी, और ना ही राजगुरू की तड़पन... अब तक मैं खप चुका था.

देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9953717705

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1 comments:

अपूर्व said...

देवेश जी आपका यह कॉन्ट्रडिक्शन जान ले लेगा अब हमारी..पढ़ना शुरू करता हूँ सहजता के साथ..और जैसे-जैसे आगे बढ़ता जाता हूँ..और एक बुखार सा जकड़ता जाता है जेहन को धीरे-धीरे..और एक खामोशी जो कम्बख्त लिहाफ़ बन कर लिपट जाती है बदन से..घंटो तलक
जब आप यह लिखते हैं
सावन पिछली बार भीग गया था- अबकी नहीं आया- पिछली बर्फ को भी सर्दी लग गई थी- अबकी बुरांश के पेड़ रूठ गये हैं- देवदार ठूंठ बन गये हैं- जिस नदी के किनारे पानी में पैर डालकर तुम मेरे बालों से चुगली किया करते थे, वो अब झील बन गई है- घाटी में बहुत सी मिट्टी जमा हो गई है- सुना है वहां एक बड़ा बांध बनने वाला है- सब डूबने वाला है- ये पहाड़ दुखता है

तो न हमारे आज की न जाने कितनी सच्चाइयाँ सामने आ कर खड़ी हो जाती हैं..पलंग के नीचे से निकल कर.
और जब इसे पढ़ता हूँ
... धीरे-धीरे... मुझे न तो भगत सिंह की आवाज सुनाई दी, और ना ही राजगुरू की तड़पन... अब तक मैं खप चुका था.
तो एक पूरी पीढ़ी की दास्ताँ सामने आ जाती है..
कुछ कुछ ऐसा ही जया जादवानी की कहानियाँ पढ़ कर महसूस होता था..और ब्लॉग जगत पर अपने गौरव सोलंकी साहब का अण्दाजे-बयाँ भी ऐसी ही फ़ीलिंग देता है..पता नही इतना बेहतर होने के बावजूद इतना पर्दे के इतना पीछे क्यों रहता है आपका ब्लॉग.