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रमता जोगी, बहता पानी




रमता जोगी, बहता पानी
तेरी राम कहानी क्या...
आहट-आहट, चौखट-चौखट
बैरी नई पुरानी क्या...?

रातों के लम्हे भी मुझको
बिल्कुल वैसे ताजे हैं...
जैसे साखी, सबद, सवैये
कोई प्रेम कहानी क्या... ?

सागर, पत्ते, हवा, पहाड़ी
नदियां अभी रवानी हैं...
लेकिन सारी बातों मुझको
तुझको सुनी सुनानी क्या...?

आते जाते, रुकते चलते
अब भी नश्तर चुभता है...
जब जब कह देता है कोई
गा दूं तुझको हानी क्या...?

पागल, पागल होकर देखा
तेरे एक बहाने से
और तभी से दुनिया भर की
मुश्किल मुझको मानी क्या...?


- देवेश वशिष्ठ 'खबरी'

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4 comments:

Udan Tashtari said...

पागल, पागल होकर देखा
तेरे एक बहाने से
और तभी से दुनिया भर की
मुश्किल मुझको मानी क्या...?

-बहुत उम्दा प्रवाहमयी!!

Manojtiwari said...

waha! waha! kya khoob likha hai maan gaye

अपूर्व said...

पागल, पागल होकर देखा
तेरे एक बहाने से
और तभी से दुनिया भर की
मुश्किल मुझको मानी क्या...?

माह के मेले मे हरिद्वार के गंगा सा एक मनोहर, शीतल और बड़ा सहज सा प्रवाह है आपकी इस कविता मे..खासकर शब्द-संयोजन इस कविता को गीत सी मधुरता देता है..

संजय पाराशर said...

बहती नदियाँ हो या रमता जोगी ....... दोनों ही पवित्रता की मिसाल हैं ....अद्भुत रचना...