आज मनमोहन सिंह को कांग्रेस महाधिवेशन में भाषण देते सुना। आम तौर पर मैं नेताओं के भाषण नहीं सुनता क्योंकि मुझे पता है कि वे क्या कहेंगे। लेकिन टीवी चल रहा था तो मैं सुनने लगा। शुरुआत गांधी जी और नेहरू जी की वंदना से हुई, फिर इंदिरा जी और राजीव जी का स्मरण किया, और अंत में सोनिया जी के नेतृत्व के गुणगान के बाद यह मंगलाचरण खत्म हुआ। उसके बाद उन्होंने ईमानदारी के बारे में प्रवचन करना शुरू किया और कहा कि भ्रष्टाचार को बिल्कुल ही बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। मुझसे अब और नहीं सहा गया... क्योंकि थोड़ी देर और सुन लेता तो मुंह से गालियां निकलने लगतीं। मैंने टीवी म्यूट कर दिया।मैं सोचने लगा, आज अगर मनमोहन की जगह पर कोई और होता – प्रणव मुखर्जी, चिदंबरम या कोई और लल्लू-पंजू... तो क्या वह कुछ और कह रहा होता? बल्कि इसे और विस्तार में देखा जाए तो अगर सोनिया गांधी ने मनमोहन सिंह की जगह किसी और रबर स्टांप को प्रधानमंत्री बना दिया होता तो क्या आज देश की अवस्था कुछ और होती?तब भी राजा ने ऐसे ही घोटाले किए होते, तब भी आदर्श सोसाइटी में ऐसी ही धांधली होती, तब भी कलमाड़ी ऐंड कंपनी ने यूंही करोड़ों लूटे होते, तब भी मंत्रिपदों के लिए यूंही मोलभाव हुआ होता, तब भी महंगाई का यही हाल होता, तब भी हर दफ्तर में और चौराहे पर यूंही घूसखोरी होती। आखिर ईमानदार मनमोहन सिंह के कारण देश में क्या परिवर्तन आ गया जो किसी बेईमान नटवरलाल के पीएम बनने से नहीं आता!कई लोग कहते हैं कि अगर ऊपर बैठा हुआ व्यक्ति ईमानदार हो तो नीचे वाले भी ईमानदार हो जाते हैं। लेकिन यहां हम देख रहे हैं कि ऊपर बैठा व्यक्ति ईमानदार है, लेकिन वह अपने नीचेवालों की बेईमानी को देखे जा रहा है या फिर अनदेखा कर रहा है। अब जस्टिस रघुपति का किस्सा लीजिए। केंद्र के एक मंत्री ने उनको फोन किया कि एक केस में हमारे लोगों को बेल दे दीजिएगा। रघुपति ने इसकी शिकायत करते हुए मद्रास हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस को चिट्ठी लिखी जो उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस बालाकृष्णन को फॉरवर्ड कर दी। जस्टिस बालाकृष्णन ने न जाने किस कारण से मंत्री का नाम दबा दिया। उन्होंने कहा कि रिपोर्ट में मंत्री का नाम नहीं था।यह खबर हर अखबार में थी कि जस्टिस रघुपति ने किसी केंद्रीय मंत्री के बारे में शिकायत की है। ठीक है कि मंत्री का नाम खबरों में नहीं था। लेकिन क्या एक ईमानदार पीएम का फर्ज नहीं बनता था कि वह पता करें कि वह मंत्री कौन है जिसने एक जज को धमकी दी है, और यह पता करके उसे मंत्रिमंडल से निकाल बाहर करें।यह तो खैर एक साल पुरानी बात है। अभी हाल का मामला है विलासराव देशमुख का। महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और सेंटर में भारी उद्योग मंत्री। उन्होंने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके कांग्रेस के एक विधायक के पिता की गिरफ्तारी रुकवा दी थी। और यह मैं नहीं कह रहा, सुप्रीम कोर्ट का कहना है। लेकिन अपने ईमानदार प्रधानमंत्री के माथे पर बल तक नहीं पड़ते। वे नहीं कहते कि ऐसे व्यक्ति को मैं अपनी मिनिस्ट्री में नहीं रखूंगा।तो फिर यह कैसे पीएम हैं और उनकी कैसी ईमानदारी है? क्या खुद ईमानदार होना ही सबकुछ है, बेईमानों को रोकने का काम आपका नहीं है? यह तो वैसे ही हुआ कि किसी के बच्चे लोगों के घरों के शीशे तोड़ें और वह बच्चों को रोकने की जगह यह कहे कि मैंने कोई शीशा नहीं तोड़ा और मैं शीशे तोड़े जाने के सख्त खिलाफ हूं। या किसी अखबार के रिपोर्टर पैसे लेकर खबरें लिखें और संपादक कहे कि मैंने तो कभी पैसे नहीं मांगे और मैं पैसे लेकर खबरें लिखे जाने का समर्थन नहीं करता। अगर टॉप के बंदे का बेदाग होना ही एकमात्र क्राइटेरिया है तब तो दाऊद इब्राहीम भी बेकसूर है क्योंकि मेरी जानकारी में उसने खुद तो कभी किसी की जान नहीं ली होगी, यह काम तो उसके गुर्गों ने किया होगा।टीवी स्क्रीन पर अब भी मनमोहन सिंह ही आ रहे है हालांकि अब लाइव नहीं हैं। चैनल उनके भाषण की खास-खास बातों को दिखा रहा है। मैंने टीवी अभी भी म्यूट ही रखा है क्योंकि अब न उनका चेहरा देखकर अच्छा लगता है न ही उनकी बातें। बेईमानों की टीम के इस ईमानदार लीडर को देखकर याद आता है वह दृश्य – किसी मरे हुए कॉक्रोच को बिल तक लेकर जाती हुईं असंख्य चींटियां। दूर से लगेगा कि कॉक्रोच चल रहा है, लेकिन फैक्ट यह है कि चींटियां ही उसे ले जा रही हैं – कॉक्रोच तो मरा हुआ है।तो यह ईमानदार लीडर लीड नहीं कर रहा क्योंकि वह खुद एक निर्जीव कॉक्रोच है जिसे चींटियां जहां चाहें, ले जा सकती हैं। ऊपर से भले ही लगे कि कॉक्रोच खुद ही अपनी दिशा तय कर रहा है, लेकिन हम जानते हैं और मनमोहन सिंह खुद जानते हैं कि असलियत क्या है।हैरत बस इस बात की है कि आखिर मनमोहन सिंह ने एक निर्जीव कॉक्रोच बनना स्वीकार क्यों किया! इस देश में ऐसे अनेक लोग हैं जिन्होंने सत्ता की इस गंदी राजनीति में घुसने से इनकार कर दिया। गांधी जी और जयप्रकाश नारायण कुछ जाने-पहचाने नाम हैं लेकिन उनके अलावा भी हज़ारों लोग हैं जो अपनी जगह पर रहते हुए समाज के लिए कुछ कर रहे हैं चाहे वे किसी भी विचारधारा से जुड़े हुए हों। सही है कि वे प्रधानमंत्री नहीं हैं, मंत्री भी नहीं हैं, अफसर भी नहीं हैं, लेकिन जहां भी हैं, वहां उन्हें आदर मिल रहा है। वे जब रात को सोते होंगे तो इस संतोष के साथ कि वे लोगों का, समाज का कुछ भला कर रहे हैं। लेकिन अपने मनमोहन सिंह जब रात को सोते होंगे तो क्या सोचते होंगे – कि आज मैंने अपनी पार्टी, अपने मंत्रियों और अपने साथियों के कितने पापों को अपनी ईमानदारी की पगड़ी के तले ढकने की कोशिश की। या वह इस कोशिश में दिन-दिन मैली होती अपनी पगड़ी पर उदास होते होंगे…
नवभारत टाइम्स में नीरेंद्र नागर
ईमानदार कॉक्रोच और बेईमान चींटियां...
वाकई भगत सिंह को गांधी ने मारा?
गांधी जी चाहते तो भगत सिंह को बचा सकते थे...नहीं , बल्कि यूं कहा जाए कि गांधी चाहता तो भगत सिंह को बचा सकता था। भगत को चाहने और ' मानने ' वाले लोगों के बीच यह जुमला काफी इस्तेमाल होता है। हालांकि ऐसा कहने वालों में से अधिकतर नहीं जानते कि ऐसा क्यों कहा जाता है और भगत सिंह को गांधी जी कैसे बचा सकते थे। फिर भी लोग ऐसा कहते हैं। मानते भी हैं। लेकिन क्या वाकई भगत सिंह को गांधी ने मारा ? भगत ने जेल से कई चिट्ठियां लिखी थीं। उन्हीं में एक में उन्होंने लिखा था कि भगत सिंह मर नहीं सकता। अंग्रेज एक भगत सिंह को फांसी पर लटकाएंगे तो हजारों-लाखों भगत सिंह पैदा होंगे। इसलिए आप लोग इस बात का मलाल मत कीजिए कि अंग्रेज सरकार भगत सिंह को फांसी पर लटकाने जा रही है।
भगत को जब फांसी दी गई , तो वह एक इंसान , एक क्रांतिकारी या एक देशभक्त नहीं थे। वह एक सोच थे , जिसने लोगों के दिल-ओ-दिमाग में घर कर लिया था। वह एक जज्बा थे , जो हर खून में उबाल ले रहा था। वह एक अहसास थे , जिसे उस वक्त हर इंसान जी लेना चाहता था। इसीलिए अंग्रेज भगत सिंह को मार नहीं सके। तो फिर भगत सिंह को किसने मारा ? भगत सिंह की मौत के लिए गांधी को कोसने वालों ( और नहीं कोसने वालों) के भीतर क्या भगत सिंह नाम की वह सोच , वह जज्बा , वह अहसास जिंदा है ? सरेआम एक प्रफेसर का कत्ल कर दिया जाता है। गवाही देने वालों के लाले पड़ जाते हैं। सैकड़ों लोगों की मौजूदगी में हुई घटना का एक भी गवाह नहीं। क्या वे सब लोग ' अन्याय के खिलाफ लड़ने का आह्वान करने वाले ' भगत सिंह के कातिल नहीं हैं ?
भरी पार्टी में जेसिका लाल का कत्ल होता है। लेकिन कातिल को किसी ने नहीं देखा। क्या वे लोग भगत सिंह के कातिल नहीं हैं ? रेप तो अपराध हो गया , लेकिन चलते लड़कियों को छेड़ने , तानाकशी करने वाले और भीड़ में चोरी से छूने की कोशिश करने वाले लोगों को क्या कहा जाएगा ? क्या वे भगत सिंह के कातिल नहीं हैं ? करीब-करीब हर रोज हजारों लोगों को इसलिए नीचा देखना पड़ता है क्योंकि वे ' छोटी ' जाति के लोग हैं। ' पांच दलितों को जिंदा जलाया ' खबर का सिर्फ हेडिंग देखकर छोड़ देने वाले हम नौजवान क्या ' समान समाज का सपना ' देखने वाले भगत सिंह के कातिल नहीं हैं ? मराठी, बिहारी, साउथ इंडियन, नॉर्थ इंडियन, पंजाबी, गुजराती के नाम पर बहस करने वाले क्या उस भगत सिंह के कत्ल में शामिल नहीं हैं, जिसने सारी दुनिया के एक हो जाने का ख्वाब देखा था ? ये तो बहुत बड़ी-बड़ी बातें हैं। बिना टिकट सफर , ट्रैफिक नियम तोड़ने पर पुलिसवाले को 50-100 रुपये देकर छूटना , लाइन में न लगना पड़े इसलिए किसी की सिफारिश ढूंढना , कोई बड़ा काम आन पड़े तो जुगाड़ ढूंढना , वोट देने से पहले सोचना कि यह हमारी जाति का है या हमारे काम करवाएगा या नहीं वगैरह तो अब अपराध है ही नहीं। क्या इस तरह भगत सिंह कत्ल नहीं होता ?
भगत सिंह तो सब चाहते हैं, लेकिन पड़ोसियों के घर। इस कहावत को सुनकर हंस देने वाला हर आदमी क्या भगत सिंह का कातिल नहीं है ? आज भगत सिंह , राजगुरु और सुखदेव की पुण्यतिथि है। हममें कितने लोगों को यह बात याद थी ? और कितने लोगों को इस बात से फर्क पड़ता है कि आज के दिन वे तीन नौजवान शहीद हुए थे ? कौन है भगत सिंह का असली कातिल ? और उससे भी अहम बात यह है कि जहां-कहीं थोड़ा-बहुत भगत सिंह जिंदा है, उसे बचाने के लिए क्या किया जाए ?
कट गई ...नाक
नाक कट गई खुलेआम। बेईमान तो हम तब भी थे, अब भी हैं। लेकिन पहले सब कुछ ढंका-छुपा था, अब सारी पोल खुल गई है। खेलों के 10 दिन पहले न्यूज़ीलैंड, ऑस्ट्रेलिया ने ऐलान कर दिया कि खेलों में उनकी जो टीमें आएंगी , उनकी सुरक्षा वो खुद करेंगे। ज़रा सोचिए, एयरपोर्ट पर टीम के उतरते ही सारे देशों की सुरक्षा एजेंसियां अगर अपने अपने काम में जुट जाएं तो क्या होगा। सबसे पहले भारत की एजेंसियां उनकी सुरक्षा जांच करेंगी.....फिर खिलाड़ियों की करेंगी। उसके बाद विदेश सुरक्षा एजेंसियों के लोग भारतीय सुरक्षा एजेंसियों की जांच करेंगे। कहीं किसी के जूते-मोज़े में बम तो नहीं....कहीं किसी ने कोई छोटा चाकू तो नहीं छुपा रखा। सोचिए क्या नज़ारा होगा। ये हमारे रवैये पर भी तंज़ है, जिसके चलते हम सब हर चीज़ को ' हो जाएगा ' के अंदाज़ में देखते हैं। बात यहीं नहीं रुकी..अब तो ये भी पता चला है कि न्यूज़ीलैंड की टीमें खेलगांव के जिस टावर में रुकने वाली हैं , उसकी सफाई न्यूज़ीलैंड से बुलाए गए सफाईकर्मी करेंगे। इस पर खेलों की आयोजन समिति ने क्या जवाब दिया है , ये भी सुन लीजिए। उनका कहना है कि भाई सफाई के हमारे कुछ पैमाने (सब जानते हैं कि भारत मे साफ-सफाई का पैमाना क्या है) , न्यूज़ीलैंड के कुछ और हैं...हम कोशिश करेंगे कि उनके पैमाने के नज़दीक पहुंचें। अब आयोजन समिति इस बात पर विचार कर रही है कि न्यूजीलैंड के सफाईकर्मियों से ही क्यों न पूरे खेल गांव की सफाई करवा ली जाए। बहुत अच्छे...भई अंतर्राष्ट्रीय स्तर के खेल हो रहे हैं , तो उसमें सफाई से लेकर सुरक्षा भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर की होनी चाहिए। खैर अब बकरे की मोटी गर्दन काटने की तैयारी की जा रही है। कलमाडी के दिन गिने चुने रह गए हैं...लेकिन उन्हें अभी तक बख्शा क्यों गया था..इसका जवाब क्या है। शायद ये कि अगर पहले ही कलमाडी विदा कर दिए गए होते, तो आज किसकी नपती ? ज़ाहिर है शीला चाची की....तो चाची बच गईं ना..??? .इसीलिए कलमाडी अभी तक बचा कर रखे गए थे...बकरीद के दिन के लिए।
''मेरा चिर सुख''
सारे दिन की व्यस्तता के बाद भी
मेरे अहसास के कुञ्ज में
उन शुभागत ,बसंती पलों का ,
स्मरण कौंध जाता है,
अक्सर....
जब थक कर कुम्भ्लाती ॥
मेरी सुकुमार छवि को॥
पुनर्नवा बना देता था...
तुम्हारा एक स्नेहिल स्पर्श....
संग लिए लाड-प्यार॥
मनुहार और वो सब कुछ...
जिन्हें छलावा कहने को ॥
जी नहीं चाहता...
जिनमे घुल कर...
भूल जाती हूँ....
मै अपने सब दुःख....
आह मेरा ''चिर-सुख ''॥
(सुमन इलाहाबाद की एक कुशल गृहस्थिन हैं। घर बाहर पूरा उनकी अंगुलियों पर है। व्यस्तता किसी बड़ी कंपनी के सीईओ जितनी। लेकिन लिखना उनकी थकान कम करता है।)
जो बीत गई सो बात गई
जीवन में एक सितारा था
-डा. हरिवंशराय बच्चन
रमता जोगी, बहता पानी
रमता जोगी, बहता पानी
तेरी राम कहानी क्या...
आहट-आहट, चौखट-चौखट
बैरी नई पुरानी क्या...?
रातों के लम्हे भी मुझको
बिल्कुल वैसे ताजे हैं...
जैसे साखी, सबद, सवैये
कोई प्रेम कहानी क्या... ?
सागर, पत्ते, हवा, पहाड़ी
नदियां अभी रवानी हैं...
लेकिन सारी बातों मुझको
तुझको सुनी सुनानी क्या...?
आते जाते, रुकते चलते
अब भी नश्तर चुभता है...
जब जब कह देता है कोई
गा दूं तुझको हानी क्या...?
पागल, पागल होकर देखा
तेरे एक बहाने से
और तभी से दुनिया भर की
मुश्किल मुझको मानी क्या...?
- देवेश वशिष्ठ 'खबरी'