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बाबू जी

रात के आठ बज रहे थे। लंबे चौड़े बरामदे की बत्ती धीमी पड़ चुकी थी। बीचोंबीच बाबूजी लेटे हुए थे। उनके अगल-बगल बर्फ की सिल्लियां रखी थीं। कोई कुछ बोल नहीं रहा था। बाबूजी कभी इसी बरामदे में कुर्सी पर बैठते थे सुबह सुबह। सामने मेज होती थी। एक हाथ में अखबार और दूसरे में चाय का प्याला। देर तक पढते। कभी कभी मुझे बुलाते , सामने टाईम्स ऑफ इंडिया रख देते । कहते- ज़ोर ज़ोर से पढ़ो....जुबान साफ होगी। या फिर जाड़ों की वो शाम , जब वो आलू-मटर की घुंघरी खाते, अलाव जलाकर। सारा परिवार बैठता ईर्द गिर्द। तीनों चाचा, बुआ, हम भाई...और बाबूजी। परिवार पर चर्चा होती...कौन क्या कर रहा है...किसे क्या करना चाहिए... पुराने असल चुटकुले जो परिवार के किसी न किसी कैरेक्टर से जुड़े होते। पढ़ाई लिखाई पर उनका ज़ोर ज़्यादा रहता। कहीं कोई मौका हो, कोई इंस्टीट्यूट हो...तुरंत बताते...वहां चले जाओ....दाखिला ले लो। शिक्षा का महत्व शायद उनसे बेहतर और कोई समझ भी नहीं सकता था। दस बरस के थे , तो मां चली गईं..पिता ने दूसरी शादी की। पढ़ाई कर पाएं , इसके लिए पैसे थे नहीं...इसलिए हाईस्कूल के बाद पढ़ाई का संकट आ गया। नौकरी की और नौकरी करते हुए साहबों के बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाते रहे॥ताकि बीए की पढ़ाई कर सकें। शायद इसीलिए उनकी कोशिश रहती कि हम अच्छे से अच्छी पढ़ाई करें, बेहतर सलीका सीखें, बेहतर इंसान बनें। इसी बरामदे में उनकी स्कूटर खड़ी होती थी...पहले लैम्ब्रेटा...फिर बजाज प्रिया। बाद में कार आई तो वो गाड़ियां जाने कहां खो गईं।
बाबूजी गजब के किस्सागो भी थे। अपने बचपन के , करियर से जुड़े ऐसे ऐसे किस्से जो अपने खत्म होने तक सबक भी देते जाएं। किस कलेक्टर ने क्या कहा...कैसे मुश्किल से निबटा कोई अधिकारी...कौन से कमिश्नर बात के पक्के थे और कौन कान के कच्चे...खूब सारी असल कहानियां। वो एक संघर्षशील शख्सियत थे, रोज़ १४ घंटे काम करते थे...गिर कर उठना उन्होंने खूब जाना था और जहां जिसकी जितनी मदद कर पाए , करते थे। मुझे याद है जब बड़े भइया फॉरेन सर्विस की नौकरी में पहली पोस्टिंग पर ज़ांबिया जा रहे थे...तो अम्मां को रोते देख कर उन्होंने कहा था...बेटवा रहै नाहर , चाहे घर रहै , चाहे बाहर।

लेकिन अब बरामदे में लेटे थे..असहाय। अम्मां के रोने की आवाज़ आती है बीच बीच में॥अस्फुट स्वर में वो जो कहती हैं..उसका मतलब ये कि वो कह के तो गए थे कि अस्पताल तक जा रहे हैं..अभी आते हैं....तो ऐसे क्यों आए...बेजान। बाबूजी की ओर फिर देखता हूं...इतने असहाय कभी नहीं दिखे वो....तब भी नहीं , जब तीन साल तक बिस्तर पर पड़े रहे। कहीं पढ़ा था...पिता का मन हिमालय की तरह होता है। अब सोचता हूं ...बाबूजी तन और मन दोनों से हिमालय थे।

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2 comments:

jyoti said...

yaaden hi rah jati ye bate ma baap ka pyar hamesha taqat banke hame har musibat se ladne ki himmat deta he

astrologer said...

har yatra ki ek shuruaat hoti hai to ek din uska ant bhi hota hai .rah jati hai to sirf yaaden,un yaadon ko sahej kar rakhna tatha unki kasauti par khare utarna shayad ek sachhi shradhanjali hogi.is bhagti dunia mein ( pata nahi manjil kya hai )yaadon ki is potali ko log kholna to door sahej bhi nahi paate.do char saal bad shayad wo tithi bhi bhool jaate hain jab wo kanishth se warishth ho gaye the, kyonki bachhon ka home work , patni ki shopping,aur wagarah wagarah---- .....