केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल के दफ्तर के कर्मचारी आजकल परेशान हैं। वजह...सिब्बल के कंप्यूटर पर गालियों में लिपटी मेलों का झमाझम आना। माना जा रहा है कि ऐसा , अन्ना के आंदोलन के बाद हुआ है। रोज़ सुबह कंप्यूटर खोलते ही सैकड़ों मेलें भरभरा कर सामने आ जाती हैं। कर्मचारियों में से एकाध ने मंत्री जी को इस बारे में बताया तो सिब्बल ने एक की जिम्मेदारी सिर्फ मेल डिलीट करने की लगा दी। ताकीद की गई है कि वो कर्मचारी मेल सिर्फ डिलीट करे, भूल से भी उसे पढ़ें नहीं। ये फैसला भी यकायक नहीं हुआ। दफ्तर पहुंचते ही एक दिन जब सिब्बल को किसी कर्मचारी ने ऐसी मेलों के बारे में बताया, तो पहले तो उन्होंने हंस कर टाल दिया। लेकिन जब ऐसा रोज़ सुबह होने लगा, तो उन्हें अपने एक कर्मचारी को इस जिम्मेदारी पर लगाना पड़ा कि वो रोज़ सुबह दफ्तर आते ही ऐसी सारी मेलें डिलीट कर दे॥लेकिन उसे पढ़े नहीं। अब कर्मचारी सांसत में हैं कि बिना पढ़े किसी मेल को डिलीट कैसे किया जा सकता है भला। लिहाज़ा वो मेल बाकायदा पढ़ते हैं , मुंह दबा कर हंसते हैं, फिर उसे डिलीट कर देते हैं।
'वो' गीता आंटी थीं
आज टीचर्स डे है और मुझे अपनी एक टीचर की याद हो आई है। पूरी पढ़ाई के दौरान न जाने कितने अध्यापक देखे होंगे मैंने॥लेकिन याद सिर्फ उनका चेहरा है। मैं कक्षा ४ में पढ़ता था...पीलीभीत के लायंस बाल विद्या मंदिर में। आमतौर पर टीचर के नाम के आगे दीदी या मैम आदि शब्द जोड़ दिए जाते हैं। उस स्कूल में नाम के आगे आंटी जोड़ा जाता था। आज शायद कोई भी टीचर अपने नाम के आगे ये विशेषण जोड़ा जाना पसंद न करे...लेकिन उस स्कूल में तब ऐसी परंपरा थी। आज न जाने वो परंपरा है या नहीं॥खैर ...तो वो गीता आंटी थीं। जैसे आजकल स्कूल बसें या रिक्शा होते हैं....वैसे ही तब एक साधन इक्का भी हुआ करता था। मैं मोहल्ला कुम्हरगढ़ से इक्के में बैठता था॥पीछे वाली सीट पर। और लक्ष्मी टॉकीज़ के आस-पास किसी इलाके से गीता आंटी इक्के में बैठती थीं॥पीछे यानी ठीक मेरे पास। यकीन कीजिए॥मुझे वहां से स्कूल तक का सफर बड़ा आसान लगता था। मैं पढ़ाई में अच्छा था और वो मुझे खड़ा कर सवाल भी पूछती थीं। एक और बात होती थी। हर शनिवार को हाफ डे होता था। और उससे ठीक एक घंटे पहले गीता आंटी हम सब को पीछे के लॉन में ले जातीं॥और सबसे कोई गाना गाने को कहतीं। उन नवोदित गायकों में मैं भी होता था और हर हफ्ते मेरी ज़ुबान पर एक ही गाना होता था। 'चुरा लिया है तुमने जो दिल को'......ये गीता आंटी की फरमाइश भी होता था। फिर साल भर बाद मैं पांचवीं में गया...तो गीता आंटी से मुलाकात सिर्फ इक्के भर की रह गई। फिर छठवीं में दूसरे स्कूल में भर्ती हुआ , तो सब पीछे छूट गया। कक्षाएं बदलती गईं...और गीता आंटी न जाने कहां खो गईं। फिर पिताजी का तबादला....नया स्कूल...नये टीचर॥नया माहैल.....लेकिन कहीं कोई उन जैसा नहीं मिला। बाद में फेसबुक पर लायंस के पुराने बच्चों को खोजने की खूब कोशिश की...ताकि उनके ज़रिये कुछ पता हो सके। लेकिन कुछ पता नहीं चला। मुझे लगता था कि जितना उन्होंने मुझे समझा...उतना किसी ने नहीं। अज॥जब मेरे दफ्तर के तीन बच्चों ने हैप्पी टीचर्स डे का समस भेजा...तो मुझे गीता आंटी याद आ गईं।
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