तो मेरी पहचान उन्हीं होठों से हो...
सब इधर उधर की बातें...
जगती-सोती सी रातें...
बिन मौसम कुछ बरसातें...
कुछ जीतें और कुछ मातें...
एक तेरी मुस्कान जो इतने भर से हो... तो मेरी पहचान उन्हीं होठों से हो...
रोज की मेहनत, लिखा-पढ़ी
सब इसीलिए तो है...
तुझ तक पहुंचे मेरा खत
बस इसीलिए तो है...
प्यार से खत को खोलो, और फिर और प्यार से चूमो...
हरी हरी सी घास पर जैसे नंगे पैरों घूमो...
आजादी की खुली हवा में झिलमिल झिलमिल हो... धूप छांव का खेल चले और पीपल छाया हो...
फिर होगा वहीं बसेरा...
कुछ ना तेरा ना मेरा...
अपना सब संसार जो इतने भर से हो...
एक तेरी मुस्कान जो इतने भर से हो... तो मेरी पहचान उन्हीं होठों से हो...
सब इधर उधर की बातें...
जगती-सोती सी रातें...
बिन मौसम कुछ बरसातें...
कुछ जीतें और कुछ मातें...
एक तेरी मुस्कान जो इतने भर से हो... तो मेरी पहचान उन्हीं होठों से हो...
प्रेम व्रेम की परी कहानी, सुनी सुनाई बातें...
एक था राजा एक थी रानी, नानी चरखा कातें...
एक कहानी चलो हमारी भी कुछ ऐसी हो...
जिसे सुने तो रोता बच्चा सो जाए खुश हो...
परी कथा में ऐसा कोई ताना बाना हो...
ऐसा ही कोई मीठा मीठा गीत सुनाना हो...
अपना भी एक छोटा सा घर हो...
और वहां न कोई भी डर हो...
अपना सब जी-जान जो इतने भर से हो...
एक तेरी मुस्कान जो इतने भर से हो... तो मेरी पहचान उन्हीं होठों से हो...
सब इधर उधर की बातें...
जगती-सोती सी रातें...
बिन मौसम कुछ बरसातें...
कुछ जीतें और कुछ मातें...
एक तेरी मुस्कान जो इतने भर से हो... तो मेरी पहचान उन्हीं होठों से हो...
देवेश वशिष्ठ ‘खबरी’ 13-06-13, रात 3.03
अम्मां

बहुत सालों पहले ,
अम्मा देखा करती थी,एक सपना ..
स
पने में लहलहाती थी खुशियाँ,
पने में लहलहाती थी खुशियाँ,
जिसमे, एक ख़याल पनप कर
सरकारी बंगले से होता हुआ ..
'अपने-घर' में तब्दील हो जाता था ..
जिसमे पिता होते थे,
उनके साथ ..वार्धक्य का
सुख-दुःख बांटते हुए ..
इस एक सपने के पीछे,
दौड़ती रही ,सालों-साल ..
इसी भागम-भाग में
एक दिन छूट गया
'सप्तपदी' सुनते हुए हौले से थामा गया
एक मजबूत हाथ .
फिर .., एक दिन अम्मा ,
थक के बैठ गई
खुद को सुलझाने की आस में ,
बिलकुल उलझ गई ..
तमाम बड़ी बातो का हौसला देने में,
कभी भी पीछे नहीं रहे,हम
अपनी बूढी होती अम्मा को रोज़ सिखाया,
हमारे लिए छाँव वहीँ होगी ,
जहां भी तुमने अपना दामन फैलाया ..
अम्मा कैसे कहती,की
वो हमारी बात नहीं समझती ?
और उसने भी ओढ़ लिया मुखौटा ,
संतुष्ट रहने का ...
और रिश्तो के लबादे में
चुपचाप पलने लगी ...!
और एक दिन ....
अम्मा के सारे सपने सच हो गए ..
बेहद चुपचाप तरीके से ,
अम्मा अपने ख़्वाबों के बगीचे में जा बैठी ...
जहां उसके इर्द-गिर्द बसा हुआ था ,
उसके सपनो का लहलहाता खेत ,
फिर भी ..
अम्मा मुस्कुराती क्यों ना थी ?
कुछ अनुमान ही शेष हैं ...,
शायद ,अम्मा का दर्द हो ..
अपनी जड़ों से कट जाने का
9 महीने की बच्ची को गोद में लेकर
दाखिल हुई थी जिस घर में,
वहां आखिरी पूर्णाहुति देकर ,
बेरंग ,बेनूर होकर निकलते हुए ...
कुछ चिटका तो ज़रूर होगा ,
अम्मा के भीतर ..!
कुछ तकलीफें होंगी ..
उन परम्पराओं के वहीँ छूट जाने की
जिन्हे निभाया करती थी अम्मा ..
होली,दिवाली और रक्षाबंधन के बहाने ..
अक्सर बहुत याद आएँगी ,वो दीवारें
जहां से हो सकती थी ...
कभी भी,किसी से भी ...
बेकल दिल की बातें ...!
त्योहारों में यकीन हो ना हो ..
विश्वास जीता था,उस बहाने से ,
अम्मा के करीब जाने का,
उसके चेहरे पर खिलती हंसी से
जी जाने का ...!
पर खैर ..
अलग-अलग तरीके से,
सब मरते हैं,कई कई बार !
तब जाकर पता चलता है,की
कितनी भावनाओं का हविष्य
कितनी सिसकियों का तर्पण ,
देना होता है ...
तब जाकर ,
आती है समृद्धि !!
सुमन-------
(ये इलाहाबाद की सुमन हैं..पक्की गृहस्थिन..लेकिन उससे भी पक्की साहित्यकार। उनका साहित्य तवे की रोटी की तरह है, सोंधी खुशबू वाला..और उसमें चूल्हे की आग का सा तेज़ भी है। उनकी कविताएं महकती हैं....और जो भी लिख दें...पढ़ने लायक होता है। )
बाबा प्यार करते थे...।
बाबा,
अम्मा ने लगाया था ना वो नीम का पेड़...
जिसकी गोद में ही आती थी आपको नींद...
और उसी की छांव में आपने ली थी आखरी सांस...
जिसकी गोद में ही आती थी आपको नींद...
और उसी की छांव में आपने ली थी आखरी सांस...
अब हम नई पीड़ी के शहरिये हो गए हैं...
और सोचते हैं कि सिर्फ हमें ही आता है... 'प्यार करना' !
- देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
और सोचते हैं कि सिर्फ हमें ही आता है... 'प्यार करना' !
- देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9953717705
प्रेम का पेड़
पंखुड़ियां सहलाना सीखा
सुबह-शाम फिर टुकुर-टुकुर
उसकी बात बताना सीखा...
यूं ही बातें कहते लिखते
आज यहां तक आया हूं...
राज की बात बताऊं , मैं अब
उसी पेड़ की छाया हूं...
--- देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9953717705
http://www.youtube.com/ watch?v=V-QuqnuPKxM&feature=you tu.be
ऊपर लिखे लिंक पर क्लिक कीजिए और 20 वीं शती के एक महानायक से मिलिए...ये हैं फिराक़ गोरखपुरी
ऊपर लिखे लिंक पर क्लिक कीजिए और 20 वीं शती के एक महानायक से मिलिए...ये हैं फिराक़ गोरखपुरी
बेटा बड़ा हो गया है
अरसे बाद अचानक
घर में किताबों की आमद बढ़ गई है
पॉलो कोल्हो..चार्ल्स डिकेंस...
.... रस्किन बॉंड और.....
और बहुत सारी दूसरी किताबें
मैं उन नये पन्नों की खुशबू सूंघता हूं
मुझे एक पीढ़ी का अहसास होता है
मैं उनके कवर पेज पर
एक ज़िंदगी की शुरुआत देखता हूं
नई कोंपलों जैसी नरमी.....
और सुबह के सूरज की किरणों की गुनगुनाहट
उनमें चिड़ियों की चहचहाहट भी सुनाई पड़ती है
मेरे भीतर का बच्चा बड़ा होने लगा है....
जब से क़िताबें.......घर आने लगी हैं
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