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मां

सिर पर लादकर जेठ की गर्मी
और कंधे पर लटका कर
चूल्हे का धुंआ
खाना बनाती है मां

इधर से उधर,उधर से इधर
पूरा आंगन कई बार नाप कर
बैठ एक जगह सुस्ताते हुए
थंडर की किलनी निकालती है मां

मां ममता का 'ज्वार' है

मीलों मील चलती है वो सपनों में
लेकिन सूर्योदय से पहले
लौट आने को,
सपनों में भी
मन नहीं लगता मां का
क्योंकि उसे चूल्हा जो जलाना है

मां को 'सच' मालूम है

दोपहर के इत्मीनान में भी
उसे चैन नहीं
काढ़ती है बेटों की फटी कमीज़ पर
भविष्य के सुंदर फूल

मां 'भविष्नियंता' है

दवाओं के टीले के पास
बैठ कर
एक एक कर
उन्हें उदरस्थ करती है मां

मां तकलीफों का 'समुद्र' है

एक रोज़ मां चली जाएगी
अपना घायल पैर
और
टूटा मन लेकर
फिर नहीं चलेगा कभी
कोई डगमगाते हुए आंगन में
सवेरे चार ही बजे
आंगन धोते हुए
जबरन नींद नहीं तोड़ेगा कोई

उसे खोजेंगे हम
कटहल के वृक्ष तले....
पुकारेंगे घर के कबाड़खाने में ....
या फिर रसोई के आसपास कहीं
ज़रूर वे होंगी..
संभव है छाया की तरह
कभी दिखाई पड़ जाएं
मां
तुलसी चौरे के पास...
जहां बच्चों के सपनों के इर्द गिर्द
कितने ही दीये बारे थे उन्होंने

मां, मां है
इस पूरे घर की...
वो आएगी ज़रूर
हम खोजेंगे उसे
जब कटहल फलेगा....
जब सब्ज़ी वाला देगा
ऊंची आवाज़....
या
जब कुत्ते स्वर्ग सिधारेंगे


मां ज़रूर आएंगी

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1 comments:

SKAND said...

Beautiful sentiments.A very subjective poem. The last three stanzas are noteworthy. Can't it be sent to 'KADAMBINI' for getting published?