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ग़ालिब और इज़ारबंद

निदा फाजली

दिल्ली में माता सुंदरी कॉलेज के सामने बनी एक ख़ूबसूरत इमारत है, जिसे ‘ऐवाने-ग़ालिब’ या ग़ालिब इंस्टीट्यूट कहा जाता है, ऐसी ही मामूली चीज़ों से ग़ालिब के दौर को दोहराती है. यह इमारत मुग़ल इमारत-साज़ी का एक नमूना है. आख़िरी मुग़ल सम्राट के समय के शायर मिर्ज़ा ग़ालिब के समय को, उस समय के लिबासों, बर्तनों, टोपियों, पानदानों, जूतों और छोटे-बड़े ज़ेवरों से दिखाकर एक ऐसा इतिहास रचने को कोशिश की गई है. यह इतिहास उस इतिहास से मुख़्तलिफ़ है जो हमें स्कूल या कॉलेजों में पढ़ाया जाता है जिसमें तलवारों, बंदूकों और तोपों को हिंदू-मुस्लिम नाम देकर आदमी को आदमी से लड़ाया जाता है और फिर अपना अपना वोट बैंक बनाया जाता है.

इस 'ग़ालिब म्यूज़ियम' में और बहुत सी चीज़ों के साथ किसी हस्तकार के हाथ का बना हुआ एक इज़ारबंद भी है. ग़ालिब दिल्ली के बल्लीमारान इलाक़े में रहा करते थे. ग़ालिब के उस लंबे, रेशमी इज़ारबंद ने मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही व्यवहार किया. ग़ालिब म्यूज़ियम में पड़ा हुआ मैं अचानक 2006 से निकलकर पुरानी दिल्ली की टेढ़ी-मेढ़ी गलियों से गुज़रकर बल्लीमारान में सहमी सिमटी उस हवेली में पहुँच गया जहाँ ग़ालिब आते हुए बुढ़ापे में गई हुई जवानी का मातम कर रहे थे. इस हवेली के बाहर अंग्रेज़ दिल्ली के गली-कूचों में 1857 का खूनी रंग भर रहे थे.
ग़ालिब का शेर है -
हम कहाँ के दाना थे किस हुनर में यकता थे

बेसबब हुआ ‘ग़ालिब’ दुश्मन आसमाँ आपना
हवेली के बाहर के फाटक पर लगी लोहे की बड़ी सी कुंडी खड़खड़ाती है. ग़ालिब अंदर से बाहर आते हैं तो सामने अंग्रेज़ सिपाहियों की एक टोली नज़र आती है. ग़ालिब के सिर पर अनोखी सी टोपी, बदन पर कढ़ा हुआ चोगा और इसमें से झूलते हुए ख़ूबसूरत इज़ारबंद को देखकर टोली के सरदार ने टूटी फूटी हिंदुस्तानी में पूछा, “तुमका नाम क्या होता?”

ग़ालिब - “मिर्जा असदुल्ला खाँ ग़ालिब उर्फ़ नौश.”

अंग्रेज़ -“तुम लाल किला में जाता होता था?”

ग़ालिब-“जाता था मगर-जब बुलाया जाता था.”

अंग्रेज़-“क्यों जाता होता था?”

ग़ालिब- “अपनी शायरी सुनाने- उनकी गज़ल बनाने.”

अंग्रेज़- “यू मीन तुम पोएट होता है?”

ग़ालिब- “होता नहीं, हूँ भी.”

अंग्रेज़- “तुम का रिलीजन कौन सा होता है?”

ग़ालिब- “आधा मुसलमान.”

अंग्रेज़- “व्हाट! आधा मुसलमान क्या होता है?”

ग़ालिब- “जो शराब पीता है लेकिन सुअर नहीं खाता.”


और ग़ालिब की मज़ाकिया आदत ने उन्हें बचा लिया. मैंने देखा उस रात सोने से पहले उन्होंने अपने इज़ारबंद में कई गाठें लगाई थीं. ग़ालिब की आदत थी जब रात को शेर सोचते थे तो लिखते नहीं थे. जब शेर मुकम्मल हो जाता था तो इज़ारबंद में एक गाँठ लगा देते थे. सुबह जाग कर इन गाठों को खोलते जाते थे और इस तरह याद करके शेरों को डायरी में लिखते जाते थे.

हुई मुद्दत कि ग़ालिब मर गया पर याद आता है

वो हरेक बात पे कहना कि यूँ होता तो क्या होता
इज़ारबंद से ग़ालिब का रिश्ता अजीब शायराना था. इज़ारबंद दो फारसी शब्दों से बना हुआ एक लफ्ज़ है. इसमें इज़ार का अर्थ पाजामा होता है और बंद यानी बाँधने वाली रस्सी. औरतों के लिए इज़ारबंद में चाँदी के छोटे छोटे घुँघरु भी होते थे और इनमें सच्चे मोती भी टाँके जाते थे. लखनऊ की चिकन, अलीगढ़ की शेरवानी, भोपाल के बटुवों और राजस्थान की चुनरी की तरह ये इज़ारबंद भी बड़े कलात्मक होते थे. हिंदुस्तानी में इसे कमरबंद कहते हैं. यह इज़ारबंद मशीन के बजाय हाथों से बनाए जाते थे.
ये इज़ारबंद आज की तरह अंदर उड़स कर छुपाए नहीं जाते थे. ये छुपाने के लिए नहीं होते थे.
पुरुषों के कुर्तों या महिलाओं के ग़रारों से बाहर लटकाकर दिखाने के लिए होते थे. पुरानी शायरी में ख़ासतौर से नवाबी लखनऊ में प्रेमिकाओं की लाल चूड़ियाँ, पायल, नथनी और बुंदों की तरह इज़ारबंद भी सौंदर्य के बयान में शामिल होता था.
ग़ालिब तो रात के सोचे हुए शेरों को दूसरे दिन याद करने के लिए इज़ारबंद में गिरहें लगाते थे और उन्हीं के युग में एक अनामी शायर नज़ीर अकबराबादी इसी इज़ारबंद के सौंदर्य को काव्य विषय बनाते थे. इनमें कुछ यूँ हैं, ‘इज़ारबंद की ढीली’ उस स्त्री के लिए इस्तेमाल होता है जो चालचलन में अच्छी न हो. मैंने इस मुहावरे को छंदबद्ध किया है.


जफ़ा है ख़ून में शामिल तो वो करेगी ज़फा

इज़ारबंद की ढीली से क्या उमीदे वफ़ा

‘इज़ारबंद की सच्ची’ से मुराद वह औरत है जो नेक हो ‘वफ़ादार हो’. इस मुहावरे का शेर इस तरह है,

अपनी तो यह दुआ है यूँ दिल की कली खिले जो

हो इज़ारबंद की सच्ची, वही मिले

इज़ारबंदी रिश्ते के मानी होते हैं, ससुराली रिश्ता. पत्नी के मायके की तरफ़ का रिश्ता.

घरों में दूरियाँ पैदा जनाब मत कीजे

इज़ारबंदी ये रिश्ता ख़राब मत कीजे

इज़ार से बाहर होने का अर्थ होता है ग़ुस्से में होश खोना.


पुरानी दोस्ती ऐसे न खोइए साहब

इज़ारबंद से बाहर न होइए साहब

इज़ारबंद में गिरह लगाने का मतलब होता है किसी बात को याद करने का अमल.

निकल के ग़ैब से अश्आर जब भी आते थे

इज़ारबंद में ‘ग़ालिब’ गिरह लगाते थे

ग़ालिब तो रात के सोचे हुए शेरों को दूसरे दिन याद करने के लिए इज़ारबंद में गिरहें लगाते थे और उन्हीं के युग में एक अनामी शायर नज़ीर अकबराबादी इसी इज़ारबंद के सौंदर्य को काव्य विषय बनाते थे. कबीर और नज़ीर को पंडितों तथा मौलवियों ने कभी साहित्यकार नहीं माना. कबीर अज्ञानी थे और नज़ीर नादान थे. इसलिए कि वो परंपरागत नहीं थे. अनुभव की आँच में तपाकर शब्दों को कविता बनाते थे. नज़ीर मेले ठेलों में घूमते थे. जीवन के हर रूप को देखकर झूमते थे. इज़ारबंद पर उनकी कविता उनकी भाषा का प्रमाण है.
उनकी नज़्म के कुछ शेर -

छोटा बड़ा, न कम न मझौला इज़ारबंद

है उस परी का सबसे अमोला इज़ारबंद

गोटा किनारी बादल-ओ- मुक़्क़ैश के सिवा

थे चार तोला मोती जो तोला इज़ारबंद
धोखे में हाथ लग गया मेरा नज़ीर तो

लेडी ये बोली जा, मेरा धो ला इज़ारबंद


--बीबीसी से साभार

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5 comments:

Udan Tashtari said...

आनन्द आ गया. पढ़वाने का आप को बहुत शुक्रिया.

अंगूठा छाप said...

bahut khoob!



BADHAI!!

DoctheW said...

very cool!

SKAND said...

ACHCHA HAI.

Pravin chandra roy said...

नमस्कार राकेश जी,
बहुत ,लेकिन............? ग़ालिब को आज हमने भुला दिया है ... इसलिये भी की हममे से चंद फीसदी लोग ही ग़ालिब के सफरनामे से रु ब रु हैं...आपने अच्छा किया जो ग़ालिब के कुछ सुनहरे अन्छुएय पहुलूँओं से हमे बाकिफ कराया.
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