मेराज़ फ़ैज़ाबादी बहुत बड़े शायर हैं और मैं उनसे एक बार 1992 में लखनऊ में मिला हूं। अब शायद उन्हें याद भी न हो..लेकिन पिछले हफ्ते लखनऊ में ही एक शाम चाय पर उनके साथ बीती। अच्छी आवाज़ और सुंदर शब्दों का जो सेलेक्शन उनकी बातचीत में होता है,वो यकीनन किसी भी अच्छे साहित्यकार की पहचान होता है। उनको बैठकर इत्मीनान से सुनना अपने आप में एक एहसास है। शायर तो हैं ही..किस्सागो भी हैं मेराज़ साहब। किस्से तो नहीं लेकिन बातचीत में कुछ अनुभव उन्होंने सुनाए जो भीतर तक भिगो गए। मेराज़ साहब 1993 में एक मुशायरे में मस्कत गए तो कुवैत के पाकिस्तानी राजदूत और उनकी पत्नी से उनकी मुलाकात हुई। करामतुल्ला गौरी और उनकी शरीक-ए-हयात आबिदा करामत। पति-पत्नी दोनों शायर थे और मुशायरे का एक हिस्सा भी। एंबेस्डर साहेब की बेगम ने जो शेर पढ़ा वो मेराज़ साहेब आज तक नहीं भूल पाए हैं...ये शेर उन्होंने अपने बेटे की याद में लिखा था जो पढ़ने के लिए अमरीका चला गया था। ये शेर कुछ यों था..
वो क्या गया कि दर-ओ-बाम हो गये तारीक
मैं उसकी आंख से घर का दिया जलाती थी।
ये शेर सुनाते सुनाते मेराज़ साहब की आंखों में पानी आ जाता है..कहते हैं कि ऐसे उम्दा शेर उन्होंने बहुत कम सुने और उस मुशायरे के बाद बेगम आबिदा करामात के लिए उनके मन में इज़्ज़त बढ़ गई। मेराज़ साहब यहीं नहीं रुकते। बताते हैं कि आगे चलकर कई सालों बाद बेगम साहिबा से उनकी एक और मुलाकात शिकागो में हुई। शिकागो में उन्होंने बरसों से ज़ेहन में दबा एक सवाल उनसे पूछ ही लिया। उन्होंने पूछा कि आपका हिंदुस्तान से क्या रिश्ता है। बेगम ने तपाक से कहा-मेराज़ साहब, मैं पाकिस्तानी एंबैस्डर की बीवी हूं...मुझसे हिंदुस्तान की बात क्यों। मेराज़ साहब ने कहा-क्योंकि ऐसी सोच सिर्फ उसी धरती से मिल सकती है..आप बताएं आप हिंदुस्तान के किस इलाके से वास्ता रखती हैं। बेगम ने ठंडी सांस ली और बताना शुरू किया.....मेराज़ साहब, आप का अंदाज़ा सही है। उम्र के 12 बसंत मैंने झांसी में बिताए हैं...वही झांसी..रानी लक्ष्मीबाई वाली। 12 बरस की उम्र में जब देश टूटा तो मां बाप के साथ मैं पाकिस्तान आ गई। आ तो गई लेकिन वो घर...उसकी देहरी ...उसके कमरे...सब कुछ मुझे भुलाए नहीं भूला। पढाई लिखाई की और फिर शादी...कई पड़ाव ज़िंदगी के पीछे छूटते गए लेकिन झांसी का वो घर न भुलाया गया। झांसी फिर से देखने की ललक लिए लिए कई साल बीत गए। डिप्लोमैट्स को हिंदुस्तान का वीज़ा मिलना कोई आसान नहीं होता , लेकिन फिर भी कई कोशिशो के बाद आखिर एक दिन झांसी जाने का मौका मिल ही गया। दिल्ली आई और सिर्फ एक अदद अटैची लेकर ट्रेन से झांसी रवाना हुई। शहर बदला हुआ सा था ...लेकि न अपने घर जाने की न जाने कैसी उमंग थी...कि सब कुछ जाना पहचाना सा लगता था। इक्के से मैं अपने उस मोहल्ले पहुंची....और कहीं खो गई। घर न जाने कैसे हो गए थे। कुछ नए मकानात बन गए थे और मोहल्ला कुछ सिकुड़ा सिकुड़ा सा लग रहा था। कुछ पलों के लिए मैं देश और सीमाएं भूल गई - होश आया तो सामने एक बूढ़े हज़रत खड़े थे...लंबी दाढ़ी...सौम्य चेहरा...उन्होंने पूछा-किसको खोजती हो बेटी ? मैंने अपने वालिद का नाम बताया ...तुरंत जवाब आया बगल वाली गली में चली जाओ बेटी...घुसते ही दूसरा घर है। मुझे हैरत थी..जिस धरती से हमने हर नाता तोड़ लिया था ..वहां लोगों को वालिद का नाम अब भी याद है.....वो वक्त भी आया जब मैंने खुद को अपने उसी घर के सामने खड़ा पाया , जिसे आज से कई बरस पहले छोड़कर हम पाकिस्तान चले गए थे। अटैची ज़मीन पर रखी और पहले जी भर कर उस इमारत को देख लेना चाहा..जो अब अपनी नहीं थी। चौंकी तब जब घर के किवाड़ खुले और एक पचासेक के आसपास की महिला सामने आकर खड़ा हो गईं। पूछा-कौन हो बेटा-कहां जाना है। मैंने कहा-अम्मां , मैं यहीं आईं हूं ..इस घर में 12 बरस बचपन के बिताए हैं मैंने...अब पाकिस्तान में हूं....ये घर मेरे सपने में आता था...आज देखने आई हूं। जवाब भी तपाक से आया-अरे बेटी , तो खड़ी क्यों हो ...अपने घर आने के लिए सोचना कैसा.. उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा..और सीधे घर के भीतर ले गईं। वो एक ऐसा हिंदू परिवार था जो विभाजन के बाद पाकिस्तान से यहा आया था । उसे हमारा घर दे दिया गया था। भीतर आकर उन्होंने ऊंची आवाज़ लगाई और सबको बुला लिया..और कहा-देखो बेटी आई है। इसका कमरा खाली कर दो....हफ्ते भर उस घर में मेराज़ साहब , मैं वैसे ही रही , जैसे शादी के बाद कोई लड़की अपने मायके में रहती है। और जब चलने का दिन आया...तो क्या देखती हूं...कि दरवाज़े के बाहर , चबूतरे पर मेरी उस एक अटैची के साथ तीन बड़ी बड़ी अटैचियां रखीं हुईं हैं। मेरे मुंह से बेसाख्ता निकला-अरे अम्मां ये क्या ? अम्मां ने मुझे थाती से चिपका लिया..बोलीं...बेटी हो ना...तो ऐसे वैसे थोड़ी न विदा करूंगी।
बेगम साहिबा ने फिर एक लंबी सांस ली। उनकी आंखें नम हों गईं थीं। बड़ी मुश्किलों के बाद वो बोल पाईं-तो मेराज़ साहब ...आपने सही पहचाना...ये था मेरा हिंदुस्तान से वो रिश्ता जो कोई झुठला नहीं सकता।
ये सच्चा किस्सा बयान करते करते मेराज़ साहेब का गला भर आया। वो कहीं खो से गए...उनकी चाय ख़त्म हो चुकी थी और उनका बेटा भी उन्हें लेने के लिए दरवाज़े पर खड़ा था।
मेराज़ साहब और वो शाम
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15 comments:
बेगम साहिबा का किस्सा पढ़ते पढ़ते मुझे अपने पिताजी का सुनाया किस्सा याद आगया. हमारा परिवार भी लाहौर से आजादी के थोडा पहले ही भारत आ गया था. पिताजी की आँख में अभी भी वो घर गलियां बसी हुई थीं जो मजबूरी में उनसे छुड़वा दी गयीं थीं. हमेशा वो एक बार अपने घर वापस जाने का सपना देखते रहते थे. एक बार किसी तरह उन्हें सन १९५५ में पकिस्तान जाने का मौका मिला. वो अपने घर गए जो बिलकुल वैसा ही था जैसा वो छोड़ गए थे...वो घर किसी पाकिस्तानी के पास था जो भारत से आया था...उन्होंने भी मेरे पिताजी का वैसा ही आदर सत्कार किया जैसा बेगम साहिबा ने बताया है...मजे की बात है दो दिन तक उन्हें वहां से जाने नहीं दिया...वो अपने उन्हीं पलंगों पर सोये उन्हीं बर्तनों में खाना खाया जिन्हें वो सालों पहले छोड़ आये थे...जाते जाते उन्होंने पिता जी वो टी सेट दिया जो कभी मेरे दादा ने इटली से मँगवाया था. उसे हमने कभी इस्तेमाल नहीं किया...वो अभी एक याद की तरह हमारे घर रक्खा हुआ है.
नीरज
मुझे निदा फाजली साहेब की एक ग़ज़ल याद आ गयी है जो मैं आपकी पोस्ट पढने वालों के साथ बाँटना चाहता हूँ...
इंसान में हैवान यहाँ भी है वहां भी
अल्लाह निगहबान यहाँ भी है वहां भी
खूंखार दरिंदों के फ़कत नाम अलग हैं
शहरों में बयाबान यहाँ भी है वहां भी
हिन्दू भी मजे में है मुसलमां भी मजे में
इंसान परेशान यहाँ भी है वहां भी
उठता है दिलो जां से धुआं दोनों तरफ
ये मीर का दीवान यहाँ भी है वहां भी
नीरज
waah neeraj ji waah
aapka anubhav padhte padhte ne jane mujhe kyaa ho gaya....
waah neeraj ji waah
man ko choo gayi aap ki yaaden.
ghazal bhi umda hai.
bhig toh hum bhi gaye bhai !
वाह वाह आंखो मे आंसू आ गये आप का लेख ओर नीरज जी की टिपण्णी पढ कर, बहुत ही भावुक कर दिया.....
धन्यवाद
विविधताओं से भरा ब्लॉग... हर पोस्ट में नई संवेदनाएं...
The narravative and comments on the post show that human sensibilities and emotion are universal, transcending time and space.
ग़ालिब का दीवान पढ़ने में जो मज़ा है... मीर अनीस और मिर्ज़ा दबीर के मर्सिये पढ़ने में जिस कैफ़ियत का एहसास होता है...
कमोबेश वही एहसास हुआ इस पोस्ट को पढ़ कर हुआ...
आसान से लफ़्ज़ों में कहें तो जिस तरह ख़ाने पर एक तीखी सी हरी मिर्च खाकर एहसास होता है जैसे ज़ुबान ताज़ा हो गई
वैसे ही आपका ये पोस्ट पढ़कर मेरी फिक्र और मेरी सोच ताज़ा हो गई...
हवा में तितली की तरह उड़ते लफ्ज़ों को कागज़ पे बिठाकर तिलिस्मी शक्ल देने का हुनर आपको बखूबी आता है सर..
:---)
ऐसा बेहतरीन वाक़या हमतक पहुंचाने का शुक्रिया !
दिल टुटने पर दर्द उनको भी होता है
अपनो से बिछड़ने का गम उनको भी होता है
शहीदो के घरो पर भी बेवाए गम बनाती होगी
जैसे की हमारे घरो पर होता है
एक लकीर पर बहा दीयें न जाने कीतनो ने अपने लहु
लेकिन भुल गयें इंसानीयत
जीसे देख कर हैवान को भी
इंसान पर गम होता है
और हैरत कर रहीं है अब मौत भी
ऐसी ज़िंदगानी पर
दिल टुटने पर दर्द उनको भी होता है
अपनो से बिछड़ने का गम उनको भी होता है
शहीदो के घरो पर भी बेवाए गम बनाती होगी
जैसे की हमारे घरो पर होता है
एक लकीर पर बहा दीयें न जाने कीतनो ने अपने लहु
लेकिन भुल गयें इंसानीयत
जीसे देख कर हैवान को भी
इंसान पर गम होता है
और हैरत कर रहीं है अब मौत भी
ऐसी ज़िंदगानी पर
मैं तो सोचता था कि कविता लिखने वालों के पास कहानी के लिए शब्द नहीं होते...लेकिन इस मार्मिक कहानी को पढ़कर मेरी आंखे नम हो गईं..और इसे जो भी पढ़ेगा,उसके जेहन में एक सवाल जरूर उठेगा..जब दोनों मुल्क के लोगों का दिल इतना पाक-साफ है तो भला गड़बड़ी कहां है..शायद दिमागी फितूर ने सब गड़बड़झाला कर रखा है...बहुत ही बेहतरीन है आपकी मार्मिक कहानी सर..सभी लोगों को पढ़ना चाहिये...
लेकिन मेरी ग़जल को जरूर पढ़े सर शायद अंधेरों में रहने वालों के लिए ताकत बनें...
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कुछ नहीं होता
1--
लोग कहते हैं गलत बात,
चुप्पी साधे से कुछ नहीं होता.
दिल में सब्र की आंधी है,
इंतजार करने से भी कुछ नहीं होता.
2---
अब तो चुप रहने की आदत सी पड़ गई है,
दस्तक देने से भी कुछ नहीं होता.
किस से कहूं सोज-ए-दिल,
जिससे कहना है उसका भी तो कुछ नहीं होता.
3---
मेरे बाग में बुलबुल के बिना भी,
दिल शगुफ्ता है इस चमन में.
कैसे कहते हैं लोग,
हंसने से बगीचे में गुलजार नहीं होता.
4--
दिल का दर्द अब आंखों से बयां होता है,
लोग कहते हैं जन्नत का नशा है.
कैसे कहूं आंसू बहाकर भी,
सबकुछ भूल जाने से भी तो कुछ नहीं होता.
5--
हकीकत की इस दुनिया में,
तसव्वुर को इजाजत नहीं.
यहां तो बस खंजर-ए-सितम की रहम है,
लोग करते हैं सितम पर सितम,
लेकिन खाक में मिटने से भी तो कुछ नहीं होता.
6--
अब तलक से सबने ठानी है,
जिंदगी की बची अलामात से हाजिर होंगे.
कुछ नहीं करने की खातिर,
लोग कहते हैं गलत बात,
रोशनी में तलाशे से कुछ नहीं होता.
लोग कहते हैं गलत बात,
चुप्पी साधे से कुछ नहीं होता.
आपका
गौरी शंकर
अरे वाह... यहां तो टिप्पणी पर भी टिप्पणी करनी होगी... क्या गज़ल है गौरीशंकर जी... जावेद साहब की एक गजल याद दिला दी...
दुख के जंगल में फिरते हैं कब से मारे मारे लोग
जो होता है सह लेते हैं कैसे हैं बेचारे लोग
जीवन भर हमने खेल यही होते देखा
धीरे धीरे जीती दुनिया धीरे धीरे हारे लोग
इस नगरी में क्यों मिलती है रोटी सपनों के बदले
जिनकी नगरी है वो जाने हम ठहरे बंजारे लोग
ऐसे हजारों वाकयों के बावजूद जब लोग अपने आस-पास ऐसी चीज़ें होते देखते हैं जिनसे ये पता चलता हैं की दोनों मुल्कों की आवाम के बीच साझा करने को बहुत कुछ है, अपने दुःख हैं अपने सुख हैं फिर भी हम लोग एक होकर क्यों नही रहा सकते ये दोस्ती ये प्यार एक तीसरे अजनबी देश जाकर ही क्यों परवान चढ़ता है इसको साबित करने के लिए ऐसा ही एक छोटा सा किस्सा मेरे पास भी है जो मैं आप लोगों के साथ शेयर करना चाहूँगा
ये अनुभव है मेरी भाभी के फादर डॉ श्री कमल शर्मा का जो उन्होंने मेरे साथ शेयर किया और मैं आप के साथ कर रहा हूँ. ये अनुभव उनका तब का है जब वो सागर विश्वविद्यालय में प्रोफेसर थे, सागर विश्वविद्यालय की तरफ से उन्हें किसी प्रोजेक्ट के सिलसले में लन्दन भेजा गया. जहाँ उन्हें ३ साल तक रूकना था.अनजान देश था. अजनबी लोग थे.वक़्त मुश्किल था.वहां जाकर उन्हें महसूस हुआ की अपने देश में रहना, अपने लोगों के बीच रहना कितना सुखद होता है। हलाँकि ब्रिटेन में हिन्दुस्तानियों
की कमी नहीं लेकिन ऐसा करना भी ठीक नहीं था की सड़क पर चलते किसी भी भारतीय को पकड़ कर उससे सड़क पर बात करने लगो. हाँ ये बात मन में जरुर थी की काश कोई जिस विश्विद्यालय में काम के सिलसिले में आयें हैं वहां ही कोई अपने देश का मिले. जैसे-जैसे समय बीता उनकी मनोकामना भी पूरी हुई। कुछ भारतीय उन्हीं की तरह वहां थोड़े समय के लिए आये हुए थे उन से उनकी जान पहचान भी हुई पर ये जान-पहचान कभी फौर्मल्टी के रिश्ते से आगे ना जा सकी।उसी यूनिवर्सिटी में अबुल खालिक अंसारी नाम के एक पाकिस्तानी प्रोफेसर भी थे, ये साहब यहाँ की स्थाई नागरिकता ले चुके थे। इन साहब से भी रिश्ता औपचारिक ही था।
इंग्लैंड में शर्माजी को खाने-पीने की बड़ी परेशानी थी वजह थी इंग्लैंड के बहुसंख्यक लोगों का मांसाहारी होना और शर्माजी का शुद्ध शाकाहारी होना। उन्हें शाकाहारी खाना खोजने के लिए बहुत परेशान होना पड़ता था। एक दिन वो ऐसे ही एक शाम पिज्जा रेस्ट्रोरेन्ट में जा पहुंचे वहां अबुल साहब भी मौजूद थे औपचारिक हालचाल हुआ शर्मा जी ने पिज्जा आर्डर किया इससे पहले की वो पिज्जा का टुकडा मुंह में डालते अबुल साहब लपक के उनके पास पहुंचे और बोले अरे !शर्मा जी ये आप क्या कर रहें हैं इसमें तो सूअर का मांस है शर्माजी ये सुन कर भौच्च्के रह गए। शर्माजी ने जब पिज्जा के कवर देखा तो उस पर लिखा भी था खैर शर्माजी अपना धर्म खोने से बाल-बाल बचे उन्होंने अबुल साहब का धन्येवाद किया और अपनी समस्या बताई। अबुल साहब ने मदद का भरोसा दिलाया की वो मदद करेंगे। अगले दिन अबुल साहब ने शर्मा जी को ऐसी कई जगह बताई जहाँ से शर्मा जी अपने लिए शाकाहारी खाने का जुगाड़ कर सकते थे । अबुल साहब ने शर्माजी को अपने घर आने का निमंत्रण भी दिया.शर्माजी अबुल साहब के घर गए जहाँ अबुल साहब की बीबी ने शर्माजी का काफी जोरदार इस्तकबाल किया. धीरे-धीरे जान-पहचान बढ़ती गई और फिर अच्छी खासी दोस्ती हो गई. तीन साल पंख लगा कर उड़ गए. शर्मा जी की विदाई का वक़्त नज़दीक आ गया. शर्मा जी जब भारत लौटने के लिए जब एअरपोर्ट पहुंचे तो पूरी अबुल-परिवार उन्हें विदा करने के लिए एअरपोर्ट आया. जब शर्मा जी विदा लेकर जाने लगे तो अबुल साहब ने शर्माजी का हाथ अपने हाथ में लेकर कहा की काश! मुल्क का बटवारा ना हुआ होता और फिर ये भी कहा की अगर दोनों मुल्कों के बीच ये दुश्मनी की दिवार ना होती तो कम से कम हम एक दुसरे को ख़त तो लिख सकते. इस तरह दो जानी-दुश्मन देश के बाशिंदे कैसे एक दुसरे के दोस्त बन जाते हैं ये इस किस्से से पता चलता है.वैसे भी पाकिस्तान और हिंदुस्तान के बीच का झगडा तो सिर्फ राजनितिक है जिसे नेता लोग अपने-अपने फायदे के लिए हवा देते रहते हैं अगर लीडर इस तरह की हरकतें बंद कर दें तो कोई शक नहीं की ये दुश्मनी भी अपने आप ख़त्म हो जायगी
बहुत अच्छा लगा. आप के इस लेख ने मेरी आंखे नम करदीं। और शायद बिना लिखे नहीं रह सका.
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