आईपीएल के मैचों में मेरी रूचि कोई खास नहीं है। लेकिन बीते शनिवार को दिल्ली डेयरडेविल्स - पुणे वारियर्स का मैच बहुत कुछ सिखा गया। अपनी आक्रामक कप्तानी के लिए मशहुर सौरव गांगुली को 40 की उम्र में अपने से आधी उम्र के बच्चों को छकाते देखना एक अनुभव है। ये साबित करता है कि जो चैंपियन होते हैं, वो पिच पर खेले जाने से पहले मैच दिमाग़ में खेलते हैं। गांगुली जब अपना पहला ओवर फेंकने के लिए 20 गज के रन-अप से दौड़े, तो सच पूछिए मेरी रूह कांप उठी। अपने वक्त में लीग मैच और बाद में यूनिवर्सिटी टूर्नामेंटों के दौरान हमारे कोच एक ही बात कहते थे। वो कहते थे कि रन-अप उतना ही बड़ा होना चाहिए कि जिसे तुम्हारा शरीर संभाल सके। लंबा-चौड़ा और ताकतवर शरीर हो, तो तूफानी दौड़ संभाल सकता है। इसीलिए तेज़ गेंदबाज़ों को दूसरे खिलाड़ियों के मुकाबले ज़्यादा स्टेमिना की ज़रूरत होती है। लेकिन गांगुली के ढांचे का शरीर जब आंधी की तरह दौड़े, तो डर लगता है।
जानकार मानते हैं कि लंबे रन-अप का मतलब तभी है , जब आपके शरीर की स्पीड बॉल की स्पीड में बदल जाए, वर्ना हांफते-डांफते बॉलिंग करना बेकार है। गांगुली को पहली बॉल के लिए दौड़ते देख मुझे वैसा ही लगा। लेकिन पहली ही गेंद में दादा ने जब पीटरसन की गिल्लियां उड़ा दीं, तो उनके शरीर में जैसे रॉकेट लग गया हो। गांगुली को उस तरह उत्तेजना में दौड़ते देखना एक ऐतिहासिक अनुभव था। वैसा ही जैसा बरसों पहले लॉर्ड्स में अंग्रेज़ों को हराने के बाद उनका टी-शर्ट लहरा कर दर्शकों की ओर फेंकना। उत्तेजना में जब उन्होंने और तेज दौड़ लगा दी, तो 90 के दशक के गांगुली की याद हो आई। उसी ओवर में जब उनकी गेंद पर दो कैच छूट गए, तो उनका गुस्सा उनके पुराने तेवर की याद दिला गया। उन्हें अपने इसी तेवर की वजह से जाना जाता है। गांगुली वो कप्तान हैं, जिन्होंने टीम के खिलाड़ियों को किसी भी कीमत पर जीतना सिखाया। उन्हें पता था कि खिलाड़ी को मैदान में उतरने से पहले इतना भरोसा होना चाहिए कि उनके कप्तान को उन पर भरोसा है। इसीलिए फील्डिंग करने उतरे गांगुली ने जहां हमेशा अपने खिलाड़ियों की तरफदारी की, वहीं उन्होंने अपने सिपाहियों को ये भी हमेशा बताया कि मैदानमें कोई चूक वो बर्दाश्त नहीं करेंगे। इसीलिए पुराने मैचों की रिकॉर्डिंग अगर आप देखें , तो देख सकते हैं कि गांगुली को गुस्सा कब आता है।
ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों का हथियार उन्हीं के खिलाफ चलाने वाले वो पहले भारतीय कप्तान थे। इससे पहले कि ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ी स्लेजिंग करें, गांगुली वो हथियार चला देते थे। उनका सिद्धांत था कि अगर आक्रामक होने से जीत मिलती है, तो वो भी करेंगे। इसीलिए पहली बार विपक्षियों को हड़काते उन्हीं के वक़्त में देखा गया, वर्ना हम तो शराफत ओढ़कर, सब कुछ सुन कर , मुंह लटका कर चुपचाप चले आते थे। आप देखें तो ग्रेग चैपल से सीधे लोहा उन्होंने ही लिया। चैपल उन्हें नुकसान पहुंचा गए, लेकिन कप्तानी खोने के बाद दादा की फिर से वापसी हुई और मुझे याद है इसके लिए उन्हें शरद पवार की मदद भी लेनी पड़ी थी। लेकिन उन्होंने वापस मैदान पकड़ने के बाद शतक भी जमाया ।
हालांकि बुरे वक्त ने अभी साथ छोड़ा नहीं था। पहले आईपीएल में नाइटराइडर्स की कप्तानी की और बुरी तरह पिटे। दूसरे आईपीएल में कप्तानी चली गई..हार से खीझे शाहरुख ने ये कहकर कप्तानी किसी और को दे दी...कि टीम को एक नौजवान कप्तान चाहिए। चौथे आईपीएल तक आते आते तो ये हाल हो गया कि गांगुली बिके ही नहीं। किसी भी टीम को उनको खरीदने की हिम्मत नहीं हुई। अनबिके गांगुली टीवी पर कमेंट्री करने लगे। लेकिन पांचवें आईपीएल में पुणे वारियर्स ने उन्हें खरीदा ही नहीं, कप्तान भी बनाया। गिरना, फिर उठना और दौड़ना कोई सीखे तो गांगुली का उदाहरण सामने है। वो ज़िद्दी हैं जो चाहते हैं , उसके लिए मेहनत करते हैं, और फिर उसे पाने का सुख दूसरों को भी देते हैं। इसीलिए अपनी से आधी उम्र के खिलाड़ियों के सामने जब बीते शनिवार को गांगुली को मैन ऑफ द मैच का अवॉर्ड मिला, तो 'चैंपियन' की नई परिभाषा गढ़ी गई।
आज के ज़माने की टीम इंडिया का तानाबाना गांगुली ने ही बुना था। गांगुली से पहले किसी कप्तान की हिम्मत नहीं होती थी कि दिल्ली और मुंबई के खिलाड़ियों को छोड़कर किसी और पर जुआ लगा दे। छोटे छोटे कस्बों से खिलाड़ियों की प्रतिभा पहचान कर उन्हें मौका देने के लिए बड़ा दिल चाहिए। एक कप्तान का दिल। धोनी , कैफ से लेकर हरभजन और आरपी सिंह तक गांगुली की पैदावार हैं। इसीलिए शनिवार की शाम मान ऑफ द मैच का इनाम हाथ में पकड़े गांगुली को इस बात का संतोष ज़रूर होगा...कि वो अभी चुके नहीं हैं।
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