(आज़ाद होने की खुशी क्या होती है शायद ये हर वो इंसान जानता है जिसने किसी भी कैद की सांकले तोड़कर आज़ाद उड़ान भरी होगी। और उस उड़ान के बाद फिर किसी नई उड़ान की ख़्वाहिश की होगी। लेकिन आज़ादी की बात करते करते मैं कब आज़ादी की परिभाषा में उलझ गई, मुझे पता ही नहीं चला। शायद पिछले कुछ दिनों से बीमारी के बंधन में थी, इसलिए दिमाग में तैर रहे ख़्याल कागज़ पर भी बेझिझक उतर आए...)
-- कहां है आज़ादी
और कौन है आज़ाद
क्या आज़ादी का अर्थ
महज पद्रंह अगस्त का सालाना जश्न है
या फिर ख़ुद को आज़ाद कहने वाले
मुझ जैसो का मानसिक भ्रम है...
और कौन है आज़ाद
क्या आज़ादी का अर्थ
महज पद्रंह अगस्त का सालाना जश्न है
या फिर ख़ुद को आज़ाद कहने वाले
मुझ जैसो का मानसिक भ्रम है...
-- हैरान हूं उस परिभाषा पर
किताबी पढ़ाई में जो आजतक पढ़ती आई हूं
लेकिन ज़िदंगी की किताब
सिर्फ़ पढ़नी तो नहीं होती
उसे तो लम्हा दर लम्हा जीना होता है
जीने की हर अदनी कोशिश में
कब गुलाम, कब आज़ाद हुए
इतना इल्म ही कहां रहता है....
किताबी पढ़ाई में जो आजतक पढ़ती आई हूं
लेकिन ज़िदंगी की किताब
सिर्फ़ पढ़नी तो नहीं होती
उसे तो लम्हा दर लम्हा जीना होता है
जीने की हर अदनी कोशिश में
कब गुलाम, कब आज़ाद हुए
इतना इल्म ही कहां रहता है....
-- अजन्मी ज़िदंगी भी
सैंकड़ों रिश्तो का बोझ ढोए होती है
और जन्म लेने के बाद
घर-परिवार, परंपरा-रिवाज
वो भी कम पड़ जाए तो
देश-दुनिया और जाति-समाज
हर बढ़ता कदम
एक नए बंधन में बांधता है
बंधन में बंधी ज़िदंगी आज़ाद तो नहीं होती...
सैंकड़ों रिश्तो का बोझ ढोए होती है
और जन्म लेने के बाद
घर-परिवार, परंपरा-रिवाज
वो भी कम पड़ जाए तो
देश-दुनिया और जाति-समाज
हर बढ़ता कदम
एक नए बंधन में बांधता है
बंधन में बंधी ज़िदंगी आज़ाद तो नहीं होती...
-- बंधनो को निभाने के लिए,
कभी कुछ पाने के लिए,
तो कभी कुछ न खोने के लिएदांव पर दांव लगाते हैं
दबाव में जीना सीख जाते हैं
आज़ादी गंवाते जाते हैं...
कभी कुछ पाने के लिए,
तो कभी कुछ न खोने के लिएदांव पर दांव लगाते हैं
दबाव में जीना सीख जाते हैं
आज़ादी गंवाते जाते हैं...
--ये माना मैंने
ज़िदंगी अकेले जी नहीं जाती
लेकिन सच ये भी है कि
बंधन में आज़ादी मिल नहीं पाती
बस जवाब इतना मुझे दे दो
कौन हो सकता है आजाद
इंसानी दिल, दिमाग़, तन
या फिर आत्मन
या कोई और हिस्सा भी है जो
आज़ादी की परिधि में आता है...
Posted by--- Meenakshi Kandwal
ज़िदंगी अकेले जी नहीं जाती
लेकिन सच ये भी है कि
बंधन में आज़ादी मिल नहीं पाती
बस जवाब इतना मुझे दे दो
कौन हो सकता है आजाद
इंसानी दिल, दिमाग़, तन
या फिर आत्मन
या कोई और हिस्सा भी है जो
आज़ादी की परिधि में आता है...
Posted by--- Meenakshi Kandwal
2 comments:
बहुत सुंदर.....दोनो रचना।
जब भगवन ने ही इन्सान को आजाद बना कर नहीं भेजा तो इन्सान की क्या बिसात जो वो अपने आप को आजाद घोषित कर सके कभी वो किस्मत का दास है तो कभी परिस्थितिओं का गुलाम न मौत पर अपना जोर है और न जिन्दगी की बागडोर ही अपने हाथ में है जो ताकतवर है वो कमजोर को अपने हिसाब से नचाता है फिर उस पहले ताकतवर के साथ कोई दूसरा अन्य ताकतवर भी येही कहानी दोहराता है इस तरह ये सिलसिला चलता रहता है तो इस तरह से गुलामी ही शाश्वत है और ये ही जिन्दगी है इसके बावजूद कविता काफी अच्छी है राकेश जी स्वान वाली कहानी में अभी तक लोगों की दिलचस्पी बरक़रार है यदि राकेश जी उस कहानी को पूरा कर दें तो हमें काफी अच्छा लगेगा
आपका
मनोज कुमार तिवारी
Post a Comment