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रिश्तों का पद्मश्री




प्रतिभा पाटिल लगातार रोए जा रही थीं...राष्ट्पति नहीं .... (यही तो अंतर है) मुंबई पुलिस के कांस्टेबल जयंत पाटिल की बेवा-प्रतिभा पाटिल। जयंत को 26 नवंबर को मुंबई हमले में आतंकियों ने गोलियों का शिकार बनाया था। जिस वक्त हमला हुआ वो उस वक्त अपने अफसरों - हेमंत करकरे,काम्टे और विजय सालस्कर के साथ एक पुलिस जीप में बैठकर कामा अस्पताल जा रहे थे। आतंकियों ने इनमें से किसी को हिलने का मौका नहीं दिया और सामने बैठे तीनों अफसरों और पीछे बैठे दोनों सिपाहियों को भून दिया। क्या हुआ - ये बताने के लिए जाने कैसे - एक कांस्टेबल बच गया और उसीने सारी कहानी बताई। प्रतिभा के रोने की कहानी यहां से शुरू होती है। जीप में आगे बैठे तीनों अफसरों को वीरता के पदक अशोक चक्र से नवाजा गया लेकिन पीछे मारे गए सिपाहियों को सरकारी फाइलें भूल गईं। कांस्टेबल जयंत पाटिल की बेवा इसीलिए रो रही थी.....आखिर उसके पति की वीरता उस जीप में बैठे किस से कम थी। उसका मूक सवाल यही था। तो क्या पुरस्कार रौब-दाब और हैसियत को देख कर तय किए जाते हैं। कम से कम ऐश्वर्य राय को पद्मश्री देने के फैसले ने तो इसी बात की तस्दीक की है। सरकारी पुरस्कारों का कोई मतलब नहीं होता ...ये तो सबको पता है। लेकिन बांटने में अंधेरगर्दी होगी ..ये इस बार ही पता चला। सूरमा भुला दिए गए...और बड़े लोगों पर प्रतिभा लाद दी गई। अमिताभ बच्चन की बहू (अभी इन्हें ऐसे ही जाना जा सकता है)ऐश्वर्य को पद्मश्री से नवाज़ा गया है-क्यों -किसी को पता नहीं। शायद ऐश्वर्य को भी नहीं। उनके ससुर जी ने अपने ब्लॉग में अपने परिवार और पद्म पुरस्कारों के रिश्तों का बखान भी किया। कहा-परिवार में ये पांचवा पुरस्कार और प्रतिष्ठा लाया है। मेरी समझ में ये सारे 2008 के पुरस्कार हैं और 2008 में ऐश्वर्य ने सिर्फ एक फिल्म की है-जोधा अकबर। जिन लोगों ने ये फिल्म देखी है और अभिनय समझते हैं...वो जानते हैं कि ऐश की एक्टिंग के नमूने याद करने के लिए दिमाग पर ज़ोर डालना होगा। कौन सा ऐसा दृश्य है जहां - लगा हो कि ऐश ने सबकी छुट्टी कर दी। लेकिन सरकारी हिसाब किताब ऐसे ही चलता है। कहते हैं कि अमर सिंह ने बिग बी की इस मामले में भी मदद की है...अगर ऐसा है तो ये रिश्तों का पद्मश्री उन्हें ही मुबारक। लेकिन काश...बॉक्सिंग में ओलंपिक में पदक लाने वालों के लिए भी कोई अमर सिंह आता । खैर उन्हें भुला दिया गया और सरकारी बाबुओं को अभिनव बिंद्रा याद रहे। हर साल इन पुरस्कारों के लिए सिफारिशों का जो दौर नॉर्थ ब्लॉक-साउथ ब्लॉक में चलता है , वो लोग उससे अच्छी तरह जानते हैं। और शायद इसीलिए साल दर साल ये पुरस्कार अपनी चमक खोते जा रहे हैं। बहादुरी के इनामों की बात भी कर लें।

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3 comments:

नीरज गोस्वामी said...

अँधा बांटे रेवडी....वाला हिसाब है जी...इसीलिए कोई देखता भी नहीं कि किसे क्या पुरूस्कार मिला है...याद रखने कि बात तो छोड़ ही दीजिये.
नीरज

सुप्रतिम बनर्जी said...

आपके सारे तर्कों से तो शायद मैं सहमत ना भी होऊं, लेकिन एक ही जीप में बैठे शहीद कांस्टेबल की वीरता अफ़सरों के मुक़ाबले कहां कम थी, ये सवाल सोलह आने सही और दमदार है। ऐसे कानेपन से बचने की ज़रूरत है। सरकार ने पुरस्कार बांटने से पहले शहीदों की लिस्ट ही निकलवा ली होती, तो शायद पाटील जैसे लोग याद आ जाते।

नटखट बच्चा said...

आप जल गये ,है न .अमर सिंह अंकल से शिकायत कर दूँगा आपकी .