44 साल के विकास स्वरूप दक्षिण अफ्रीका में भारत के डिप्टी हाईकमिश्नर हैं। इलाहाबाद के हैं और मुझसे कुछ साल बड़े हैं , इसलिए उनकी ख्याति अच्छी भी लगती है। उन्होंने दो साल पहले एक उपन्यास लिखा-Q & A. अंग्रेज़ी में लिखी ये उपन्यास लेकर वो भारत के दो-चार बड़े फिल्म बनाने वालों के पास गए-लोगों ने कहा ठीक तो है लेकिन बॉक्स ऑफिस का क्या करेंगे......फिर पैसे हम नहीं दे पाएंगे....विकास उल्टे पांव लौट आए...कालांतर में डैनियल बॉयल ने उनकी वो किताब पढ़ी जो इतनी लोकप्रिय हो गई थी कि बॉयल ने तुरंत उसके अधिकार खरीद लिए। इस फिल्म में जो भूमिका अनिल कपूर ने निभाई है , उसके लिए वो पहले अमिताभ बच्चन के पास गए...लेकिन उन्होंने इसके लिए मना कर दिया। उन्हें शायद इज्जत में बट्टा लगता दिखाई दिया। फिर वो शाहरुख के पास गए...शाहरुख अपने बगीचे में बागवानी कर रहे थे...खुरपी से मिट्टी खोदते खोदते उन्होंने बॉयल से बात की। खान के पास शायद टाइम ही नहीं था ऐसी फिल्मों के लिए। हारकर ब़ॉयल ने अनिल कपूर को लिया। अब वही फिल्म वाहवाही बटोर रही है , तो इन दोनों को और इनके परिवार वालों को बुरा लग रहा है। असल बात भइया यही है। मुंबई में एक्टरों की राजनीति ऐसी है कि बिल्कुल केकड़ों के जैसी।
खैर अपन ने इनमें से कई लोगों से खुद बात की है...और अपन अब इसी नतीजे पर पहुंचे हैं कि अच्छी फिल्म हो तो बिना भाषा के देखो , मज़ा लो।
लेकिन जो बड़ा मुद्दा है वो आप सब लोग मिस कर गए। मुद्दा ये कि -हर भाषा के उतकृष्ट साहित्य से भरपूर इस देश में लोग हिंदी, बांग्ला या तमिल तेलुगू का साहित्य क्यों नहीं पढ़ते। अपने बच्चों को तो हम अंग्रेज़ी स्कूलों में पढ़ाते हैं लेकिन उन्हें हिंदी के उपन्यास नहीं पढ़ाते...क्यों..सोचिएगा-जवाब मिल जाएगा।
स्लमडॉग के बहाने...
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5 comments:
क्या सही बात कही है सर जी आपने। पढ़ने से लोगों का दूर-दूर का नाता नहीं रहा है। वरना ऐसी हालत नहीं होती। रही बात बॉलीवुड के हीरो लोगों की तो उन्हें लगता है, जब तक मसाला नहीं होगा फिल्म में काम करने का क्या फायदा। लेकिन हमारी धरती पर ही आकर एक विदेशी आदमी समझा गया कि हमारे हिंदी फिल्मी मसाले को कैसे उपयोग किया जाता है।
शायद भारतीय फिल्म उद्योग को ऐसे झटके की आवश्यक्ता थी। लेकिन आपकी अंतिम बात समज में नहीं आई, ज़रा खुद ही समझा दें।
मुझे तो लगता है कि आजकल लोग अपने बच्चों को साहित्य पढ़ने के लिए उत्साहित ही नहीं करते। सिर्फ़ एक बात का टॉनिक बच्चों को पिलाया जाता है कि मार्क्स चाहिए और वो भी 80-90%।
सर बात तो आप ने बहुत सही कही है पर विचार करने वाला सवाल ये नहीं है की देसी भाषा में लिखे गए साहित्य को पढ़ते कितने लोग है सवाल तो ये है की क्या लोग ये मोह छोड़ पातें हैं की देखो हम तो इंग्लिश पढने वाले लोग हैं देसी साहित्य से हमें क्या ? भारत में सो कॉल्ड हाई सोसाइटी के कहलाने वाले कितने लोग हैं जो देसी साहित्य की कोई किताब लेकर अपने जान-पहचान वालो के पास जा सकतें हैं आप पायेगे के ऐसे बहुत ही कम लोग हैं जिस देश में में लोगो को अपनी राष्ट्र भाषा में बात करने में शर्म आती हो वहां ये उम्मीद करना की लोग अपने देश के साहित्य का सम्मान करेंगे सरासर अपने आप को धोका देना हैं और इस तरह के सवाल उठाना भी बेमाने है
Let me watch the movie first but nice effort and i echoes your emotions :)
Mudita Singh
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