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जरनैल का जूता

इराक के पत्रकर जैदी ने मानों दुनिया भर के लोगों को एक रास्ता दिखा दिया है। जब हद हो जाए-तो क्या करे कोई। 1984 में सैकड़ों सिख मारे गये थे और आज 25 साल बाद उन दंगों के सारे आरोपी बाहर हैं। जैदी के ज़हन में था इराक की बर्बादी का सवाल...उसने जूता मारने से पहले बुश से कोई सवाल नहीं पूछा था। बरसों से अपने ज़ेहन में पनप रहे ग़ुस्से को ज़ैदी ने एक शक्ल दी-जूता फेंक दिया...सीधे साधे जरनैल सिंह भी मन से हिंसक नहीं हैं। मैं उन्हें कई दिनों से जानता हूं....अगर सरकार बदमाशी पर उतर आए तो कोई सीधा साधा आदमी हताशा में क्या कर सकता है ...जरनैल का ऐक्शन यही बताता है।

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9 comments:

Arun Arora said...

सही किया बंदे ने

इरशाद अली said...

100 perestn right

sarita argarey said...

जरनैल सिंह ने आम भारतीय के आक्रोश को अभिव्यक्ति दी है । व्यवस्था को हाथों की कठपुतली बनाने वाले नेताओं पर को सचेत हो जाना चाहिए कि कानून को अपने हिसाब से परिभाषित करने का सिलसिला अब और लम्बा चलने वाला नहीं है । ये आग़ाज़ है जन भावनाओं के उबलने का ।

Malaya said...

अफ़सोस यह है कि जूता बगल से निकल गया। लेकिन यह भी एक सच्चाई की ओर इशारा करता है। सिस्टम ही ऐसा है कि ये जूते के लायक नेता हर बार बच निकलते हैं।

मुझे लगता है कि इस देश की जनता इतनी पथभ्रष्ट, कुन्द और मूढ़ हो चली है कि लाख आक्रोश के बावजूद वह ऐसी ही सरकार को दुबारा चुन लेगी।

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

आज राजनीतिज्ञों के प्रति जनता में जो रोष है, उससे इस प्रकार की प्रतिक्रिया ही जन्म लेगी। लेकिन जरनैल सिंह ने पकड़े जाने के बाद माफी मांग ली, और कांग्रेस पार्टी ने दरियादिली दिखाते हुए उन्हें फौरन माफ़ भी कर दिया। यानि राजनीति एक बार फिर से विजयी हुई। वही राजनीति जिसके विरुद्ध सबके मन में रोष है।

Unknown said...

great man

Unknown said...

aapki is post ko ratlam, Jhabua(M.P.), dahood(Gujarat) se Prakashit Danik Prasaran me prakashit karane ja rahan hoon.

kripaya, aap apan postal addres send karen, taki aapko ek prati pahoonchayi ja saken.

pan_vya@yahoo.co.in

Yogesh Gautam said...

acha kya जरनैल सिंह ने

Unknown said...

मेरे विचार से जरनैल सिंह को इस तरह की हरकत बतौर पत्रकार नहीं करनी चाहिए थी वो उस प्रेस कांफ्रेंस में वैक्तिगत तौर पर शामिल नहीं हुए थे, वहां वो सिर्फ पत्रकार थे ना की किसी समुदाय के नुमाइंदे अगर उन्हें अपना आक्रोश व्यक्त करना ही था तो उन्हें किसी और मंच का इस्तेमाल करना चाहिए था अगर वो आम आदमी के रूप में वहां गए होते तो उन्हें वहां घुसने ही ना दिया गया होता. उन्होंने पत्रकारिता के इथिक्स के खिलाफ काम किया है. मैं भी इस बात से पूर्ण रूप से सहमत हूँ की सिखों को आज तक इन्साफ नहीं मिला है पर इसका ये मतलब नहीं की आप अपनी आवाज उठाने के लिए गलत मंच का इस्तेमाल करेंगे.जिस तरह की मिस्साल ये लोग पत्रकारों को मिली सुवधाओं का लाभ उठा कर कायम कर रहे हैं उसे देखते हुए कहा जा सकता है की वो दिन दूर नहीं जब कोई भी पत्रकारों से मिलने से पहले दो बारी अपनी सुरक्षा के बाबत सोचेगा