और सियाराम मर गया..उस चिट्ठी का इंतज़ार करते करते जो शायद उसके बेटे को नकली पैरों का एक जोड़ा दिलाती...अपनी बेचारगी से उपजने वाली शर्मिंदगी से निजात दिलाती..18 बरस का उसका जवान बेटा साल भर पहले ट्रेन से गिरकर रेल के पहियों के नीचे आ गया...और अपने दोनों पैर गंवा बैठा..उसका दुख हमारी एक रिपोर्टर से देखा नहीं गया और उसने सियाराम की मदद करने की ठान ली। कोशिशें शुरू हुईं सियाराम को सरकार की ओर से मदद दिलाने की। पता चला कि एक लाख रुपये का खर्चा है ...मंत्री जी चाहेंगे तो अपनी ओर से मदद दिलवा देंगे...ये भी कि सियाराम के बेटे को जो नकली पैर लगाए जाएंगे उनसे वो चलने लगेगा..कमोबेश वैसे ही जैसे हादसे से पहले चलता था। सियाराम हमारे ऑफिस का ड्राइवर था और उसकी माली हालत ऐसी नहीं थी कि एक लाख रुपये का जुगाड़ कर पाता। एक लाख तो क्या...वो तो अपने उस बुखार की भी दवा नहीं कर पाया जिसे उसने मामूली समझा था और जिसने आखिर उसकी जान ही ले ली। खैर...साहब, सियाराम के बेटे को नकली पैर दिलाने के लिए नकली कोशिशें शुरू हो गईं।
कोशिशों को नकली बड़े भारी मन से कह रहा हूं..इसलिए कि उन सारी कोशिशों में कुछ कोशिशें मेरी ओर से भी थीं...और सियाराम के जीते जी उसके बेटे के पैर नहीं लग पाए..तो कोशिशें नकली ही समझिए.... ये मलाल मुझे अब भी खाए जा रहा है। रिपोर्टर की हैसियत होती है , कुछ यही सोच कर मैंने अपने एक रिपोर्टर को ये इमोशनल सी ज़िम्मेदारी सौंपी..कि वो अपने 'रिश्तों'के चलते उसे वो एक लाख रुपया दिलवा पाए जो सियाराम के बेटे को चाहिए। सुबह सुबह मैं जैसे ही अपनी कुर्सी पर आकर बैठता..उदास सियाराम सामने आ खड़ा होता..नि:शब्द...मूक। सच बता रहा हूं..मैं उसे आते देखता नहीं था ...लेकिन आभास हमेशा हो जाता था कि वो आकर खड़ा हो गया है....उसके सवाल जो वो कभी पूछता नहीं था..यकीन करिये.. बहुत तीखे होते थे.....मुझे पता होता था--वो कह रहा है ...साहब अब तक कुछ हुआ नहीं.....। अब लगता है सियाराम आर के लक्ष्मण के कार्टूनों का वो 'आम आदमी' था जो कभी कुछ बोलता नहीं है..हमेशा वो सब देखता रहता है जो उसके सामने हो रहा है। 'वो'कुछ कर नहीं सकता...बस गवाह है उन सारी अकर्मण्यताओं का , सारी नपुंसकताओं का जो हमारे शरीरों में भर दी गई है...और जैसे किसी बोरे में कुछ भरकर सूजे से सिल दिया जाए...वैसे ही कुछ ।
सियाराम की अर्जी जिस दिन से सरकारी फाइलों में लगी ...उसके जैसे पंख लग गए....फाइल थी कि जैसे हवाई जहाज़...खूब उड़ी...कभी अफसर छुट्टी पर ..तो कभी मंत्री दौरे पर..कभी होली की छुट्टियां तो कभी दीवाली की....इस बीच एलेक्शन भी सिर पर आ गया...अब मंत्री जी ढ़ंढे नहीं मिल रहे। खैर ...मंत्री के लिए देश और उसकी जनता पहले है...इसलिए सियाराम थोड़ा 'पीछे' रह गया। देश जब इन सारी 'ज़रूरी' जद्दोजहद से गुज़र रहा था-एक दिन सियाराम मर गया। पता चला ..उसे बुखार हुआ था और उसके शब्दों में.. जाने क्यों उसका पीछा ही नहीं छोड़ रहा था। बुखार डेंगू साबित हुआ और उसने बीमार सियाराम की जान ले ली। वो मर गया लेकिन जाते जाते उसने हम सबकी पोल खोल दी। उसने ये बता दिया कि बात बात पर हांकने वाले पत्रकारों की हैसियत दरअसल क्या है.
उसने पोल खोल दी कि दुनिया भर की सच्चाई उजागर करने वाले भीतर से कितने कमज़ोर होते हैं...ये भी कि चौथे खंभे की असलियत क्या है। सवाल पूरे सिस्टम पर है। मंत्री जी जब दस्तखत करते हैं तो फाइल क्यों रुक जाती है...चल भी गई तो कागज अफसरों की टेबल पर पड़ा धूल क्यों फांक रहा होता है...किस्मत से काग़ज़ अगर चेक में तब्दील हो भी गया तो डाक में खो क्यों जाता है। और ऐसा सियाराम जैसे गरीब ड्राइवर के साथ ही क्यों होता है। देश में लाखों करोड़ों के चेक इधर से उधर आते - जाते हैं...फिर ऐसा सियाराम के साथ ही क्यों हुआ। रिपोर्टरों से अब नेता और अफसर डरते क्यों नहीं....एक सही बात की वकालत करते वक्त अब चौथा खंभा मिमियाने क्यों लगता है..और..चपरासी को अफसर का , अफसर को मंत्री का और मंत्री को जनता का डर क्यों नहीं है। मैं अब भी पसोपेश में हूं...समझ नहीं आता कि बीमार कौन था...देश या सियाराम।
रा.त्रि
कोशिशों को नकली बड़े भारी मन से कह रहा हूं..इसलिए कि उन सारी कोशिशों में कुछ कोशिशें मेरी ओर से भी थीं...और सियाराम के जीते जी उसके बेटे के पैर नहीं लग पाए..तो कोशिशें नकली ही समझिए.... ये मलाल मुझे अब भी खाए जा रहा है। रिपोर्टर की हैसियत होती है , कुछ यही सोच कर मैंने अपने एक रिपोर्टर को ये इमोशनल सी ज़िम्मेदारी सौंपी..कि वो अपने 'रिश्तों'के चलते उसे वो एक लाख रुपया दिलवा पाए जो सियाराम के बेटे को चाहिए। सुबह सुबह मैं जैसे ही अपनी कुर्सी पर आकर बैठता..उदास सियाराम सामने आ खड़ा होता..नि:शब्द...मूक। सच बता रहा हूं..मैं उसे आते देखता नहीं था ...लेकिन आभास हमेशा हो जाता था कि वो आकर खड़ा हो गया है....उसके सवाल जो वो कभी पूछता नहीं था..यकीन करिये.. बहुत तीखे होते थे.....मुझे पता होता था--वो कह रहा है ...साहब अब तक कुछ हुआ नहीं.....। अब लगता है सियाराम आर के लक्ष्मण के कार्टूनों का वो 'आम आदमी' था जो कभी कुछ बोलता नहीं है..हमेशा वो सब देखता रहता है जो उसके सामने हो रहा है। 'वो'कुछ कर नहीं सकता...बस गवाह है उन सारी अकर्मण्यताओं का , सारी नपुंसकताओं का जो हमारे शरीरों में भर दी गई है...और जैसे किसी बोरे में कुछ भरकर सूजे से सिल दिया जाए...वैसे ही कुछ ।
सियाराम की अर्जी जिस दिन से सरकारी फाइलों में लगी ...उसके जैसे पंख लग गए....फाइल थी कि जैसे हवाई जहाज़...खूब उड़ी...कभी अफसर छुट्टी पर ..तो कभी मंत्री दौरे पर..कभी होली की छुट्टियां तो कभी दीवाली की....इस बीच एलेक्शन भी सिर पर आ गया...अब मंत्री जी ढ़ंढे नहीं मिल रहे। खैर ...मंत्री के लिए देश और उसकी जनता पहले है...इसलिए सियाराम थोड़ा 'पीछे' रह गया। देश जब इन सारी 'ज़रूरी' जद्दोजहद से गुज़र रहा था-एक दिन सियाराम मर गया। पता चला ..उसे बुखार हुआ था और उसके शब्दों में.. जाने क्यों उसका पीछा ही नहीं छोड़ रहा था। बुखार डेंगू साबित हुआ और उसने बीमार सियाराम की जान ले ली। वो मर गया लेकिन जाते जाते उसने हम सबकी पोल खोल दी। उसने ये बता दिया कि बात बात पर हांकने वाले पत्रकारों की हैसियत दरअसल क्या है.
उसने पोल खोल दी कि दुनिया भर की सच्चाई उजागर करने वाले भीतर से कितने कमज़ोर होते हैं...ये भी कि चौथे खंभे की असलियत क्या है। सवाल पूरे सिस्टम पर है। मंत्री जी जब दस्तखत करते हैं तो फाइल क्यों रुक जाती है...चल भी गई तो कागज अफसरों की टेबल पर पड़ा धूल क्यों फांक रहा होता है...किस्मत से काग़ज़ अगर चेक में तब्दील हो भी गया तो डाक में खो क्यों जाता है। और ऐसा सियाराम जैसे गरीब ड्राइवर के साथ ही क्यों होता है। देश में लाखों करोड़ों के चेक इधर से उधर आते - जाते हैं...फिर ऐसा सियाराम के साथ ही क्यों हुआ। रिपोर्टरों से अब नेता और अफसर डरते क्यों नहीं....एक सही बात की वकालत करते वक्त अब चौथा खंभा मिमियाने क्यों लगता है..और..चपरासी को अफसर का , अफसर को मंत्री का और मंत्री को जनता का डर क्यों नहीं है। मैं अब भी पसोपेश में हूं...समझ नहीं आता कि बीमार कौन था...देश या सियाराम।
रा.त्रि
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