गांधी जी चाहते तो भगत सिंह को बचा सकते थे...नहीं , बल्कि यूं कहा जाए कि गांधी चाहता तो भगत सिंह को बचा सकता था। भगत को चाहने और ' मानने ' वाले लोगों के बीच यह जुमला काफी इस्तेमाल होता है। हालांकि ऐसा कहने वालों में से अधिकतर नहीं जानते कि ऐसा क्यों कहा जाता है और भगत सिंह को गांधी जी कैसे बचा सकते थे। फिर भी लोग ऐसा कहते हैं। मानते भी हैं। लेकिन क्या वाकई भगत सिंह को गांधी ने मारा ? भगत ने जेल से कई चिट्ठियां लिखी थीं। उन्हीं में एक में उन्होंने लिखा था कि भगत सिंह मर नहीं सकता। अंग्रेज एक भगत सिंह को फांसी पर लटकाएंगे तो हजारों-लाखों भगत सिंह पैदा होंगे। इसलिए आप लोग इस बात का मलाल मत कीजिए कि अंग्रेज सरकार भगत सिंह को फांसी पर लटकाने जा रही है।
भगत को जब फांसी दी गई , तो वह एक इंसान , एक क्रांतिकारी या एक देशभक्त नहीं थे। वह एक सोच थे , जिसने लोगों के दिल-ओ-दिमाग में घर कर लिया था। वह एक जज्बा थे , जो हर खून में उबाल ले रहा था। वह एक अहसास थे , जिसे उस वक्त हर इंसान जी लेना चाहता था। इसीलिए अंग्रेज भगत सिंह को मार नहीं सके। तो फिर भगत सिंह को किसने मारा ? भगत सिंह की मौत के लिए गांधी को कोसने वालों ( और नहीं कोसने वालों) के भीतर क्या भगत सिंह नाम की वह सोच , वह जज्बा , वह अहसास जिंदा है ? सरेआम एक प्रफेसर का कत्ल कर दिया जाता है। गवाही देने वालों के लाले पड़ जाते हैं। सैकड़ों लोगों की मौजूदगी में हुई घटना का एक भी गवाह नहीं। क्या वे सब लोग ' अन्याय के खिलाफ लड़ने का आह्वान करने वाले ' भगत सिंह के कातिल नहीं हैं ?
भरी पार्टी में जेसिका लाल का कत्ल होता है। लेकिन कातिल को किसी ने नहीं देखा। क्या वे लोग भगत सिंह के कातिल नहीं हैं ? रेप तो अपराध हो गया , लेकिन चलते लड़कियों को छेड़ने , तानाकशी करने वाले और भीड़ में चोरी से छूने की कोशिश करने वाले लोगों को क्या कहा जाएगा ? क्या वे भगत सिंह के कातिल नहीं हैं ? करीब-करीब हर रोज हजारों लोगों को इसलिए नीचा देखना पड़ता है क्योंकि वे ' छोटी ' जाति के लोग हैं। ' पांच दलितों को जिंदा जलाया ' खबर का सिर्फ हेडिंग देखकर छोड़ देने वाले हम नौजवान क्या ' समान समाज का सपना ' देखने वाले भगत सिंह के कातिल नहीं हैं ? मराठी, बिहारी, साउथ इंडियन, नॉर्थ इंडियन, पंजाबी, गुजराती के नाम पर बहस करने वाले क्या उस भगत सिंह के कत्ल में शामिल नहीं हैं, जिसने सारी दुनिया के एक हो जाने का ख्वाब देखा था ? ये तो बहुत बड़ी-बड़ी बातें हैं। बिना टिकट सफर , ट्रैफिक नियम तोड़ने पर पुलिसवाले को 50-100 रुपये देकर छूटना , लाइन में न लगना पड़े इसलिए किसी की सिफारिश ढूंढना , कोई बड़ा काम आन पड़े तो जुगाड़ ढूंढना , वोट देने से पहले सोचना कि यह हमारी जाति का है या हमारे काम करवाएगा या नहीं वगैरह तो अब अपराध है ही नहीं। क्या इस तरह भगत सिंह कत्ल नहीं होता ?
भगत सिंह तो सब चाहते हैं, लेकिन पड़ोसियों के घर। इस कहावत को सुनकर हंस देने वाला हर आदमी क्या भगत सिंह का कातिल नहीं है ? आज भगत सिंह , राजगुरु और सुखदेव की पुण्यतिथि है। हममें कितने लोगों को यह बात याद थी ? और कितने लोगों को इस बात से फर्क पड़ता है कि आज के दिन वे तीन नौजवान शहीद हुए थे ? कौन है भगत सिंह का असली कातिल ? और उससे भी अहम बात यह है कि जहां-कहीं थोड़ा-बहुत भगत सिंह जिंदा है, उसे बचाने के लिए क्या किया जाए ?
वाकई भगत सिंह को गांधी ने मारा?
कट गई ...नाक
नाक कट गई खुलेआम। बेईमान तो हम तब भी थे, अब भी हैं। लेकिन पहले सब कुछ ढंका-छुपा था, अब सारी पोल खुल गई है। खेलों के 10 दिन पहले न्यूज़ीलैंड, ऑस्ट्रेलिया ने ऐलान कर दिया कि खेलों में उनकी जो टीमें आएंगी , उनकी सुरक्षा वो खुद करेंगे। ज़रा सोचिए, एयरपोर्ट पर टीम के उतरते ही सारे देशों की सुरक्षा एजेंसियां अगर अपने अपने काम में जुट जाएं तो क्या होगा। सबसे पहले भारत की एजेंसियां उनकी सुरक्षा जांच करेंगी.....फिर खिलाड़ियों की करेंगी। उसके बाद विदेश सुरक्षा एजेंसियों के लोग भारतीय सुरक्षा एजेंसियों की जांच करेंगे। कहीं किसी के जूते-मोज़े में बम तो नहीं....कहीं किसी ने कोई छोटा चाकू तो नहीं छुपा रखा। सोचिए क्या नज़ारा होगा। ये हमारे रवैये पर भी तंज़ है, जिसके चलते हम सब हर चीज़ को ' हो जाएगा ' के अंदाज़ में देखते हैं। बात यहीं नहीं रुकी..अब तो ये भी पता चला है कि न्यूज़ीलैंड की टीमें खेलगांव के जिस टावर में रुकने वाली हैं , उसकी सफाई न्यूज़ीलैंड से बुलाए गए सफाईकर्मी करेंगे। इस पर खेलों की आयोजन समिति ने क्या जवाब दिया है , ये भी सुन लीजिए। उनका कहना है कि भाई सफाई के हमारे कुछ पैमाने (सब जानते हैं कि भारत मे साफ-सफाई का पैमाना क्या है) , न्यूज़ीलैंड के कुछ और हैं...हम कोशिश करेंगे कि उनके पैमाने के नज़दीक पहुंचें। अब आयोजन समिति इस बात पर विचार कर रही है कि न्यूजीलैंड के सफाईकर्मियों से ही क्यों न पूरे खेल गांव की सफाई करवा ली जाए। बहुत अच्छे...भई अंतर्राष्ट्रीय स्तर के खेल हो रहे हैं , तो उसमें सफाई से लेकर सुरक्षा भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर की होनी चाहिए। खैर अब बकरे की मोटी गर्दन काटने की तैयारी की जा रही है। कलमाडी के दिन गिने चुने रह गए हैं...लेकिन उन्हें अभी तक बख्शा क्यों गया था..इसका जवाब क्या है। शायद ये कि अगर पहले ही कलमाडी विदा कर दिए गए होते, तो आज किसकी नपती ? ज़ाहिर है शीला चाची की....तो चाची बच गईं ना..??? .इसीलिए कलमाडी अभी तक बचा कर रखे गए थे...बकरीद के दिन के लिए।
''मेरा चिर सुख''
सारे दिन की व्यस्तता के बाद भी
मेरे अहसास के कुञ्ज में
उन शुभागत ,बसंती पलों का ,
स्मरण कौंध जाता है,
अक्सर....
जब थक कर कुम्भ्लाती ॥
मेरी सुकुमार छवि को॥
पुनर्नवा बना देता था...
तुम्हारा एक स्नेहिल स्पर्श....
संग लिए लाड-प्यार॥
मनुहार और वो सब कुछ...
जिन्हें छलावा कहने को ॥
जी नहीं चाहता...
जिनमे घुल कर...
भूल जाती हूँ....
मै अपने सब दुःख....
आह मेरा ''चिर-सुख ''॥
(सुमन इलाहाबाद की एक कुशल गृहस्थिन हैं। घर बाहर पूरा उनकी अंगुलियों पर है। व्यस्तता किसी बड़ी कंपनी के सीईओ जितनी। लेकिन लिखना उनकी थकान कम करता है।)
जो बीत गई सो बात गई
जीवन में एक सितारा था
-डा. हरिवंशराय बच्चन
रमता जोगी, बहता पानी
रमता जोगी, बहता पानी
तेरी राम कहानी क्या...
आहट-आहट, चौखट-चौखट
बैरी नई पुरानी क्या...?
रातों के लम्हे भी मुझको
बिल्कुल वैसे ताजे हैं...
जैसे साखी, सबद, सवैये
कोई प्रेम कहानी क्या... ?
सागर, पत्ते, हवा, पहाड़ी
नदियां अभी रवानी हैं...
लेकिन सारी बातों मुझको
तुझको सुनी सुनानी क्या...?
आते जाते, रुकते चलते
अब भी नश्तर चुभता है...
जब जब कह देता है कोई
गा दूं तुझको हानी क्या...?
पागल, पागल होकर देखा
तेरे एक बहाने से
और तभी से दुनिया भर की
मुश्किल मुझको मानी क्या...?
- देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
इंशाजी उठो अब कूच करो
26/11, मुंबई और असली आतंकवादी
" समझ नहीं आता, तारीखों से क्या रिश्ता है... क्या 26/11 के ज़ख्मों से खून सिर्फ आज के हीं दिन रिसता है..... ??? "ये वो लाइनें हैं जो 26 नवंबर को लिख पाया बस... लेकिन जब से मुंबई का दौरा कर के लौटा था तब से हीं सोच रहा था कि इस बाबत कुछ लिखुंगा.... पर समय नहीं मिल पाया... 26/11 पर बनने वाली एक डॉक्यूमेंट्री के सिलसिले में मुंबई गया था.... 3 दिन शूट किया... हर उस जगह को करीब से देखा जहां की दीवारों, गलियों और सडकों तक से खून रिस रहा था एक साल पहले.... लोगों को भी देखा.... जिन्होंने ये सब देखा और झेला है.... जिनके आस-पास हादसा तो हुआ लेकिन वो महज़ viewer भर थे, उनके लिए 26/11 को याद करना, कैमरे के सामने सब बोलना, कहानी की तरह बताना.... बहुत मुश्किल नहीं था... कुछ तो शायद बोलते बोलते प्रोफेश्नल हो गये थे.... कामा हॉस्पिटल में एक शख्स मिला जिसने कसाब के साथ बीस मिनट बिताये थे.... और जिन्दा बच गया था.... मिलकर मुझे लगा कि शायद इसकी रुह तक कांप जाये हमें उस दिन के बारे में बताने में... लेकिन उसने तो टेक पर टेक दिये... सबकुछ इनऐक्ट कर के बताया.... यहां तक कि जब हम उससे पहली बार मिले और लिफ्ट का इंतज़ार कर रहे थे तो मैंने बातों बातों में उससे पूछा कि उस दिन हुआ क्या था... और उसने कहा... देखो साहब, बार बार नहीं बताउंगा... घबराओ मत, ऊपर चलो... सब ऐक्ट कर के दिखाउंगा... मेरे तो होश फाख्ता हो गये.... क्योंकि जब उसने कहा कि वो नहीं बताएगा तो मुझे लगा कि बेचारे के जख्म हरे हो जाते होंगे शायद बार बार बताने में लेकिन फिर लगा कि नहीं ये तो हैबिच्वुअल हो चुका है और अपना समय बरबाद नही करना चाहता....इंटरव्यू खत्म होने के बाद तस्वीर और साफ हुई कि उसे बस पैसे चाहिए थे.... थोड़े और............लोग हंस रहे थे.... मस्त थे... बेखौफ हर उस जगह, जहां हमला हुआ था, मौजूद थे.... मुझे लगा शायद प्रशासन की तैयारियों ने इस बेखौफी को जन्म दिया है... लेकिन उनसे बात करके पता चला कि नहीं, उनसब को पूरा यकीन था कि मुंबई पर दुबारा ऐसा हमला हो सकता है.... फिर क्या चीज़ थी जो उन्हें डरने नहीं दे रही थी.... इस सवाल को साथ लिए मुंबई से दिल्ली वापस आ गया....और इस बात का जवाब मिला मुझे 26/11 के दिन शो एंकर करते वक्त, जब एक 10 साल की बच्ची हमारे साथ मुंबई से लाइव बैठी.... मुंबई हमलों में उसने टांगे गंवा दी हैं और कसाब मामले की सबसे कम उम्र की गवाह है वो.... बातचीत ठीक चल रही थी... मैं शायद उसका दर्द उससे ज्यादा महसूस कर पा रहा था... पर शो के अंत में जब उसका धन्यवाद करने लगा तो वो अचानक बोल पड़ी कि मैं लोगों से कहना चाहती हूं कि मेरा स्कूल में ऐडमिशन कराओ, मुझे घर चाहिए और टीवी भी और....... वो बोल हीं रही थी साउंड इंजीनियर ने पीसीआर से उसका ऑडियो काट दिया.... मैं सन्न था... जैसे तैसे शो वाइंड अप किया.... और उस वक्त लगा कि मुंबई में जो देखा और उस मंज़र ने जो सवाल पैदा किए उनसब का जवाब इस छोटी सी बच्ची ने दे दिया.... हर दर्द, हर तकलीफ शायद कुछ पल के बाद नहीं लौटती लेकिन भूखे पेट की हीं तकलीफ ऐसी है जो हर कुछ घंटों के बाद मुंह बाये सामने खड़ी हो जाती है.... और इसीलिए, किसी को डर नहीं लगता किसी आतंकी हमले से, किसी कसाब से, किसी अबु इस्माइल से... या फिर कहूं कि ज्यादा देर डर नहीं लगता क्योंकि सबको पता है कि इनसे डर गए तो पेट की आग जला कर मार देगी.... आतंकियों से तो फिर भी 60 घंटे लड़ा जा सकता है,जंग जीती जा सकती है लेकिन भूखे पेट का आतंक 60 घंटे क्या, 6 घंटे में हीं वो दर्द देने लगता है जो शायद AK-47 की गोलियां भी न देती होंगी.... 26/11 के आतंकियों ने भी सबकुछ धर्म के नाम पर भले किया हो लेकिन वो भी अपने परिवार वालों को भूख के आतंक से दूर रखने के लिए हीं खुद सूली चढ़े.... ये भी एक सच है....और शायद सबसे बड़ा सच ये है कि हर दिन एक 26/11 है... जहां हम सब जिन्दा रहने की लड़ाई लड़ रहे हैं... और आतंकी भूख, घात लगाये बैठी है...
सुशांत सिन्हा