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इंशाजी उठो अब कूच करो



इंशाजी उठो अब कूच करो,

इस शहर में जी का लगाना क्या

वहशी को सुकूं से क्या मतलब,

जोगी का नगर में ठिकाना क्या

इस दिल के दरीदा दामन में

देखो तो सही, सोचो तो सही

जिस झोली में सौ छेद हुए

उस झोली को फैलाना क्या

शब बीती चाँद भी डूब चला

ज़ंजीर पड़ी दरवाज़े पे

क्यों देर गये घर आये हो

सजनी से करोगे बहाना क्या

जब शहर के लोग न रस्ता दें

क्यों बन में न जा बिसराम करें

दीवानों की सी न बात करे

तो और करे दीवाना क्या


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26/11, मुंबई और असली आतंकवादी

" समझ नहीं आता, तारीखों से क्या रिश्ता है... क्या 26/11 के ज़ख्मों से खून सिर्फ आज के हीं दिन रिसता है..... ??? "ये वो लाइनें हैं जो 26 नवंबर को लिख पाया बस... लेकिन जब से मुंबई का दौरा कर के लौटा था तब से हीं सोच रहा था कि इस बाबत कुछ लिखुंगा.... पर समय नहीं मिल पाया... 26/11 पर बनने वाली एक डॉक्यूमेंट्री के सिलसिले में मुंबई गया था.... 3 दिन शूट किया... हर उस जगह को करीब से देखा जहां की दीवारों, गलियों और सडकों तक से खून रिस रहा था एक साल पहले.... लोगों को भी देखा.... जिन्होंने ये सब देखा और झेला है.... जिनके आस-पास हादसा तो हुआ लेकिन वो महज़ viewer भर थे, उनके लिए 26/11 को याद करना, कैमरे के सामने सब बोलना, कहानी की तरह बताना.... बहुत मुश्किल नहीं था... कुछ तो शायद बोलते बोलते प्रोफेश्नल हो गये थे.... कामा हॉस्पिटल में एक शख्स मिला जिसने कसाब के साथ बीस मिनट बिताये थे.... और जिन्दा बच गया था.... मिलकर मुझे लगा कि शायद इसकी रुह तक कांप जाये हमें उस दिन के बारे में बताने में... लेकिन उसने तो टेक पर टेक दिये... सबकुछ इनऐक्ट कर के बताया.... यहां तक कि जब हम उससे पहली बार मिले और लिफ्ट का इंतज़ार कर रहे थे तो मैंने बातों बातों में उससे पूछा कि उस दिन हुआ क्या था... और उसने कहा... देखो साहब, बार बार नहीं बताउंगा... घबराओ मत, ऊपर चलो... सब ऐक्ट कर के दिखाउंगा... मेरे तो होश फाख्ता हो गये.... क्योंकि जब उसने कहा कि वो नहीं बताएगा तो मुझे लगा कि बेचारे के जख्म हरे हो जाते होंगे शायद बार बार बताने में लेकिन फिर लगा कि नहीं ये तो हैबिच्वुअल हो चुका है और अपना समय बरबाद नही करना चाहता....इंटरव्यू खत्म होने के बाद तस्वीर और साफ हुई कि उसे बस पैसे चाहिए थे.... थोड़े और............लोग हंस रहे थे.... मस्त थे... बेखौफ हर उस जगह, जहां हमला हुआ था, मौजूद थे.... मुझे लगा शायद प्रशासन की तैयारियों ने इस बेखौफी को जन्म दिया है... लेकिन उनसे बात करके पता चला कि नहीं, उनसब को पूरा यकीन था कि मुंबई पर दुबारा ऐसा हमला हो सकता है.... फिर क्या चीज़ थी जो उन्हें डरने नहीं दे रही थी.... इस सवाल को साथ लिए मुंबई से दिल्ली वापस आ गया....और इस बात का जवाब मिला मुझे 26/11 के दिन शो एंकर करते वक्त, जब एक 10 साल की बच्ची हमारे साथ मुंबई से लाइव बैठी.... मुंबई हमलों में उसने टांगे गंवा दी हैं और कसाब मामले की सबसे कम उम्र की गवाह है वो.... बातचीत ठीक चल रही थी... मैं शायद उसका दर्द उससे ज्यादा महसूस कर पा रहा था... पर शो के अंत में जब उसका धन्यवाद करने लगा तो वो अचानक बोल पड़ी कि मैं लोगों से कहना चाहती हूं कि मेरा स्कूल में ऐडमिशन कराओ, मुझे घर चाहिए और टीवी भी और....... वो बोल हीं रही थी साउंड इंजीनियर ने पीसीआर से उसका ऑडियो काट दिया.... मैं सन्न था... जैसे तैसे शो वाइंड अप किया.... और उस वक्त लगा कि मुंबई में जो देखा और उस मंज़र ने जो सवाल पैदा किए उनसब का जवाब इस छोटी सी बच्ची ने दे दिया.... हर दर्द, हर तकलीफ शायद कुछ पल के बाद नहीं लौटती लेकिन भूखे पेट की हीं तकलीफ ऐसी है जो हर कुछ घंटों के बाद मुंह बाये सामने खड़ी हो जाती है.... और इसीलिए, किसी को डर नहीं लगता किसी आतंकी हमले से, किसी कसाब से, किसी अबु इस्माइल से... या फिर कहूं कि ज्यादा देर डर नहीं लगता क्योंकि सबको पता है कि इनसे डर गए तो पेट की आग जला कर मार देगी.... आतंकियों से तो फिर भी 60 घंटे लड़ा जा सकता है,जंग जीती जा सकती है लेकिन भूखे पेट का आतंक 60 घंटे क्या, 6 घंटे में हीं वो दर्द देने लगता है जो शायद AK-47 की गोलियां भी न देती होंगी.... 26/11 के आतंकियों ने भी सबकुछ धर्म के नाम पर भले किया हो लेकिन वो भी अपने परिवार वालों को भूख के आतंक से दूर रखने के लिए हीं खुद सूली चढ़े.... ये भी एक सच है....और शायद सबसे बड़ा सच ये है कि हर दिन एक 26/11 है... जहां हम सब जिन्दा रहने की लड़ाई लड़ रहे हैं... और आतंकी भूख, घात लगाये बैठी है...

सुशांत सिन्हा

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'लौ' रौशन हो रही थी...

एक लौ रौशन करना मक़सद था..।
याद आ रहे थे पिछले साल के वो लम्हें जब आंखों से शहीद एनएसजी मेजर संदीप उन्नीकृष्णन के पार्थिव शरीर पर उनकी मां को बदहवास, रोते-बिलखते देखा था... उन इमोशन्स को कैश करवाने के लिए मुझे दृश्यों को "लुका-छिपी बहुत हुई, सामने आ जाना... कहां-कहां ढूंढा तुझे, थक गई है अब तेरी मां" गाने के साथ एडिट करवाने का आदेश मिला..। मेरे दोस्त मुझे बेहद मज़बूत दिल और कभी न रोने वाली लड़की के तौर पर जानते हैं लेकिन इस काम को करते वक्त कितनी बार दिल रोया.. कितनी बारे आंखें छलकी और कितनी बार लंबी सांस लेकर ख़ुद को संभाला.. मैं ही जानती हूं..।
26/11 की बरसी पर उन यादों को मोमबत्ती की लौ में रौशन देखना चाहती थी..।
जानना चाहती थी कि दिल्ली के दिलवाले कैसे 'ख़ामोशी' के साथ आवाज़ बुलंद करते हैं..। इसलिए रात को दफ़्तर से जल्दी छुट्टी लेकर इंडिया गेट की तरफ़ रुख़ किया..। ऑटो मैं बैठी थी लेकिन मन जैसे ख़्यालों के बोझ से मनभर हुआ जा रहा था... मैं क्या करुंगी वहां, क्या किसी से मेल-मुलाकात या बातचीत करुंगी, ख़ामोशी से उस लम्हें को महसूस करुंगी या फिर बस मोमबत्तियां जलाकर वापस लौट जाऊंगी..। लेकिन जैसे ही इंडिया गेट दिखाई दिया और मैं ऑटो से उतरकर उसके क़रीब पहुंची तो ख़्यालों का तूफ़ान थम चुका था..। शान और रौब के साथ खड़े इंडिया गेट की दीवार... और उसके नीचे ख़ुद को बेख़ौफ़ खड़ा पाकर... मन ने सलाम किया उन वीरों को जिनकी बदौलत मुझे वहां खड़े रहने की 'आज़ादी' नसीब थी..। मैं जैसे उस लम्हें में खो सी गई थी, फिर किसी ने अचानक आकर पूछा "Do you want to light a candle", मुझे अचानक याद आया कि हां एक 'लौ' जलाने के लिए ही तो आई हूं मैं..। मैंने उस शख़्स से वो मोमबत्ती ली और ठीक अमर जवान ज्योति के सामने जहां सब लोग मोमबत्तियां जला रहे थे... एक मोमबत्ती जला दी..। सैंकड़ों मोमबत्तियों की रौशनी में मुंबई हमलों के शहीदों की तस्वीर वाला बोर्ड झिलमिला रहा था..। नज़रों ने कहा वाह दिल्ली, मानना पड़ेगा वर्किंग डे पर भी वक़्त निकालकर तुम लोग यहां आए हों..। ख़ैर, नज़रों की ये वाहवाही बहुत देर तक बरक़रार नहीं रही... क्योंकि जब नज़रों ने आसपास के मंजर को थोड़ा और गहराई से समझना शुरू किया तो दिल टूट सा गया..।
चेहरों पर कोई गंभीरता नहीं थी, लोग इंडिया गेट पर अपनी उपस्थिति का सबूत देना चाहते थे, लिहाज़ा इंडिया गेट के हर कोने पर खड़े होकर तस्वीरें खिंचवाई जा रही थी..। पिकनिक स्पॉट की कमी को पूरा करने के लिए चाट-पकौड़ी, आइसक्रीम, चाय-कॉफ़ी, बच्चों के खिलौने और लड़कियों के साज-श्रृंगार का सामान बेच रहे रेहड़ी वाले भी अच्छी-ख़ासी तादाद में मौजूद थे..। मीडिया के कैमरामैन और अखबारों के फोटोग्राफर्स को चिंता थी कि कहीं कोई तस्वीर कैमरे में कैद होने से छूट न जाएं, और रही सही कसर सिगरेट फूंक रहे नौजवानों ने पूरी कर दी..। बस सुक़ून था तो इस बात का कि कम से कम कुछ माता-पिता तो ऐसे थे जो अपने बच्चों को इंडिया गेट पर मोमबत्ती जलाने का मतलब समझा रहे थे, या फिर कुछ बुज़ुर्ग (शायद आर्मी के रिटायर अधिकारी रहे होंगे) जिनकी आंखें मोमबत्तियों के उस नूर को सम्मान के साथ देख रही थी..।
मै किनारे एक मुंडेर पर बैठकर इंडिया गेट को क़रीब से महसूस कर रही थी..। शायद इतने क़रीब से जितना 22 सालों के सफ़र मे कभी महसूस नहीं किया था..। खुले आसमान के नीचे, अनजान चेहरों के बीच... मोमबत्तियों की लौ पर नज़रें टिकाए हुए, मैं कहीं ख़ुद को भी तलाश रही थी..।
रात डूब रही थी.. भीड़ छंट रही थी..। खुले आसमान के नीचे ठंड जैसे बदन का खून जमा रही थी... लेकिन कुछ था जो पिघल रहा था और 'लौ' रौशन हो रही थी..।

--मीनाक्षी कंडवाल

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मैं मां बन गया हूं... (कॉन्ट्राडिक्शन-5)



निष्ठुर... उसके फोन में मेरा नाम इसी नाम से दर्ज था, और मैंने अपनी फोनबुक में उसके बारे में दुष्ट लिख रखा था... मैं अक्सर अपनी प्रेमिकाओं के वो नाम भूल जाया करता था जो उनकी हाईस्कूल की मार्कशीट में दर्ज थे या जिनके साथ मेरी पहली मुलाकात उनसे हुई थी... ये बात शायद अजीब लगे लेकिन शहर बदलने के बाद मैं अपनी उस प्रेमिका को सिर्फ इसलिए नहीं ढूंढ पाया कि उसे बिट्टू के नाम से कोई नहीं जानता था...

यानी ये दूसरी प्रेमिका थी... (अगर मैंने कहीं अपने लेखन में सोलन की चिड़िया का भी जिक्र किया है तो फिर तीसरी...) बुरा होना इस दौर की समझदारी थी, इसलिए मैं उसे और वो मुझे अक्सर बुरे नामों से पुकारता था... मेरे कमरे की दीवारें छोटी थी, और उसकी छत को में एकटक देखता था और अक्सर उस पर लटकते सपने को तोड़ लेता था... उन दिनों में उनींदा रहने लगा था...

मैं अपनी बकवास और फ्रस्टेशन को किसी से न कह सकने की स्थिति में अक्सर कागज पर उतार देता, और तालियां बटोरता... मुझे इसकी आदत हो गई थी, और अब तुम्हारे बिना भी मैं आत्ममुग्ध हो सकता था...

उन दिनों में मां होना चाहता था और छत के पंखे के नीचे पसीने के तर तकिये को भूलकर घंटों दुनिया से बेहोश रहता था... दिमाग बाकी जिस्म से अलग होकर कहीं तैरने चला जाता था, या लगता था कि सिर्फ दिमाग सो गया है... बाकी बेहोश जिस्म देर तक जिंदा रहता था... और फिर मर कर ना जाने कैसे लौट आता था... जैसा भी था, अच्छा दौर था...

मैं तुम्हें अक्सर याद करने की कोशिश करता था... और जब बहुत सोचने पर भी तुम्हारा चेहरा... तुम्हारा रंग और तुम्हारी कोई पहचान मुझे याद नहीं आती तो मैं शराबी हो जाना चाहता था... मुझे लगता कि मैं तुम्हें न जानते हुए भी भावुक होना चाहता हूं... तुममें डूब मरना चाहता हूं... तुम्हें तमाम रंगों में से चुन लेना चाहता हूं और तुम्हारे माथे पर लाली मलना चाहता हूं... पर तुम मुझे याद नहीं आती थीं...

मैं उस दौर की उलझनों से निकलने के लिए बहस करता... सिगार पीता... या शायद बीड़ी... किसी दोस्त के कहने पर फोस्टर की बीयर और बैगपाइपर की शराब... और फिर इन सबसे निजात पाने के लिए कभी कभी तुम्हें याद कर लिया करता... इस सब से मैं अक्सर परेशान रहता और फिर और नशीला हो जाता...

मैं हमेशा चाहता कि तुम मेरा जिक्र करो... मेरा नाम लो और मै तुम्हें पुकार लूं... लेकिन न तो मुझे तुम्हारा नाम याद रहता और ना ही तुम्हें मेरा... और अचानक मुझे पता चलता कि मैं अब तक तुमसे नहीं मिला हूं... देर तक तकिये पर पसीना बहाता रहता और अक्सर पंखा चलाना भूल जाता... मैं अक्सर खामोशी में सोचता कि तुम्हारा अस्तित्व कैसा है...? मैं तुम्हारे लिए परेशान होना चाहता और तुम्हें ढूंढने की कोशिश करता...

मैं अक्सर तुम्हारे ना होने में होने की उम्मीद करता... कल्पनाओं में जीता... और तुम्हारे जिस्म की बनावट को अक्सर ओढा करता... मैं तुम्हें बेपनाह मोहब्बत करना सीख गया था... इसलिए तुम्हें जानना चाहता था... इसलिए मैं अक्सर तुम्हें पैदा कर लिया करता था...

तुम अगर उस दौर में होतीं तो मैं तुम्हारी मां बनता... वैसे तुम आज भी होतीं तो भी मैं मां ही बनता... हर बार तुममें खपने की कोशिश करता और निराश होकर बार बार आत्महत्या करता रहता... और इस तरह जीना सीखकर तुम्हें इस दुनिया का सामना करना सिखाता... मैं उन दिनों मां होना चाहता था... हर लड़के की तरह...
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9811852336

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मां देख रही है

मां नहीं है
बस मां की पेंटिंग है,
पर उसकी चश्मे से झाँकती आँखें देख रही हैं
बेटे के दुख
बेटा अपने ही घर में
अजनबी हो गया है
वह अल सुबह उठता है
पत्नी के खर्राटों के बीच
अपने दुखोंकी कविताएं लिखता है
रसोई में जाकर चाय बनाता है
तो मुन्डू आवाज सुनता है
कुनमुनाता है
फिर करवट बदल कर सो जाता है
जब तक घर जागता है
बेटा शेव कर नहा चुका होता है
नौकर ब्रेड और चाय का नाश्ता
टेबुल पर पटक जाता है
क्योंकि उसे जागे हुए घर को
बेड टी देनी है
बेड टी पीकर बेटे की पत्नी नहीं ,
घर की मालकिन उठती है
हाय सुरू ! सुरेश भी नहीं
कह बाथरूम में घुस जाती है
मां सोचती है
वह तो हर सुबह उठकर
पति के पैर छूती थी
वे उन्नीदें से उसे भींचते थे
चूमते थे फिर सो जाते थे
पर उसके घर में,
उसके बेटे के साथ यह सब क्या हो रहा है
बेटा ब्रेड चबाता काली चाय के लंबे घूंट भरता
सफेद नीली-पीली तीन चार गोली
निगलता अपना ब्रीफकेस उठाता है
कमरे से निकलते-निकलते उसकी तस्वीर के पास खड़ा होता है
उसे प्रणाम करता है और लपक कर कार में चला जाता है
माँ की आंखें कार में भी उसके साथ हैं
बेटे का सेल फोन मिमियाता है
माँ डर जाती है
क्योंकि रोज ही ऐसा होता है
अब बेटे का एक हाथ स्टीयरिंग पर है
एक में सेल फोन है,
एक कान सेलफोन सुन रहा है
दूसरा ट्रेफिक की चिल्लियाँ,
एक आँख फोन पर बोलते व्यक्ति को देख रही है
दूसरी ट्रेफिक पर लगी है
माँ डरती है
सड़क भीड़ भरी है
कहीं कुछ अघटित न घट जाए
पर शुक्र है बेटा दफ्तर पहुँच जाता है
कोट उतार कर टाँगता है
टाई ढीली करता है
फाइलों के ढेर में डूब जाता है
उसकी सेक्रेटरी बहुत सुन्दर लड़की है
वह कितनी ही बार बेटे के केबिन में आती है
पर बेटा उसे नहीं देखता
फाइलों में डूबा हुआ बस सुनता है,कहता है,
आंख ऊपर नहीं उठाता
मां की आंखें सब देख रही
हैं, बेटे को क्या हो गया है
बेटा दफ्तर की मीटिंग में जाता है
तो उसका मुखौटा बदल जाता है
वह थकान औ ऊब उतार कर
नकली मुस्कान औढ़ लेता है
बातें करते हुए जान बूझ कर मुस्कराता है
फिर दफ्तर खत्म करके घर लौट आता है
पहले वह नियम से क्लब जाता था
बेडमिंटन खेलता था दारू पीता था
खिलखिलाता था उसके घर जो पार्टियां होती थीं
उनमें जिन्दगी का शोर होता था
पार्टियां अब भी होती हैं पर
जैसे कम्प्यूटर पर प्लान की गई हों
चुप चाप स्कॉच पीते मर्द,
सोफ्ट ड्रिक्स लेती औरतें
बतियाते हैं मगर जैसे नाटक में रटे रटाए संवाद बोल रहे हों
सब बेजान सब नाटक,
जिन्दगी नहीं
बेटा लौटकर टीवी खोलता है
खबर सुनता है फिरअकेला पैग लेकर बैठ जाता है
पत्नी बाहर क्लब से लौटती है
हाय सुरू! कहकर अपना मुखौटा ,साजसिंगार उतार कर
चोगे सा गाऊन पहन लेती है
पहले पत्नियाँ पति के लिए सजती संवरती थी
अब वे पति के सामने लामाओं जैसी आती हैं
किस के लिए सज संवर कर क्लब जाती हैं
मां समझ नहीं पाती है
बेटा पैग और लेपटाप में डूबा है
खाना लग गया है
नौकर कहता है
घर-डाइनिंग टेबुल पर आ जमा है
हाय डैडी! हाय पापा!उसके बेटे के बेटी-बेटे मिनमिनाते हैं
और अपनी अपनी प्लेटों में डूब जाते हैं
बेटा बेमन से कुछ निगलता है फिर बिस्तर में आ घुसता है
कभी अखबार कभी पत्रिका उलटता है
फिर दराज़ से निकाल कर गोली खाता है
मुँह ढक कर सोने की कोशिश में जागता है
बेड के दूसरे कोने पर बहू के खर्राटे गूंजने लगते हैं
बेटा साइड लैंप जला कर
डायरी में अपने दुख समेटने बैठ जाता है
मां नहीं है, उसकी पेंटिंग है
उस पेंटिंग के चश्मे के पीछे से झांकती मां की आंखे
देख रही हैं
घर-घर नहीं रहा
होटल हो गया है
और उसका अपना बेटा महज एक अजनबी।
--श्याम सखा ‘श्याम'
(यह कविता किसी ब्लॉग पर पढ़ी और यहां उतार दी, कवि को जानता नहीं , इसलिए क्षमाप्रार्थना समेत छाप रहा हूं)

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....और सियाराम मर गया

.....और सियाराम मर गया..उस चिट्ठी का इंतज़ार करते करते जो शायद उसके बेटे को नकली पैरों का एक जोड़ा दिलाती...अपनी बेचारगी से उपजने वाली शर्मिंदगी से निजात दिलाती..18 बरस का उसका जवान बेटा साल भर पहले ट्रेन से गिरकर रेल के पहियों के नीचे आ गया...और अपने दोनों पैर गंवा बैठा..उसका दुख हमारी एक रिपोर्टर से देखा नहीं गया और उसने सियाराम की मदद करने की ठान ली। कोशिशें शुरू हुईं सियाराम को सरकार की ओर से मदद दिलाने की। पता चला कि एक लाख रुपये का खर्चा है ...मंत्री जी चाहेंगे तो अपनी ओर से मदद दिलवा देंगे...ये भी कि सियाराम के बेटे को जो नकली पैर लगाए जाएंगे उनसे वो चलने लगेगा..कमोबेश वैसे ही जैसे हादसे से पहले चलता था। सियाराम हमारे ऑफिस का ड्राइवर था और उसकी माली हालत ऐसी नहीं थी कि एक लाख रुपये का जुगाड़ कर पाता। एक लाख तो क्या...वो तो अपने उस बुखार की भी दवा नहीं कर पाया जिसे उसने मामूली समझा था और जिसने आखिर उसकी जान ही ले ली। खैर...साहब, सियाराम के बेटे को नकली पैर दिलाने के लिए नकली कोशिशें शुरू हो गईं। कोशिशों को नकली बड़े भारी मन से कह रहा हूं..इसलिए कि उन सारी कोशिशों में कुछ कोशिशें मेरी ओर से भी थीं...और सियाराम के जीते जी उसके बेटे के पैर नहीं लग पाए..तो कोशिशें नकली ही समझिए.... ये मलाल मुझे अब भी खाए जा रहा है। रिपोर्टर की हैसियत होती है , कुछ यही सोच कर मैंने अपने एक रिपोर्टर को ये इमोशनल सी ज़िम्मेदारी सौंपी..कि वो अपने 'रिश्तों'के चलते उसे वो एक लाख रुपया दिलवा पाए जो सियाराम के बेटे को चाहिए। सुबह सुबह मैं जैसे ही अपनी कुर्सी पर आकर बैठता..उदास सियाराम सामने आ खड़ा होता..नि:शब्द...मूक। सच बता रहा हूं..मैं उसे आते देखता नहीं था ...लेकिन आभास हमेशा हो जाता था कि वो आकर खड़ा हो गया है....उसके सवाल जो वो कभी पूछता नहीं था..यकीन करिये.. बहुत तीखे होते थे.....मुझे पता होता था--वो कह रहा है ...साहब अब तक कुछ हुआ नहीं.....। अब लगता है सियाराम आर के लक्ष्मण के कार्टूनों का वो 'आम आदमी' था जो कभी कुछ बोलता नहीं है..हमेशा वो सब देखता रहता है जो उसके सामने हो रहा है। 'वो'कुछ कर नहीं सकता...बस गवाह है उन सारी अकर्मण्यताओं का , सारी नपुंसकताओं का जो हमारे शरीरों में भर दी गई है...और जैसे किसी बोरे में कुछ भरकर सूजे से सिल दिया जाए...वैसे ही कुछ । सियाराम की अर्जी जिस दिन से सरकारी फाइलों में लगी ...उसके जैसे पंख लग गए....फाइल थी कि जैसे हवाई जहाज़...खूब उड़ी...कभी अफसर छुट्टी पर ..तो कभी मंत्री दौरे पर..कभी होली की छुट्टियां तो कभी दीवाली की....इस बीच एलेक्शन भी सिर पर आ गया...अब मंत्री जी ढ़ंढे नहीं मिल रहे। खैर ...मंत्री के लिए देश और उसकी जनता पहले है...इसलिए सियाराम थोड़ा 'पीछे' रह गया। देश जब इन सारी 'ज़रूरी' जद्दोजहद से गुज़र रहा था-एक दिन सियाराम मर गया। पता चला ..उसे बुखार हुआ था और उसके शब्दों में.. जाने क्यों उसका पीछा ही नहीं छोड़ रहा था। बुखार डेंगू साबित हुआ और उसने बीमार सियाराम की जान ले ली। वो मर गया लेकिन जाते जाते उसने हम सबकी पोल खोल दी। उसने ये बता दिया कि बात बात पर हांकने वाले पत्रकारों की हैसियत दरअसल क्या है...उसने पोल खोल दी कि दुनिया भर की सच्चाई उजागर करने वाले भीतर से कितने कमज़ोर होते हैं...ये भी कि चौथे खंभे की असलियत क्या है। सवाल पूरे सिस्टम पर है। मंत्री जी जब दस्तखत करते हैं तो फाइल क्यों रुक जाती है...चल भी गई तो कागज अफसरों की टेबल पर पड़ा धूल क्यों फांक रहा होता है...किस्मत से काग़ज़ अगर चेक में तब्दील हो भी गया तो डाक में खो क्यों जाता है। और ऐसा सियाराम जैसे गरीब ड्राइवर के साथ ही क्यों होता है। देश में लाखों करोड़ों के चेक इधर से उधर आते - जाते हैं...फिर ऐसा सियाराम के साथ ही क्यों हुआ। रिपोर्टरों से अब नेता और अफसर डरते क्यों नहीं....एक सही बात की वकालत करते वक्त अब चौथा खंभा मिमियाने क्यों लगता है..और..चपरासी को अफसर का , अफसर को मंत्री का और मंत्री को जनता का डर क्यों नहीं है। मैं अब भी पसोपेश में हूं...समझ नहीं आता कि बीमार कौन था...देश या सियाराम।

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80 के बहाने

कपिल सिब्बल कहते हैं कि अब IIT का एंट्रेंस देने के लिए 12वीं क्लास में 80 परसेंट लाना होगा। यानी बाकी लोग बीए, एमए करें और अगले 5 सालों में दिल्ली –मुंबई के महानगरों में खो जाएं। मैं उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद शहर से हूं और मुझे पता है कि IIT में सिर्फ बैठने का एहसास भर कितनी ऊर्जा भर देता है। हो सकता है IIT में आप जगह न पाएं...तो कोई बात नहीं किसी रीजनल इंजीनियरिंग कॉलेज में जगह मिल जाएगी..अगर वहां भी नहीं मिली तो कोई बात नहीं , क्लास टू का कोई सरकारी ओहदा ही मिल जाता था, अगर वो भी नहीं मिली तो भी , इतनी बड़ी ज़िंदगी बिता देने के लिए वो हौसला बड़ा काम आता था , जो IIT की तैयारी के वक्त अपने आप पूरे बदन में भर जाता था। ठीक वैसे ही जैसे जाड़े में हम धूप को पूरे बदन में सोख लेना चाहते हैं। कई बार ऐसा होता था कि इंटर मे नंबर आए 65 परसेंट और IIT में तो नहीं , लेकिन अच्छे इंजीनियरिंग कॉलेज में एडमिशन ज़रूर मिल जाता था। और ऐसा IIT की धुन में होता था। सिब्बल साहब के मुताबिक सोचें तो 80 परसेंट की बाड़ इसलिए लगाई जा सकती है क्योंकि सरकार कोचिंग सेंटरों को रोकना चाहती है। क्यों –ये समझ में नहीं आया। सिब्बल साहब अगर प्राइवेट MBA और इंजीनियरिंग इंस्टीट्यूय्स पर वार करते तो शायद बेहतर होता। सैकड़ों की संख्या में ये इंस्टीट्यूट्स नोएडा-ग्रेटर नोएडा में फल फूल रहे हैं। कहने को एडमिशन के लिए MAT नामका एक टेस्ट होता है लेकिन ये प्राइवेट इंस्टीट्यूट वरीयता उस बच्चे को देते हैं जो ज़्यादा पैसा डोनेशन के तौर पर देने को तैयार हो जाता है। ऐसे ज़्यादातर कॉलेजों में उन उन घूसखोर IAS-IPS अफसरों के बच्चे एडमिशन पा जाते हैं , जिन्हें कहीं जगह नहीं मिलती। यानी सिब्बल की नाक के नीचे ये अंधेर हो रहा है और सिब्बल निशाना किसी और को बना रहे हैं। ज़ाहिर सी बात है जिन बच्चों को 80 परसेंट नहीं मिलेगा , वो वक्त नहीं खराब करेंगे , तुरंत नोएडा-ग्रेटर नोएडा की ओर दौड़ लगाएंगे और जगह मिलने के लिए नीलामी में बोली लगाएंगे। यानी कपिल सिब्बल 80 के बहाने उन शिक्षा ‘सरपंचों’ की मदद कर रहे हैं, जिन्होंने प्रॉपर्टी डीलिंग के धंधे में कमाया अनाप शनाप पैसा स्कूलों में लगाया है।

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