पहला दिन ऑफिस का
एक नया जोश , एक नई उमंग है
धड़कनों की रफ्तार तेज़ है
लेकिन
उससे भी तेज़ है
मेरे ख़्वाबों की उड़ान
पंख आपकी दुआओं और विश्वास के हैं
पैनी नज़र है मंज़िल की तरफ़
बस अब थोड़ी ही दूर मेरा आसमान है
--रूबिका लियाकत
(रूबिका लियाकत एक एंकर हैं ..खुलेपन में उनका यकीन है और सबसे बड़ी खासियत उनकी ये कि ..वो ज़िंदगी के रास्तों से वाकिफ हैं..आज न्यूज़ 24 ज्वाइन किया तो उमंगें बाहर छलक आईं...)
पहला दिन
देखोगे..यादें मेरी ?
यादें भली भी, बुरी भी
कभी जुबान पर मिठास घोलती हैं
घंटों पहले चखी चाशनी सी
तो कभी दर्द के मरोड़ों से
झकझोरती है अनपहचानी सी
कभी महकती है वर्षों पहले संभाले
हुए लिबास की तहों में
बासी खुशबू सी
तो कभी चढ़ जाती हैं
सिर पे खटास सी
ये चिपक भी जाती हैं
हड्डियों से चमड़ी की तरह
तो कभी फिसल जाती हैं
सोये हुए शिशु के हाथ से मनचाहे
खिलौने जैसी
हर रोज़ मैं सोया तो टूटे हुए दांतों
जैसी उम्मीदों को लेके तकिये के नीचे
कि कोई दांतों की परी ले जाये उन्हें
और दे जाये मुझे कुछ
अपनी यादें मिला के
जो उम्र के आखिरी लम्हों में
भी बांध के ले जाउं यादें तेरी
आ दिखा दूं तुझे यादें मेरी
---- अंजू सिंह
(अंजू की लेखनी से कविता बहती है... बचपन और उसके बाद का वक्त उन्हें भुलाये नहीं भूलता। घर की दीवारों पर , खिड़की के अधटूटे शीशे पर, अंडे के खोखले छिलकों पर और दरअसल .... हर उस चीज़ पर ...जो बड़े होते हुए सामने आती है--अंजू की कविताएं अंकित हैं )
अखबार तो निकाल दें, पर तोप कहां ढ़ूंढें?
अमा यार, आप लोगों ने वो हैवी वाला डायलोग सुना है. ‘जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो.’ यार निकाल तो दें, पर परेशानी ये है कि अखबार से तोप का कनेक्शन पल्ले नहीं पड़ रहा. अमा छोड़िये तोप को, हमें तो इतना बता दीजिए, कि जब सामने सफेद टोपी और गेरूए लिबास में तोपची खड़े हों तो क्या किया जाय. तोप कोई बड़ी चीज नहीं है. बड़ी चीज है तोपची. वो भी ऐसे वैसे नहीं, हल्ला मचाते- आग लगाते- हुड़दंगी जमात के खतरनाक तोपची. अबकी नसल में ये पौध खूब हुई है. तोप के छर्रे तो हमारे पुरखों ने खूब छाती पर झेले हैं, फिर भी हम यहां बकतोली के लिए बचे रह गये. पर ये जो पुराने ठंग के नये तोपची आ गये हैं, इनका इलाज नजर नहीं आ रहा. अब हम खबरी टाइप इंसान निकाल लें अखबार. तो क्या होगा. बड़े ही जाहिल गंवार टाइप जमात है इन तोपचियों की. पहले तो कुछ सुनते ही नहीं. सिर्फ कहते हैं. माइक वालों से. अखबार वालों से. टोपी वालों से. बंदूक वालों से. पजामे वालों से. नेकर वालों से. ये लोग बस बोलना जानते हैं. अब चचे तुम ही बताओ क्या कर लेगा अखबार और क्या कर लोगे तुम. अच्छा चलो, हिम्मत भी की और उनकी बोलती पर तुमने अपनी कहनी-पूछनी शुरू कर दी तो पहले तो तुम्हारे जूते उतारेंगे. फिर तुम्हारे पैरों के सामान से पटापट तुम्हारा ही शीर्षाभिषेक करेंगे. बच आओ तो तुम्हारा भाग्य, नहीं तो उनका आंदोलन. रह गया तुम्हारा अखबार तो हां वो उनके काम आ जायेगा. उन तोपचीयों में कुछ कुशल शिल्पकार होते हैं जो किसी भी वक्त उन अखबारों को बांस की दो खपच्चियों पर गुत्थम-गुत्था करके एक जैसे आकार-प्रकार वाले पुतले बनाने में माहिर होते हैं और दूसरे उस पर बड़े सम्मान से तुम्हारी ही स्याही, (नहीं तो बूट-पॉलिश) से उस पर बड़े बड़े कर्णिम अक्षरों से दूसरी पार्टी वाले किसी भी महानुभाव का सादर नाम लिख देते हैं. और फिर कभी सरेराह, नुक्कड़- चौराहे पर दशहरे का प्री रिहर्सल या फिर किसी प्रिय के अंतिम संस्कार की पूर्व पैक्टिस. सब कुछ चालू है, अब ये बताओ कि अखबार निकालकर क्या करें. हम लिखें और खुदा बांचे तो क्या फायदा. सब पर काम है पर हम खबरियों की परेशानी कोई समझने को तैयार ही नहीं. अगर अखबार निकालना है तो बकौल बड़े बुजुर्ग पहले मुकाबिल तोपें ढूंढनी होंगी. और फिर अखबार की फ्रंट पेज लीड और संपादकीय ठूंस ठूंस कर उनकी नाल बंद करनी होगी. इस संपादकीय रिस्क के लिए न तो इग्नू अलग से स्पेशलाइज्ड रिस्क मैनेजमेंट कराती है और न ही एल आई सी सरे चौराहे इन तोपचियों से मुकाबले के लिए कोई इंश्योरेंस पॉलिसी देती है. हम बेचारी अबला खबरिया जात के लिए कोनूं आरक्षण-वारक्षण है कि नाहीं. अरे कोई आंदोलन वांदोलन करो यार. नहीं आता तो इन तोपचियों से ही पूछ लो. इन्हें सब रास्ते पता हैं.
देवेश वशिष्ठ खबरी
9811852336
आपने आज तहलका पढ़ा या नहीं?,- ये लेख तहलका पर देखें.- http://hindi.tehelka.co.in/stambh/anyastambh/fulka/116.html
मैं गूंगा हूं
'घर का सारा काम कराती हैं और तीन घंटे बाद छोड़ती हैं मेमसाब... '
सब ढंक गया
ग़ालिब और इज़ारबंद
निदा फाजली
इस 'ग़ालिब म्यूज़ियम' में और बहुत सी चीज़ों के साथ किसी हस्तकार के हाथ का बना हुआ एक इज़ारबंद भी है. ग़ालिब दिल्ली के बल्लीमारान इलाक़े में रहा करते थे. ग़ालिब के उस लंबे, रेशमी इज़ारबंद ने मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही व्यवहार किया. ग़ालिब म्यूज़ियम में पड़ा हुआ मैं अचानक 2006 से निकलकर पुरानी दिल्ली की टेढ़ी-मेढ़ी गलियों से गुज़रकर बल्लीमारान में सहमी सिमटी उस हवेली में पहुँच गया जहाँ ग़ालिब आते हुए बुढ़ापे में गई हुई जवानी का मातम कर रहे थे. इस हवेली के बाहर अंग्रेज़ दिल्ली के गली-कूचों में 1857 का खूनी रंग भर रहे थे.
ग़ालिब का शेर है -
हम कहाँ के दाना थे किस हुनर में यकता थे
हवेली के बाहर के फाटक पर लगी लोहे की बड़ी सी कुंडी खड़खड़ाती है. ग़ालिब अंदर से बाहर आते हैं तो सामने अंग्रेज़ सिपाहियों की एक टोली नज़र आती है. ग़ालिब के सिर पर अनोखी सी टोपी, बदन पर कढ़ा हुआ चोगा और इसमें से झूलते हुए ख़ूबसूरत इज़ारबंद को देखकर टोली के सरदार ने टूटी फूटी हिंदुस्तानी में पूछा, “तुमका नाम क्या होता?”
इज़ारबंद से ग़ालिब का रिश्ता अजीब शायराना था. इज़ारबंद दो फारसी शब्दों से बना हुआ एक लफ्ज़ है. इसमें इज़ार का अर्थ पाजामा होता है और बंद यानी बाँधने वाली रस्सी. औरतों के लिए इज़ारबंद में चाँदी के छोटे छोटे घुँघरु भी होते थे और इनमें सच्चे मोती भी टाँके जाते थे. लखनऊ की चिकन, अलीगढ़ की शेरवानी, भोपाल के बटुवों और राजस्थान की चुनरी की तरह ये इज़ारबंद भी बड़े कलात्मक होते थे. हिंदुस्तानी में इसे कमरबंद कहते हैं. यह इज़ारबंद मशीन के बजाय हाथों से बनाए जाते थे.
ये इज़ारबंद आज की तरह अंदर उड़स कर छुपाए नहीं जाते थे. ये छुपाने के लिए नहीं होते थे.
पुरुषों के कुर्तों या महिलाओं के ग़रारों से बाहर लटकाकर दिखाने के लिए होते थे. पुरानी शायरी में ख़ासतौर से नवाबी लखनऊ में प्रेमिकाओं की लाल चूड़ियाँ, पायल, नथनी और बुंदों की तरह इज़ारबंद भी सौंदर्य के बयान में शामिल होता था.
ग़ालिब तो रात के सोचे हुए शेरों को दूसरे दिन याद करने के लिए इज़ारबंद में गिरहें लगाते थे और उन्हीं के युग में एक अनामी शायर नज़ीर अकबराबादी इसी इज़ारबंद के सौंदर्य को काव्य विषय बनाते थे. इनमें कुछ यूँ हैं, ‘इज़ारबंद की ढीली’ उस स्त्री के लिए इस्तेमाल होता है जो चालचलन में अच्छी न हो. मैंने इस मुहावरे को छंदबद्ध किया है.
जफ़ा है ख़ून में शामिल तो वो करेगी ज़फा
उनकी नज़्म के कुछ शेर -
धोखे में हाथ लग गया मेरा नज़ीर तो
ज़ाहिल मेरे बाने
भवानी प्रसाद मिश्र
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मैं असभ्य हूं क्योंकि खुले नंगे पांवों चलता हूं
मैं असभ्य हूं क्योंकि धूल की गोदी में पलता हूं
मैं असभ्य हूं क्योंकि चीर कर धरती धान उगाता हूं
मैं असभ्य हूं क्योंकि ढोल पर बहुत ज़ोर से गाता हूं
आप सभ्य हैं क्योंकि हवा में उड़ जाते हैं ऊपर
आप सभ्य हैं क्योंकि आग बरसा देते हैं भू पर
आप सभ्य हैं क्योंकि धान से भरी आपकी कोठी
आप सभ्य हैं क्योंकि ज़ोर से पढ़ पाते हैं पोथी
आप सभ्य हैं क्योंकि आपके कपड़े स्वयं बने हैं
आप सभ्य हैं क्योंकि जबड़े खून सने हैं
आप बड़े चिंतित हैं मेरे पिछड़ेपन के मारे
आप सोचते हैं कि सीखता यह भी ढंग हमारे
मैं उतारना नहीं चाहता जाहिल अपने बाने
धोती-कुरता बहुत ज़ोर से लिपटाए हूं याने!
भवानीप्रसाद मिश्र