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80 के बहाने

कपिल सिब्बल कहते हैं कि अब IIT का एंट्रेंस देने के लिए 12वीं क्लास में 80 परसेंट लाना होगा। यानी बाकी लोग बीए, एमए करें और अगले 5 सालों में दिल्ली –मुंबई के महानगरों में खो जाएं। मैं उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद शहर से हूं और मुझे पता है कि IIT में सिर्फ बैठने का एहसास भर कितनी ऊर्जा भर देता है। हो सकता है IIT में आप जगह न पाएं...तो कोई बात नहीं किसी रीजनल इंजीनियरिंग कॉलेज में जगह मिल जाएगी..अगर वहां भी नहीं मिली तो कोई बात नहीं , क्लास टू का कोई सरकारी ओहदा ही मिल जाता था, अगर वो भी नहीं मिली तो भी , इतनी बड़ी ज़िंदगी बिता देने के लिए वो हौसला बड़ा काम आता था , जो IIT की तैयारी के वक्त अपने आप पूरे बदन में भर जाता था। ठीक वैसे ही जैसे जाड़े में हम धूप को पूरे बदन में सोख लेना चाहते हैं। कई बार ऐसा होता था कि इंटर मे नंबर आए 65 परसेंट और IIT में तो नहीं , लेकिन अच्छे इंजीनियरिंग कॉलेज में एडमिशन ज़रूर मिल जाता था। और ऐसा IIT की धुन में होता था। सिब्बल साहब के मुताबिक सोचें तो 80 परसेंट की बाड़ इसलिए लगाई जा सकती है क्योंकि सरकार कोचिंग सेंटरों को रोकना चाहती है। क्यों –ये समझ में नहीं आया। सिब्बल साहब अगर प्राइवेट MBA और इंजीनियरिंग इंस्टीट्यूय्स पर वार करते तो शायद बेहतर होता। सैकड़ों की संख्या में ये इंस्टीट्यूट्स नोएडा-ग्रेटर नोएडा में फल फूल रहे हैं। कहने को एडमिशन के लिए MAT नामका एक टेस्ट होता है लेकिन ये प्राइवेट इंस्टीट्यूट वरीयता उस बच्चे को देते हैं जो ज़्यादा पैसा डोनेशन के तौर पर देने को तैयार हो जाता है। ऐसे ज़्यादातर कॉलेजों में उन उन घूसखोर IAS-IPS अफसरों के बच्चे एडमिशन पा जाते हैं , जिन्हें कहीं जगह नहीं मिलती। यानी सिब्बल की नाक के नीचे ये अंधेर हो रहा है और सिब्बल निशाना किसी और को बना रहे हैं। ज़ाहिर सी बात है जिन बच्चों को 80 परसेंट नहीं मिलेगा , वो वक्त नहीं खराब करेंगे , तुरंत नोएडा-ग्रेटर नोएडा की ओर दौड़ लगाएंगे और जगह मिलने के लिए नीलामी में बोली लगाएंगे। यानी कपिल सिब्बल 80 के बहाने उन शिक्षा ‘सरपंचों’ की मदद कर रहे हैं, जिन्होंने प्रॉपर्टी डीलिंग के धंधे में कमाया अनाप शनाप पैसा स्कूलों में लगाया है।

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बुरा जो देखन मैं चला... (कॉन्ट्राडिक्शन-4)


मैं दुनिया के सबसे वाहियात जोक सुनकर हंसना चाहता था, सबसे गंदी गाली किसी को देना चाहता था, और सबसे बुरी लड़कियों से मोहब्बत करना चाहता था… अक्सर लोग कहा करते थे कि दुनिया बिगड़ रही है, बूढ़े अक्सर इस बात का मलाल करते थे, और मुझे उनकी बातों पर आश्चर्य होता... मुझे मुझसे बुरा कोई नहीं दिखता था, सिर्फ मेरी दुनिया बुरी थी, बाकी सब उतना खराब नहीं था... मुझे मोहब्बत करनी थी... मैं बुराई ढूंढ रहा था...

लड़की उस शहर से थी जहां तक पहुंचते-पहुंचते गंगा सबसे गंदी हो जाती है... उसने बताया था कि दुनिया के सबसे बुरे अनुभव उसके पास हैं... और मैं ये सुनकर खुश हो जाता करता था... वो सांवली थी... मुझे लगता था कि वो मुझसे कुछ लंबी होगी... न भी हो शायद... पर कभी मैं उसके साथ खड़ा नहीं था... सिर्फ इस बात के अलावा कि मैं वाहियात हो जाता चाहता था... और मुझे एक बुरी लड़की की तलाश थी...

मैंने सोचना बंद कर दिया था कि किसी के साथ प्यार करते हुए जीया जा सकता है... मैं अक्सर सोचता था कि क्या किसी के गले लगकर सुकून से मरा जा सकता है... और जब मैं इस तरह की बातें किसी से करता था, लोग मुझे पागल करार देते थे... मुझे खुद लगता था कि मैं धीरे धीरे पागलपन की ओर बढ़ रहा हूं... मैं मेरे अंदर एक और बुराई की तासीर जानकर फिर खुश हो जाता था...

मुझे अपने बुरे होने पर पूरा यकीन था... उतना ही जितना मेरे पिता को मेरे होशियार होने पर था, या जितना मेरी मां को मेरे भोला होने पर... लेकिन फिर भी कई खालीपन थे, जो भरने पर आमादा था... मैंने कभी सिगरेट न ने पीने की कोई कसम नहीं खाई थी... कभी पिताजी ने मुझसे इस तरह का कोई वायदा भी नहीं लिया था... लेकिन फिर भी सिगरेट पीना मेरे लिए वैसी ही कल्पना थी जैसा एक सांवली बुरी लड़की का साथ... वैसे सिगरेट कभी भी पी जा सकती थी... और किसी लड़की के साथ रहना भी आजाद दिल्ली में कोई मुश्किल काम नहीं है... लेकिन फिर भी ये खालीपन मुझे बताता था कि पूरी तरह बुरा बनने के लिए मुझे सिगरेट पीनी चाहिये... और...

मैं अक्सर इंटरनेट पर सबसे बुरे लोगों के बारे में पढ़ता हूं... तो मैं कुछ देर के लिए निठारी के नरपिशाचों की तरह कल्पना में जीने लगता हूं... मैं किसी गुमनाम से या नामी कवि की कविता पढ़ता हूं तो लगता है कि पुलिस की मार और सरेआम बेशर्मी से भी बुरा सपनों का मर जाना हो सकता है... मैं रोज घर से दफ्तर और दफ्तर से घर तक के चक्कर काटना चाहता हूं... और अपने सारे सपनों को मारकर सबसे बुरा होने की कोशिश करना चाहता हूं...

मैं बुरा बनना चाहता हूं और सोचता हूं कि गांधी को गाली देकर बुरा बना जा सकता है... गांधी के नाम से जुड़ी कोई अच्छाई मेरे सामने आ नाची तो मैं थक जाऊंगा... इसलिए मैं गांधी का नाम नहीं लेता... मैं रास्ते चलते आवारा होना चाहता हूं... और उसी आवारगी में ऐसी हरकतें भी कि दुनिया हिकारत से देखने लगे... पर मैं ऐसा तब नहीं कर पाता जब पसीने से तरबतर कोई अंग्रेजी बोलने वाली और बेबकूफ सी दिखने वाली कोई सांवली लड़की रिक्शेवाले से मोलभाव करने लगती है और देर तक वो उसी संघर्ष में उलझी रहती है... मुझे उसकी परेशानी अपनी जैसी लगती है... और फिर मैं और बुरा होकर उससे नजर फेर लेता हूं... शायद उस वक्त में उससे ज्यादा बुरा नहीं हो सकता था... तब भी नहीं जब मैं उसकी इस मजबूरी का फायदा उठाकर उसे छेड़ रहा होता... और कुछ देर को ही सही वो उस संघर्ष से उबर पाती...

खैर बात दुनिया की सबसे बुरी लड़की की हो रही थी... और अक्सर लोग मुझसे कहते हैं कि आजकल की लड़कियां बिगड़ गई हैं... मैं उसके लिए खुद को तैयार कर रहा हूं..

देवेश वशिष्ठ खबरी
9953717705

http://deveshkhabri.blogspot.com/

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खबर में कॉन्ट्राडिक्शन

मैं प्रतिभा कटियार को नहीं जानता... लेकिन वो जानती हैं... उन्होंने मुझे मेरे नजरिये से पढ़ा है... ये भी नया कॉन्ट्राडिक्शन है... मुझे अनुमान है कि प्रतिभा आईनेक्ट में पत्रकार हैं... खबर ये है कि 11 अक्टूबर, आईनेक्स्ट के ब्लॉग श्लॉग कॉलम में कॉन्ट्राडिक्शन और ब्लॉग का जिक्र है... जो है वैसा स्कैन यहां लगा रहा हूं...
(पढ़ने लायक देखने के लिए चित्र पर दो बार क्लिक करें)

प्रतिभा कटियार, जो भी हैं... शुक्रिया करके उन्हें छोटा नहीं बनाना चाहता...
खबरी
9953717705

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मैं तुममें खप गया हूं... (कॉन्ट्राडिक्शन- 3)


-तुम्हें जुकाम हो गया है.
-कल भीग गया था-
-कब?
-जब पहली हिचकी आई थी रात को- उसके बात सोने नहीं दिया तुमने- बहुत बारिश हुई- तकिया गीला हो गया था-
-तो मैं नहीं आऊंगी आज तुमसे मिलने- पर तुम्हें तो बुखार हैं- तुम भी ना, जरा भी खयाल नहीं रखते अपना-
-पर वो काम तो तुम्हारा है- मुझे तो हमेशा तुम्हारा खयाल रहता है-
-तुम हो कहां अभी ?
-आई पॉड में जा छिपा हूं- दोनों कानों में ठूंस लिये हैं ईयर फोन- कि तुम्हें न सुन सकूं
-तो मैं जाऊं?
-तुम हर पल पूछती हो. और मैं हर बात कहता हूं- जाओ ना,
-फिर तुम क्यों बुलाते हो?
-तुम जाती क्यों नहीं हो.
-कितने कठोर हो ना तुम
-हां, पहाड़ की तरह
-उफ़, फिर पहाड़… तुम उतर क्यों नहीं आते मैदानों में
-और तुम क्यों नहीं चली जाती वापस, पहाड़ों में
-देव, अब पहाड़ मैले हो गये हैं- सावन पिछली बार भीग गया था- अबकी नहीं आया- पिछली बर्फ को भी सर्दी लग गई थी- अबकी बुरांश के पेड़ रूठ गये हैं- देवदार ठूंठ बन गये हैं- जिस नदी के किनारे पानी में पैर डालकर तुम मेरे बालों से चुगली किया करते थे, वो अब झील बन गई है- घाटी में बहुत सी मिट्टी जमा हो गई है- सुना है वहां एक बड़ा बांध बनने वाला है- सब डूबने वाला है- ये पहाड़ दुखता है-
-लेकिन तुम्हें तो पहाड़ अच्छे लगते थे ना बिट्टू-
-लगते थे, पर सिर्फ तुम्हारे साथ- अब नहीं देव.
-तुम कुछ खाओगी- ये काली रातें तुम्हें डराती नहीं हैं- इतनी दूर से रोज तुम कैसे आ जाती हो मेरे पास- रास्ते में कोई नहीं पकड़ता तुम्हें... मुझे डर लगता है-
-देव मेरे पास एक सेब है- दोनों खाएंगे- आधा आधा
-नहीं मुझे खट्टा दही खाना है- मम्मी से झगड़ना है
-तुम अपनी मम्मी से इतना झगड़ते क्यों हो देव-
-तुम मेरी मम्मी में घुस जाती हो- जब वो लाड़ करती हैं तो तुमसे लड़ने का मन करता है- तुम तो चुड़ैल हो ना
-और तुम मेरे पायलेट
-तुम्हें याद है-
-हां याद है, लेकिन जोर से मत बोला करो- सब समझ जाते हैं-
-मुझे तुम्हारी खुशबू चाहिये- सफेद बादल को दे देना- वो आकर मेरी आंखों में बैठ जाता है-
-और तुम अपनी मीठी सी हंसी मुझे भिजवा देना- उसी बादल को लौटा देना चलते वक्त- वो मेरे दिल में बैठा जाता है- भेजोगे ना-
-देव, मुझसे कुछ कहो ना-
-जो मैं कहूंगा, वो तो तुम्हें पता है-
-हां मालूम है- पर एक बार ऐसे ही सुनने का मन कर रहा है-
-मैं नहीं कहूंगा- सब सुन लेंगे- लौटते बादलों के कान में कह दूंगा- तुम उनसे पूछ लेना-
-देव मेरे साथ घूमने चलो-
-कहां-
-नील नदी के पास-
-तब ?
-जमीन के नीचे नीचे बहना मेरे साथ- झील फिर नदी बन जाएगी- और किसी को दिखाई भी नहीं देगी-
-लेकिन उसकी मछलियों का क्या?
-वो गुदगुदी करेंगी तुम्हारे पांवों में-
-लेकिन उसका पानी तो ठंडा होता होगा ना- तुमने जो सपना बुना था, वो पूरा हुआ या नहीं- मुझे तुम्हारा सपना ओढ़ना है-
-नहीं इस बार मैंने सावन बुना है- आंखों में उतर आया है वो- उसी से निकलती है नील नदी- कभी छिपी, कभी उघड़ी...
-और तुम्हारी सलाईयां, जिनसे तुम सपना बुनती हो- उन्हें तुम अपने बालों में लगा लेना- मैं तुम्हारी तस्वीर उतारूंगा- चीन की दीवार पर
-पर वहां तो प्लेन से जाना होगा ना- और वीजा भी बनवाना पड़ेगा, तुम कैसे जाओगे?
-तो नहीं जाऊंगा- नहीं उतारूंगा तुम्हारी तस्वीर- पर फिर तुम्हें हर वक्त मेरे सामने रहना होगा- फिर तुम मुझे याद मत करना- ये हिचकियां मुझे मार देती हैं-
-देव तुम बदल गए हो- कब से?
-जबसे नमस्ते बात खत्म करने के लिए और शुक्रिया ताना मारने के लिए इस्तेमाल होने लगा है- तबसे मैं भी बदल गया हूं- -------------------------------

मुझे यहां नहीं रहा जाता- मुझे कहीं और जाना है- किसी दूसरी जगह- नहीं- किसी दूसरे वक्त में-
किस वक्त में जाना चाहते हो ? किसके पास?
भगत सिंह के पास- सुखदेव और राजगुरू के पास- उनके वाले स्वर्ग में-
उनके स्वर्ग में? तो क्या उनका कोई अलग से स्वर्ग होगा? क्या वहां ज्यादा ऐशोआराम होगा-
हां उनका स्वर्ग अलग है- उस स्वर्ग से सभी देवता भाग गये हैं- इंद्र का सिंहासन हिला दिया है- वहां जगह जगह फांसी के झूले हैं- वहां फांसी पर झूलने वालों की लंबी कतार लगी है- भगत बार बार हिन्दुस्तान की तरफ देखते हैं- फिर मेरी और तुम्हारी तरफ देखते हैं- और भागकर फिर फंदे पर झूल जाते हैं- पर इस बार भगत की जान नहीं जा रही है- भगत के भीतर कुछ छटपटा रहा है- भगत के पांव बहुत देर तक तड़पते रहते हैं- सुखदेव और राजगुरू भी छटपटा रहे हैं- बड़ा बेचैन माहौल है- भगत का तड़पना बंद होता है तो वो मुझे फिर देखते हैं- फिर तुम्हें देखते हैं- सुखदेव और राजगुरू रोना बंद कर देते हैं- जोर जोर से आवाज लगाते हैं- लेकिन मुझे सिर्फ तुम्हारी आवाज सुनाई देती है-

वो दिन बड़े लम्बे होते थे... सूरज सारी गर्मी से देव को झुलसाना चाहता था और देव के वो पूरी ताकत से लड़ने के दिन थे... मायानगरी से लेकर राजनगरी तक में धक्के खाना उन दिनों देव की ड्यूटी हो गई थी... कठोर दिन और निष्ठुर रातें... पर देव की सनक के आगे सब कट गये... धीरे-धीरे... मुझे न तो भगत सिंह की आवाज सुनाई दी, और ना ही राजगुरू की तड़पन... अब तक मैं खप चुका था.

देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9953717705

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मेरे जिस्म में सरहदें हैं... (कॉन्ट्राडिक्शन-2)


दो आंखें हैं... एक जोड़ी होंठ... दो बाहें... कुल मिलाकर एक पूरा जिस्म है... कुछ और हिस्से हैं उस जिस्म के... कुछ उभरे हुए तो कुछ गहरे... जिस्म गीला है... मैं शायराना हूं... मैं रूहानी हूं... मैं जिस्मानी हूं...

एक जोड़ी बाहें एक और जोड़ी चाहती हैं...
एक जोड़ी आंखें अक्सर एक और जोड़ी तलाश लेती हैं...
एक जोड़ी होठों को शिकायत है एक और जोड़ी न मिलने की...
मुझे लगता है कि मेरे ही जिस्म में सरहदें खिंच गई हैं...

तुम्हारी शिकायतें अक्सर मुझे सुनाई देती हैं... तुम्हारे होंठ एक लम्हे के लिए कुछ भी नहीं बोलना चाहते... मैं अक्सर खामोश नहीं रह पाता... तुम कहती हो मुझे जीना नहीं आता... तब मुझे लगता है जीना जरूरी भी नहीं... तुम्हारी एक जोड़ी बंद आंखें नहीं बोलती और मुझसे अक्सर कह देती हैं कि मैं मैं जाहिल हूं... मैं तुममें डूब मरना चाहता हूं...

जिस्म बेलिबास नहीं है... होना चाहता है... दिल में दरिया है... दरिया में उथलपुथल है... कई लोग हैं... उथलपुथल से बेपरवाह हैं... बालों में भाप है... आंखों में खून है... रगों में लाली है... बस... रगों में सिर्फ लाली है...

मुझे रंग याद आते हैं... मुझे सर्दी का मौसम याद आता है... मुझे लता... रफी और मुकेश के गाने गुनगुनाने का मन करता है... तुम कहती हो मैं जमीन से जुड़ा हूं... मुझे लगता है कि तुम मुझे देसी कह रही हो... मैं फिर भी बोलता रहता हूं... तुम अक्सर खामोश रहती हो...

सब कुछ उल्टा पुल्टा है... जिस्म के चारों ओर शोर हो रहा है... कान परेशान हैं... वो कुछ सुनना नहीं चाहते... जिस्म बार बार सबको मना करना चाहता है... हाथ कानों को गले लगा लेते हैं... कानफोड़ू आवाजें हैं... सीने तक उतरना चाहती हैं... सीने के दरिया में उथलपुथल इसी वजह से है...

एक करवट एक नई सलवट बना देती है... मुझे सलवटें अच्छी नहीं लगतीं... मुझे बस तुम अच्छी लगती हो... सलवटों अक्सर सरहद बन जाती हैं... पड़ौसी सलवट शरारत करती है... पहली सलवट को शरारत पसंद नहीं है...

जिस्म को खामोशी पसंद है... जिस्म खामोश हो जाना चाहता है... जिस्म आवाजों से बेपरवाह है... कल ही किसी से सुना है कि जिस्म को अपनी शर्तों पर जिंदा रहना चाहिये... जिस्म को बाकी जिस्मों से फर्क नहीं पड़ता... जिस्म आजादी चाहता है... जिस्म गुलाम है...

ये सलवटें झगडालू हैं... जिस्म पंचायतें लगाता है... जिस्म चुगली करता है... जिस्म मौसम का मजा लेता है... जिस्म बुरे दौर को भूल जाना चाहता है... जिस्म खुदपरस्त है... जिस्म स्वार्थी है... जिस्म बेचैन जंगल को खूब गालियां देना चाहता है... फिर उसी जंगल में खो जाना चाहता है... जिस्म पहाड़ों पर जाना चाहता है... फिर संन्यासी हो जाना चाहता है...

आंखों को किताबें पसंद हैं... चेहरे को नकाब पसंद हैं... वैसे आंखों को आंसू भी पसंद है... लेकिन ओठ आजकल तौबापसंद हो गए हैं... रुह बेचैन जंगल में बेचैन है... पहाड़ों पर चली गई है... जिस्म खामोश है...

देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9953717705

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कॉन्ट्राडिक्शन-1


कई निगाहे हैं... उनमें में एक पुराने गुलदस्ते के सूखे गुलाब पर टिकी है... लेकिन एक वहां से हटकर किताबों की बेतरतीब अलमारी में कुछ ढूंढ रही है... इस निगाह को वो लावारिस खत नहीं मिल पा रहे हैं जो आवारगी के दौरान लिखे गए और वो बंजारे खत इन किताबों के हुजूम में कहीं छिपा दिये गए... अब ढूंढने से भी नहीं मिलते... बिस्तर पर कुछ गर्म सलवटें लेटी हैं... जिंदगी भर का आलस एक साथ अंगडाई ले रहा है... एक सलवट दूसरी को छू रही है... वो छुअन बहुत हसीन है...

अलाव है... आग है... सर्दी का मौसम है... हाथों की गुस्ताखी है... हाथ आग को चेहरा दिखा रहे हैं... एक शॉल में दुबकी दो जान बैठी हैं... एक के हाथ में पुरानी डायरी है... दूसरे के होठों पर प्यार के गीत हैं... बारिश हो के चुकी है... मौसम विज्ञानियों से बिना पूछे ही कोयले वाला बता गया है... कि बर्फ गिरेगी... बुरांश पर फूल नहीं आये हैं... बुरांश को न्यौता है... बर्फ नाज़ुक है... बुरांश पर झरने लगी है...

डायरी के पन्ने कई दिनों बाद उलटे हैं... हर पन्ने पर तारीख है... हर गीत में एक कहानी है... डायरी के पन्ने उड़ रहे हैं... शाल में दुबकी दो जान एक ही दिन में कई तारीखें पढ़ लेना चाहती हैं... आज की रात की कहानी फिर कभी गीत बनेगी... डायरी खुश है... जैसे आज के ही दिन के लिए सारे अर्से गीत बने थे...

एक जान को नींद आ रही है... वो दूसरी जान की गोद में लेट गई है... एक जान सो गई है... दूसरी सोना नहीं चाहती... आग को चेहरा दिखाता दूसरी जान का एक हाथ नर्म हो गया है... अब वो बालों में गुदगुदी कर रहा है... वो छुअन बहुत देर तक नहीं थकती... वो छुअन बहुत हसीन है...

बिस्तर की नर्म सलवटें अकेली हैं... नींद टूट गई है... चिपचिप है... उमस है... दिल्ली की गर्मी है... बिजली चली गई है... एसी बंद हो गया है... किताबें बेतरतीब हैं... एक निगाह फिर सूखा गुलाब देख रही है... दूसरी बेतरताब अलमारी पर अटकी है... एक पुरानी डायरी है... आग को चेहरा दिखा दिखाने वाले कठोर हाथों में आ गई है... गर्मी में पुरानी डायरी पंखा बन गई है... ज़ोर ज़ोर से हिल रही है... पंखे की तरह झल रही है... डायरी के पन्ने कई दिनों बाद उलटे हैं... हर पन्ने पर तारीख है... हर गीत में एक कहानी है... पन्ने जोर जोर से हवा में उड़ रहे हैं... हवा कर रहे हैं... डायरी से कुछ पन्ने रूखे फर्श पर गिर पड़े हैं... निगाहों की तलाश खत्म हो गई है... बंजारे खत मिल गए हैं... बेकारी का दौर है... दोपहर है... जिंदगी भर का आलस एक जान में भरा है...
इन दोपहरों की कहानी गीत नहीं बनती... खत वापस डायरी में ठूंस दिये गए हैं... डायरी फिर भर गई है...

देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9952717705

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मैं तेरा, तेरी दुनिया का


अंगडाई लेते मेरे मैले ख्वाबों को
तूने छू लिया था हौले से...
जैसे पहले चुंबन सा स्पर्श था वो...
और मैं जी लिया था ज़िंदगी मेरी...
ख्वाबों में हकीकत की दुनिया...
वो मोतियों की दुनिया थी...
आंखों से झरती थी...
और गर्म पानी का फव्वारा बुझाता था
उस शहर की प्यास
मैं अजीब सा था उन दिनों...
इन अजीब सी बातों की तरह...
बादल के पीछे दौड़ता था मैं...
जमीन से उठाता था किरच
और उसकी चमक देखकर हो जाता था खुश...
उतना जितना आज नहीं होता सच के हीरे पाकर...
अजीब सा था उन दिनों...
मैं भूल जाता था भगवान का अस्तित्व
मेरे सामने
और मैं बन जाता था रक़ीब
तेरा... तेरी दुनिया का
मैं कुछ नहीं था... पर तेरे साथ था...
बहुत दिन बाद आज लौट आया है वो दिन
मेरे बदन में छिपकर बैठ गई है तेरी रुह...
और मैं फिर बन गया हूं तेरा दुश्मन
आहिस्ता आहिस्ता...


देवेश वशिष्ठ ‘खबरी’
1-9-09

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