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तू है, तो सब है

वो जो मंदिर की घंटियों की
घनघनाहट थीं न…
बड़ी कोशिश की 
लेकिन अलग नहीं कर पाया 
उन्हें तुम्हारी आवाज़ से 
जैसे बड़े जतन से
किसी ने गूंथ रखा हो
दोनों को
किसने किसको खुद में समेटा है
नहीं मालूम
या तो जो तुम्हारी आवाज़ थी
वह मंदिर की घंटियों जैसी है
या फिर घंटियां तुम्हारी
आवाज़ में डूब कर
एकाकार हो गईं है


--रा.त्रि

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पीली शर्ट वाला

मैं 


देखती थी तुम्हें
लेमन येलो कलर की शर्ट में
और तुम जाने क्या करते रहते थे
नीचे देखते हुए
दाहिने पैर के 
अंगूठे से ज़मीन खोदते हुए
और जैस ही तुम
सिर ऊपर उठाते थे
मैं अपनी आंखें कहीं और
घुमा लेती थी
बहाना था वो मेरा खुद से
कि ‘मैं तुम्हें नहीं देख रही थी ‘
हकीकत भी यही है कि
मैं दरअस्ल तुम्हें नहीं
.......
.......
खुद को देखती होती थी।


--रा.त्रि

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और ये हो न सका

सा भी हो सकता था
कि तुम और मैं 
बात करते दूर तक 
निकल जाते
तुम होते अपने सलीकों में 
सजे संभ्रांत..
और मैं होती
अपने लहज़े में बिंदास...
फिर एक सन्नाटा
चलता थोड़ी देर
हमारे साथ
फिर पता है क्या होता...
अचानक मैं लिपट जाती
तुम्हारे गले से
किसी बेल की तरह
और इससे पहले कि हतप्रभ
तुम कुछ समझ पाते
तुम्हारे अधरों पर रख देती
अपना अमृतपात्र
पता है
मैं कर सकती थी वैसा
तुम चले तो होते मेरे साथ
कुछ देर...झूठमूठ ही सही


--रा.त्रि

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हंसना ज़रूर

सुनो
तुम अपनी हंसी
की पीली छटा
हर सुबह बिखेर दिया करो
मेरे पतझड़ वाले 
आंगन में
ऐसे कट जाएगी
मेरी हर दुपहरिया
मैं वो हर दुपहर
सहेज कर रखूंगा


--रा.त्रि

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बंधन नाकाम


बांध दो मुझे 
तारों की कंटीली बाड़ में
फिर ऊंची दीवारें खड़ी करो
मेरे आस-पास..... 
ध्यान रहे 
सूरज की रोशनी का
एक कतरा भी
न पहुंचे मेरे माथे तक
और हां....
रोकना न भूलना
हवा के रास्ते भी
लेकिन....
थाम नहीं सकते
तुम वो तूफान
जो मेरे भीतर हरहराता है
रोज़ सुबह शाम

--रा.त्रि

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मैं सूफी

र रात
खुश होकर सोता हूं
कि अब तुम्हे जान गया हूं
पूरी तरह,
तुम्हारे कामा-फुलस्टाप के साथ
लेकिन अगली ही सुबह तुम
मुझे झूठा साबित कर देती हो
एकदम अनदेखे,
नये आयाम और...
एक और रंग के साथ
एकदम सूफी कवियों के
रहस्य वाले रंग      
हारता हूं हर सुबह
फिर भी खुश हूं
क्योंकि

मैं भी सूफी हो गया हूं

-रा.त्रि

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तो मेरी पहचान उन्हीं होठों से हो...

सब इधर उधर की बातें...
जगती-सोती सी रातें...
बिन मौसम कुछ बरसातें...
कुछ जीतें और कुछ मातें...
एक तेरी मुस्कान जो इतने भर से हो... तो मेरी पहचान उन्हीं होठों से हो...

रोज की मेहनत, लिखा-पढ़ी
सब इसीलिए तो है...
तुझ तक पहुंचे मेरा खत
बस इसीलिए तो है...
प्यार से खत को खोलो, और फिर और प्यार से चूमो...
हरी हरी सी घास पर जैसे नंगे पैरों घूमो...
आजादी की खुली हवा में झिलमिल झिलमिल हो... धूप छांव का खेल चले और पीपल छाया हो...   
फिर होगा वहीं बसेरा... 
कुछ ना तेरा ना मेरा...
अपना सब संसार जो इतने भर से हो...
एक तेरी मुस्कान जो इतने भर से हो... तो मेरी पहचान उन्हीं होठों से हो...

सब इधर उधर की बातें...
जगती-सोती सी रातें...
बिन मौसम कुछ बरसातें...
कुछ जीतें और कुछ मातें...
एक तेरी मुस्कान जो इतने भर से हो... तो मेरी पहचान उन्हीं होठों से हो...

प्रेम व्रेम की परी कहानी, सुनी सुनाई बातें... 
एक था राजा एक थी रानी, नानी चरखा कातें...
एक कहानी चलो हमारी भी कुछ ऐसी हो...
जिसे सुने तो रोता बच्चा सो जाए खुश हो...
परी कथा में ऐसा कोई ताना बाना हो...
ऐसा ही कोई मीठा मीठा गीत सुनाना हो...
अपना भी एक छोटा सा घर हो...
और वहां न कोई भी डर हो...
अपना सब जी-जान जो इतने भर से हो...
एक तेरी मुस्कान जो इतने भर से हो... तो मेरी पहचान उन्हीं होठों से हो...

सब इधर उधर की बातें...
जगती-सोती सी रातें...
बिन मौसम कुछ बरसातें...
कुछ जीतें और कुछ मातें...
एक तेरी मुस्कान जो इतने भर से हो... तो मेरी पहचान उन्हीं होठों से हो...


देवेश वशिष्ठ खबरी’ 13-06-13, रात 3.03

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