अमा यार, आप लोगों ने वो हैवी वाला डायलोग सुना है. ‘जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो.’ यार निकाल तो दें, पर परेशानी ये है कि अखबार से तोप का कनेक्शन पल्ले नहीं पड़ रहा. अमा छोड़िये तोप को, हमें तो इतना बता दीजिए, कि जब सामने सफेद टोपी और गेरूए लिबास में तोपची खड़े हों तो क्या किया जाय. तोप कोई बड़ी चीज नहीं है. बड़ी चीज है तोपची. वो भी ऐसे वैसे नहीं, हल्ला मचाते- आग लगाते- हुड़दंगी जमात के खतरनाक तोपची. अबकी नसल में ये पौध खूब हुई है. तोप के छर्रे तो हमारे पुरखों ने खूब छाती पर झेले हैं, फिर भी हम यहां बकतोली के लिए बचे रह गये. पर ये जो पुराने ठंग के नये तोपची आ गये हैं, इनका इलाज नजर नहीं आ रहा. अब हम खबरी टाइप इंसान निकाल लें अखबार. तो क्या होगा. बड़े ही जाहिल गंवार टाइप जमात है इन तोपचियों की. पहले तो कुछ सुनते ही नहीं. सिर्फ कहते हैं. माइक वालों से. अखबार वालों से. टोपी वालों से. बंदूक वालों से. पजामे वालों से. नेकर वालों से. ये लोग बस बोलना जानते हैं. अब चचे तुम ही बताओ क्या कर लेगा अखबार और क्या कर लोगे तुम. अच्छा चलो, हिम्मत भी की और उनकी बोलती पर तुमने अपनी कहनी-पूछनी शुरू कर दी तो पहले तो तुम्हारे जूते उतारेंगे. फिर तुम्हारे पैरों के सामान से पटापट तुम्हारा ही शीर्षाभिषेक करेंगे. बच आओ तो तुम्हारा भाग्य, नहीं तो उनका आंदोलन. रह गया तुम्हारा अखबार तो हां वो उनके काम आ जायेगा. उन तोपचीयों में कुछ कुशल शिल्पकार होते हैं जो किसी भी वक्त उन अखबारों को बांस की दो खपच्चियों पर गुत्थम-गुत्था करके एक जैसे आकार-प्रकार वाले पुतले बनाने में माहिर होते हैं और दूसरे उस पर बड़े सम्मान से तुम्हारी ही स्याही, (नहीं तो बूट-पॉलिश) से उस पर बड़े बड़े कर्णिम अक्षरों से दूसरी पार्टी वाले किसी भी महानुभाव का सादर नाम लिख देते हैं. और फिर कभी सरेराह, नुक्कड़- चौराहे पर दशहरे का प्री रिहर्सल या फिर किसी प्रिय के अंतिम संस्कार की पूर्व पैक्टिस. सब कुछ चालू है, अब ये बताओ कि अखबार निकालकर क्या करें. हम लिखें और खुदा बांचे तो क्या फायदा. सब पर काम है पर हम खबरियों की परेशानी कोई समझने को तैयार ही नहीं. अगर अखबार निकालना है तो बकौल बड़े बुजुर्ग पहले मुकाबिल तोपें ढूंढनी होंगी. और फिर अखबार की फ्रंट पेज लीड और संपादकीय ठूंस ठूंस कर उनकी नाल बंद करनी होगी. इस संपादकीय रिस्क के लिए न तो इग्नू अलग से स्पेशलाइज्ड रिस्क मैनेजमेंट कराती है और न ही एल आई सी सरे चौराहे इन तोपचियों से मुकाबले के लिए कोई इंश्योरेंस पॉलिसी देती है. हम बेचारी अबला खबरिया जात के लिए कोनूं आरक्षण-वारक्षण है कि नाहीं. अरे कोई आंदोलन वांदोलन करो यार. नहीं आता तो इन तोपचियों से ही पूछ लो. इन्हें सब रास्ते पता हैं.
देवेश वशिष्ठ खबरी
9811852336
आपने आज तहलका पढ़ा या नहीं?,- ये लेख तहलका पर देखें.- http://hindi.tehelka.co.in/stambh/anyastambh/fulka/116.html
अखबार तो निकाल दें, पर तोप कहां ढ़ूंढें?
मैं गूंगा हूं
'घर का सारा काम कराती हैं और तीन घंटे बाद छोड़ती हैं मेमसाब... '
सब ढंक गया
ग़ालिब और इज़ारबंद
निदा फाजली
इस 'ग़ालिब म्यूज़ियम' में और बहुत सी चीज़ों के साथ किसी हस्तकार के हाथ का बना हुआ एक इज़ारबंद भी है. ग़ालिब दिल्ली के बल्लीमारान इलाक़े में रहा करते थे. ग़ालिब के उस लंबे, रेशमी इज़ारबंद ने मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही व्यवहार किया. ग़ालिब म्यूज़ियम में पड़ा हुआ मैं अचानक 2006 से निकलकर पुरानी दिल्ली की टेढ़ी-मेढ़ी गलियों से गुज़रकर बल्लीमारान में सहमी सिमटी उस हवेली में पहुँच गया जहाँ ग़ालिब आते हुए बुढ़ापे में गई हुई जवानी का मातम कर रहे थे. इस हवेली के बाहर अंग्रेज़ दिल्ली के गली-कूचों में 1857 का खूनी रंग भर रहे थे.
ग़ालिब का शेर है -
हम कहाँ के दाना थे किस हुनर में यकता थे
हवेली के बाहर के फाटक पर लगी लोहे की बड़ी सी कुंडी खड़खड़ाती है. ग़ालिब अंदर से बाहर आते हैं तो सामने अंग्रेज़ सिपाहियों की एक टोली नज़र आती है. ग़ालिब के सिर पर अनोखी सी टोपी, बदन पर कढ़ा हुआ चोगा और इसमें से झूलते हुए ख़ूबसूरत इज़ारबंद को देखकर टोली के सरदार ने टूटी फूटी हिंदुस्तानी में पूछा, “तुमका नाम क्या होता?”
इज़ारबंद से ग़ालिब का रिश्ता अजीब शायराना था. इज़ारबंद दो फारसी शब्दों से बना हुआ एक लफ्ज़ है. इसमें इज़ार का अर्थ पाजामा होता है और बंद यानी बाँधने वाली रस्सी. औरतों के लिए इज़ारबंद में चाँदी के छोटे छोटे घुँघरु भी होते थे और इनमें सच्चे मोती भी टाँके जाते थे. लखनऊ की चिकन, अलीगढ़ की शेरवानी, भोपाल के बटुवों और राजस्थान की चुनरी की तरह ये इज़ारबंद भी बड़े कलात्मक होते थे. हिंदुस्तानी में इसे कमरबंद कहते हैं. यह इज़ारबंद मशीन के बजाय हाथों से बनाए जाते थे.
ये इज़ारबंद आज की तरह अंदर उड़स कर छुपाए नहीं जाते थे. ये छुपाने के लिए नहीं होते थे.
पुरुषों के कुर्तों या महिलाओं के ग़रारों से बाहर लटकाकर दिखाने के लिए होते थे. पुरानी शायरी में ख़ासतौर से नवाबी लखनऊ में प्रेमिकाओं की लाल चूड़ियाँ, पायल, नथनी और बुंदों की तरह इज़ारबंद भी सौंदर्य के बयान में शामिल होता था.
ग़ालिब तो रात के सोचे हुए शेरों को दूसरे दिन याद करने के लिए इज़ारबंद में गिरहें लगाते थे और उन्हीं के युग में एक अनामी शायर नज़ीर अकबराबादी इसी इज़ारबंद के सौंदर्य को काव्य विषय बनाते थे. इनमें कुछ यूँ हैं, ‘इज़ारबंद की ढीली’ उस स्त्री के लिए इस्तेमाल होता है जो चालचलन में अच्छी न हो. मैंने इस मुहावरे को छंदबद्ध किया है.
जफ़ा है ख़ून में शामिल तो वो करेगी ज़फा
उनकी नज़्म के कुछ शेर -
धोखे में हाथ लग गया मेरा नज़ीर तो
ज़ाहिल मेरे बाने
भवानी प्रसाद मिश्र
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मैं असभ्य हूं क्योंकि खुले नंगे पांवों चलता हूं
मैं असभ्य हूं क्योंकि धूल की गोदी में पलता हूं
मैं असभ्य हूं क्योंकि चीर कर धरती धान उगाता हूं
मैं असभ्य हूं क्योंकि ढोल पर बहुत ज़ोर से गाता हूं
आप सभ्य हैं क्योंकि हवा में उड़ जाते हैं ऊपर
आप सभ्य हैं क्योंकि आग बरसा देते हैं भू पर
आप सभ्य हैं क्योंकि धान से भरी आपकी कोठी
आप सभ्य हैं क्योंकि ज़ोर से पढ़ पाते हैं पोथी
आप सभ्य हैं क्योंकि आपके कपड़े स्वयं बने हैं
आप सभ्य हैं क्योंकि जबड़े खून सने हैं
आप बड़े चिंतित हैं मेरे पिछड़ेपन के मारे
आप सोचते हैं कि सीखता यह भी ढंग हमारे
मैं उतारना नहीं चाहता जाहिल अपने बाने
धोती-कुरता बहुत ज़ोर से लिपटाए हूं याने!
भवानीप्रसाद मिश्र
कभी धूप कभी छाँव के दिन
जावेद अख़्तर
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रात के शायद दो बजे होंगे। बंबई की बरसात, लगता है आसमान से समंदर बरस रहा है....
मैं खार स्टेशन के पोर्टिको की सीढ़ियों पर एक कमज़ोर से बल्ब की कमज़ोर सी रौशनी में बैठा हूँ। पास ही ज़मीन पर इस आँधी-तूफ़ान से बेख़बर तीन आदमी सो रहे हैं।
दूर कोने में एक भीगा हुआ कुत्ता ठिठुर रहा है.... बारिश लगता है अब कभी नहीं रुकेगी..... दूर तक ख़ाली अँधेरी सड़कों पर मूसलाधार पानी बरस रहा है.... ख़ामोश बिल्डिंगों की रौशनियाँ कब की बुझ चुकी हैं....
लोग अपने-अपने घरों में सो रहे होंगे.... इसी शहर में मेरे बाप का भी घर है.... बंबई कितना बड़ा शहर है और मैं कितना छोटा हूँ, जैसे कुछ नहीं हूँ.... आदमी कितनी भी हिम्मत रखे कभी-कभी बहुत डर लगता है........मैं अब साल भर से कमाल स्टूडियो (जो कि अब नटराज स्टूडियो है) में रहता हूँ.... कंपाउंड में कहीं भी सो जाता हूँ. ....कभी किसी बरामदे में, कभी किसी पेड़ के नीचे, कभी किसी बेंच पर, कभी किसी कॉरीडोर में..... यहाँ मेरे जैसे और कई बेघर और बेरोज़गार इसी तरह रहते हैं....
उन्हीं में से एक जगदीश है, जिससे मेरी अच्छी दोस्ती हो जाती है..... वो रोज़ एक नई तरकीब सोचता है कि आज खाना कहाँ से और कैसे मिल सकता है, आज दारू कौन और क्यों पिला सकता है..... जगदीश ने बुरे हालात में ज़िंदा रहने को एक आर्ट बना लिया है.....मेरी जान-पहचान अँधेरी स्टेशन के पास फुटपाथ पर एक सेकंड हैंड किताब बेचने वाले से हो गई है. ....इसलिए किताबों की कोई कमी नहीं है.... रात-रात भर कम्पाउंड में जहाँ भी थोड़ी रौशनी होती है, वहीं बैठकर पढ़ता रहता हूँ....दोस्त मज़ाक करते हैं कि मैं इतनी कम रौशनी में अगर इतना ज़्यादा पढ़ता रहा तो कुछ दिनों में अंधा हो जाऊँगा... आजकल एक कमरे में सोने का मौक़ा मिल गया है....स्टूडियो के इस कमरे में चारों तरफ़ दीवारों में लगी बड़ी-बड़ी अलमारियाँ हैं जिनमें फ़िल्म पाकीज़ा के दर्जनों कॉस्ट्यूम रखे हैं.....मीना कुमारी कमाल साहब से अलग हो गई हैं, इसलिए इन दिनों फ़िल्म की शूटिंग बंद है.... एक दिन मैं एक अल्मारी का ख़ाना ख़ोलता हूँ, इसमें फ़िल्म में इस्तेमाल होने वाले पुरानी तरह के जूते-चप्पल और सैंडिल भरे हैं और उन्हीं में मीना कुमारी के तीन फ़िल्मफ़ेयर एवार्ड भी पड़े हैं....मैं उन्हें झाड़-पोंछकर अलग रख देता हूँ.... मैंने ज़िंदगी में पहली बार किसी फ़िल्म एवार्ड को छुआ है....रोज़ रात को कमरा अंदर से बंद करके, वो ट्रॉफी अपने हाथ में लेकर आईने के सामने खड़ा होता हूँ और सोचता हूँ कि जब ये ट्रॉफी मुझे मिलेगी तो तालियों से गूँजते हुए हॉल में बैठे हुए लोगों की तरफ़ देखकर मैं किस तरह मुस्कुराऊँगा और कैसे हाथ हिलाऊँगा.....इसके पहले कि इस बारे में कोई फ़ैसला कर सकूँ स्टूडियो के बोर्ड पर नोटिस लगा है कि जो लोग स्टूडियो में काम नहीं करते वो कम्पाउंड में नहीं रह सकते।
यह वह दौर था जब कामयाबी मिलने लगी थी। जगदीश मुझे फिर एक तरकीब बताता है कि जब तक कोई और इंतज़ाम नहीं होता हम लोग महाकाली की गुफाओं में रहेंगे(महाकाली अँधेरी से आगे एक इलाक़ा है जहाँ अब एक घनी आबादी और कमालिस्तान स्टूडियो है। उस ज़माने में वहाँ सिर्फ़ एक सड़क थी, जंगल था और छोटी-छोटी पहाड़ियाँ जिनमें बौद्ध-भिक्षुओं की बनाई पुरानी गुफाएँ थी, जो आज भी हैं। उन दिनों उनमें कुछ चरस-गाँजा पीने वाले साधु पड़े रहते थे....महाकाली की गुफाओं में मच्छर इतने बड़े हैं कि उन्हें काटने की ज़रूरत नहीं, आपके तन पर सिर्फ़ बैठ जाएँ तो आँख खुल जाती हैं...एक ही रात में ये बात समझ में आ गई कि वहाँ चरस पीए बिना कोई सो ही नहीं सकता... तीन दिन जैसे-तैसे गुज़ारता हूँ....बांदरा में एक दोस्त कुछ दिनों के लिए अपने साथ रहने के लिए बुला लेता है..... मैं बांदरा जा रहा हूँ।
जगदीश कहता है दो-एक रोज़ में वो भी कहीं चला जाएगा (ये जगदीश से मेरी आख़िरी मुलाकात थी)।
आनेवाले बरसों में ज़िंदगी मुझे कहाँ ले गई मगर वो ग्यारह बरस बाद वहीं, उन्हीं गुफ़ाओं में चरस और कच्ची दारू पी-पीकर मर गया और वहाँ रहने वाले साधुओं और आसपास के झोंपड़-पट्टी वालों ने चंदा करके उनका क्रिया-कर्म कर दिया-क़िस्सा खतम। मुझे और उसके दूसरे दोस्तों को उसके मरने की ख़बर भी बाद में मिली। मैं अकसर सोचता हूँ कि मुझमें कौन से लाल टंकें हैं और जगदीश में ऐसी क्या ख़राबी थी। ये भी तो हो सकता था कि तीन दिन बाद जगदीश के किसी दोस्त ने उसे बांदरा बुला लिया होता और मैं पीछे उन गुफाओं में रह जाता। कभी-कभी सब इत्तिफ़ाक लगता है.... हम लोग किस बात पर घमंड करते हैं....
मैं बांदरा में जिस दोस्त के साथ एक कमरे में आकर रहा हूँ वो पेशेवर जुआरी है. ..वो और उसके दो साथी जुए में पत्ते लगाना जानते हैं.... मुझे भी सिखा देते हैं...कुछ दिनों उनके साथ ताश के पत्तों पर गुज़ारा होता है फिर वो लोग बंबई से चले जाते हैं और मैं फिर वहीं का वहीं-अब अगले महीने इस कमरे का किराया कौन देगा....एक मशहूर और कामयाब राइटर मुझे बुलाके ऑफ़र देते हैं कि अगर मैं उनके डॉयलॉग लिख दिया करूँ (जिन पर ज़ाहिर है मेरा नहीं उनका ही नाम जाएगा) तो वो मुझे छह सौ रुपए महीना देंगे....सोचता हूँ ये छह सौ रुपए इस वक़्त मेरे लिए छह करोड़ के बराबर हैं, ये नौकरी कर लूँ, फिर सोचता हूँ कि नौकरी कर ली तो कभी छोड़ने की हिम्मत नहीं होगी, ज़िंदगी-भर यही करता रह जाऊँगा, फिर सोचता हूँ अगले महीने का किराया देना है, फिर सोचता हूँ देखा जाएगा....तीन दिन सोचने के बाद इनकार कर देता हूँ.... दिन, हफ़्ते, महीने, साल गुज़रते हैं.... बंबई में पाँच बरस होने को आए, रोटी एक चाँद है हालात बादल, चाँद कभी दिखाई देता है, कभी छुप जाता है.....ये पाँच बरस मुझ पर बहुत भारी थे मगर मेरा सर नहीं झुका सके..... मैं नाउम्मीद नहीं हूँ... मुझे यक़ीन है, पूरा यक़ीन है, कुछ होगा, कुछ ज़रूर होगा, मैं यूँ ही मर जाने के लिए नहीं पैदा हुआ हूँ-और आख़िर नवंबर, 1969 में मुझे वो काम मिलता है जिसे फ़िल्मवालों की ज़बान में सही "ब्रेक"कहा जाता है...कामयाबी भी जैसे अलादीन का चिराग़ है... अचानक देखता हूँ कि दुनिया ख़ूबसूरत है और लोग मेहरबान.... साल-डेढ़ साल में बहुत कुछ मिल गया है और बहुत कुछ मिलने को है. .....
सीता और गीता के सेट पर हनी ईरानी मिलीं और फिर शादी हो गई...हाथ लगते ही मिट्टी सोना हो रही है और मैं देख रहा हूँ-अपना पहला घर, अपनी पहली कार.... तमन्नाएँ पूरी होने के दिन आ गए हैं मगर ज़िंदगी में एक तनहाई तो अब भी है.....सीता और गीता के सैट पर मेरी मुलाकात हनी ईरानी से होती है..... वो एक खुले दिल की, खरी ज़बान की मगर बहुत हँसमुख स्वभाव की लड़की है..... मिलने के चार महीने बाद हमारी शादी हो जाती है...मैंने शादी में अपने बाप के कई दोस्तों को बुलाया है मगर अपने बाप को नहीं (कुछ जख़्मों को भरना अलादीन के चिराग़ के देव के बस की बात नहीं-ये काम सिर्फ वक़्त ही कर सकता है).... दो साल में एक बेटी और एक बेटा, ज़ोया और फ़रहान होते हैं....
अगले छह वर्षों में एक के बाद एक लगातार बारह सुपर हिट फ़िल्में, पुरस्कार, तारीफ़ें, अख़बारों और मैगज़ीनों में इंटरव्यू, तस्वीरें, पैसा और पार्टियाँ, दुनिया के सफ़र, चमकीले दिन, जगमगाती रातें-ज़िंदगी एक टेक्नीकलर ख़्वाब है, मगर हर ख़्वाब की तरह यह ख़्वाब भी टूटता है.....पहली बार एक फ़िल्म की नाकामी-(फिल्में तो उसके बाद नाकाम भी हुईं और कामयाब भी मगर कामयाबी की वो खुशी और खुशी की वो मासूमियत जाती रही)....
(फ़िल्मी गीतकार, पटकथा लेखक और उर्दू शायर जावेद अख़्तर का यह आत्मकथ्य उनके काव्य संग्रह 'तरकश' से लिया गया है)बीबीसी से साभार
शेर लिख कर सुलह की एक बाग़ी बेटे ने

अब तक तो मैं अपने आपको एक बाग़ी और नाराज़ बेटे के रूप में पहचानता था मगर अब मैं कौन हू। मैं अपने-आपको और फिर अपने चारो तरफ़, नई नज़रों से देखता हूँ कि क्या बस यही चाहिए था मुझे ज़िंदगी से। इसका पता अभी दूसरों को नहीं है मगर वो तमाम चीज़ें जो कल तक मुझे खुशी देती थीं झूठी और नुमाइशी लगने लगी हैं। अब मेरा दिल उन बातों में ज़्यादा लगता है जिनसे दुनिया की ज़बान में कहा जाए तो, कोई फ़ायदा नहीं। शायरी से मेरा रिश्ता पैदाइशी और दिलचस्पी हमेशा से है। लड़कपन से जानता हूँ कि चाहूँ तो शायरी कर सकता हूँ मगर आज तक की नहीं है। ये मेरी नाराज़गी और बग़ावत का एक प्रतीक है। 1979 में पहली बार शेर कहता हूँ और ये शेर लिखकर मैंने अपनी विरासत और अपने बाप से सुलह कर ली है। इसी दौरान मेरी मुलाक़ात शबाना से होती है। कैफ़ी आज़मी की बेटी शबाना भी शायद अपनी जड़ों की तरफ़ लौट रही थी। उसे भी ऐसे हज़ारों सवाल सताने लगे हैं जिनके बारे में उसने पहले कभी नहीं सोचा था। मैं खुश हूँ और शबाना भी, जो सिर्फ़ मेरी बीवी नहीं मेरी महबूबा भी है। जो एक ख़ूबसूरत दिल भी है और एक क़ीमती ज़हन भी। "मैं जिस दुनिया में रहता हूँ वो उस दुनिया की औरत हैं"- ये पंक्ति अगर बरसों पहले मज़ाज़ ने किसी के लिए न लिखी होती तो मैं शबाना के लिए लिखता।

कोई हैरत नहीं कि हम क़रीब आने लगते हैं। धीरे-धीरे मेरे अंदर बहुत कुछ बदल रहा है। फ़िल्मी दुनिया में जो मेरी पार्टनरशिप थी टूट जाती है। मेरे आसपास के लोग मेरे अंदर होनेवाली इन तब्दीलियों को परेशानी से देख रहे हैं। 1983 में मैं और हनी अलग हो जाते हैं. (हनी से मेरी शादी ज़रूर टूट गई मगर तलाक भी हमारी दोस्ती का कुछ नहीं बिगाड़ सकी। और अगर माँ-बाप के अलग होने से बच्चों में कोई ऐसी कड़वाहट नहीं आई तो इसमें मेरा कमाल बहुत कम और हनी की तारीफ़ बहुत ज़्यादा है। हनी आज एक बहुत कामयाब फ़िल्म राइटर है और मेरी बहुत अच्छी दोस्त। मैं दुनिया में कम लोगों को इतनी इज़्ज़त करता हूँ जितनी इज़्ज़त मेरे दिल में हनी के लिए है.)
मैंने एक क़दम उठा तो लिया था मगर घर से निकल के कई बरसों के लिए मेरी ज़िंदगी "कटी उम्र होटलों में मरे अस्पताल जाकर" जैसी हो गई। शराब पहले भी बहुत पीता था मगर फिर बहुत ही ज़्यादा पीने लगा. ये मेरी ज़िंदगी का एक दौर है जिस पर मैं शर्मिंदा हूँ। इन चंद बरसों में अगर दूसरों ने मुझे बर्दाश्त कर लिया तो ये उनका एहसान है. बहुत मुमकिन था कि मैं यूँ ही शराब पीते-पीते मर जाता मगर एक सबेरे किसी की बात ने ऐसा छू लिया कि उस दिन से मैंने शराब को हाथ नहीं लगाया और न कभी लगाऊँगा। आज इतने बरसों बाद जब अपनी ज़िंदगी को देखता हूँ तो लगता है कि पहाड़ों से झरने की तरह उतरती, चटानों से टकराती, पत्थरों में अपना रास्ता ढूँढ़ती, उमड़ती, बलखाती, अनगिनत भँवर बनाती, तेज़ चलती और अपने ही किनारों को काटती हुई ये नदी अब मैदानों में आकर शांत और गहरी हो गई है।
मेरे बच्चे ज़ोया और फ़रहान बड़े हो गए हैं और बाहर की दुनिया में अपना पहला कदम रखने को हैं। उनकी चमकती हुई आँखों में आने वाले कल के हसीन ख़्वाब हैं। सलमान, मेरा छोटा भाई, अमेरिका में एक कामयाब साइकोएनालिस्ट, बहुत-सी किताबों का लेखक, बहुत अच्छा शायर, एक मोहब्बत करने वाली बीवी का पति और दो बहुत ज़हीन बच्चों का बाप है । ज़िंदगी के रास्ते उसके लिए कुछ कठिन नहीं थे मगर उसने अपनी अनथक मेहनत और लगन से अपनी हर मंज़िल पा ली है. और आज भी आगे बढ़ रहा है। मैं खुश हूँ और शबाना भी, जो सिर्फ़ मेरी बीवी नहीं मेरी महबूबा भी है. जो एक ख़ूबसूरत दिल भी है और एक क़ीमती ज़हन भी. "मैं जिस दुनिया में रहता हूँ वो उस दुनिया की औरत हैं"- ये पंक्ति अगर बरसों पहले मज़ाज़ ने किसी के लिए न लिखी होती तो मैं शबाना के लिए लिखता ।
आज यूँ तो ज़िंदगी मुझ पर हर तरह से मेहरबान है मगर बचपन का वो एक दिन, 18 जनवरी 1953 अब भी याद आता है। जगह, लखनऊ, मेरे नाना का घर-रोती हुई मेरी ख़ाला, मेरे छोटे भाई सलमान को, जिसकी उम्र साढे छह बरस है और मुझे हाथ पकड़ के घर के उस बड़े कमरे में ले जाती हैं जहाँ फ़र्श पर बहुत सी औरतें बैठी हैं। तख़्त पर सफ़ेद कफ़न में लेटी मेरी माँ का चेहरा खुला है। सिरहाने बैठी मेरी बूढ़ी नानी थकी-थकी सी हौले-हौले रो रही हैं। दो औरतें उन्हें संभाल रही हैं। मेरी खाला हम दोनों बच्चों को उस तख़्त के पास ले जाती हैं और कहती है, अपनी माँ को आख़िरी बार देख लो । मैं कल ही आठ बरस का हुआ था। समझदार हूँ... जानता हूँ मौत क्या होती है।
मैं अपनी माँ के चेहरे को बहुत ग़ौर से देखता हूँ कि अच्छी तरह याद हो जाए। मेरी ख़ाला कह रही हैं-इनसे वादा करो कि तुम ज़िंदगी में कुछ बनोगे, इनसे वादा करों कि तुम ज़िंदगी में कुछ करोगे । मैं कुछ कह नहीं पाता, बस देखता रहता हूँ और फिर कोई औरत मेरी माँ के चेहरे पर कफ़न ओढ़ा देती है-
ऐसा तो नहीं है कि मैंने ज़िंदगी में कुछ किया ही नहीं है लेकिन फिर ये ख़्याल आता है कि मैं जितना कर सकता हूँ उसका तो एक चौथाई भी अब तक नहीं किया और इस ख़्याल को दी हुई बेचैनी जाती नहीं.
(फ़िल्मी गीतकार, पटकथा लेखक और उर्दू शायर जावेद अख़्तर के काव्य संग्रह 'तरकश' से साभार )