नमस्कार, मैं हूं राहुल शर्मा... और आप देख रहे हैं टेलीविजन इंडिया... इस वक्त की बड़ी खबर आ रही है आगरा के ताज महोत्सव से जहां भीषण आग लग गई है... आग में शिल्पियों के दो सौ से ज्यादा पांडाल जलकर खाक हो गए हैं... मौके पर दमकल की गाड़ियां पहुंच चुकी हैं... इस बीच खबर आ रही है कि कुछ लोग आग में फंसे हो सकते हैं... हमारे संवाददाता प्रशान्त कौशिक फोन लाईन पर हमसे जुड़ चुके हैं... प्रशांत क्या अपटेड है...?
असाइन्मेंट हैड आलोक श्रीवास्तव के चेहरे पर मुस्कान दौड़ रही थी... आउटपुट हैड शशिरंजन झा खुद पीसीआर संभाले हुए थे... ओवी पर शॉट आ गए हैं... जल्दी काटो... राहुल लाइव टॉस करो... हम सबसे पहले हादसे की सीधी तस्वीरें दिखा रहे हैं... खबर को बेचो... याद रखो खबर सबसे पहले हमने ब्रेक की है... शशिरंजन जी ने एंकर का टॉकबैक ऑन करके तमाम इंस्ट्रेक्शन एक सांस में दे मारे...
... और आपको सीधे लिए चलते हैं आगरा के ताजमहोत्सव में, जहां इस वक्त भयंकर आग लगी हुई है... इस वक्त आप अपने टेलीविजन स्क्रिन पर हादसे की पहली तस्वीरें देख रहे हैं... हम अपने दर्शकों को बता दें कि सबसे पहले ये खबर आप टेलीविजन इंडिया पर देख रहे हैं... और जैसा कि अभी हमारे संवाददाता प्रशान्त कौशिक बता रहे थे... आग में से चार शव निकाले जा चुके हैं... चारों शव इतनी बुरी तरह झुलस गए हैं कि उनकी शिनाख्त नहीं हो पा रही है... आग में शिल्पियों का तकरीबन एक करोड़ रुपये का माल जलकर खाक हो गया है... इस वक्त टेलीविजन स्क्रिन पर आप ताजमहोत्सव की आग की लाईव तस्वीरें देख रहे हैं... और हमारे साथ फोन लाइन पर जुड़ चुके हैं आगरा के एसएसपी जीपी निगम... निगम साहब, कैसे लगी ये आग? इतने बड़े जलसे के लिए पर्याप्त सुरक्षा इंतजाम क्यों नहीं किये गए थे... ?
एंकर की आवाज में अचानक जोश आ गया था... आउटपुट हैड बार बार टॉक बैक ऑन करके उसे याद दिला रहे थे कि ये तस्वीरें सिर्फ उन्हीं के चैनल पर दिखाई जा रही हैं... और राहुल हर बार और जोर से ये बात दर्शकों के सामने दोहरा रहा था...
प्राइम टाइम खत्म हुआ... भई वाह... छा गए... खूब बिक गई खबर... मार्केट मार लिया आज तो... एक्सक्लूसिव का टैग लगा लगा कर चलाई खबर... वैल डन राहुल... वैल डन... राहुल की जान में अब जान पड़ी... आउटपुट हैड औऱ एडिटर इन चीफ ने उसकी पीठ ठोंकी थी...
अरे सर... आगरा तो मेरा घर है... उस शहर की हर बारीकी जानता हूं मैं... आपने देखा कि कैसे लपेटा एसएसपी को सुरक्षा इंतेजामों के मुद्दे पर... एंकर ने टाई ढीली की... मेकअप रिमूव किया... आज की मजदूरी पूरी हो गई थी...
सर, शायद आपका फोन आ रहा है... मेकअप आर्टिस्ट ने राहुल को इशारा किया... राहुल हमेशा की तरह आज भी शो के बाद फोन का साइलेंट मोड डीएक्टीवेट करना भूल गया था... उधर पिताजी की भर्राई आवाज थी... अनर्थ हो गया बेटा... अंजली बुरी तरह से झुलस गई है... एट्टी पर्सेंट बर्न थी, जब हॉस्पीटल ले गए...
फोन के उस पार से जैसे शहर भर के रोने की आवाज आ रही थी... एंकर के कंधे से कोट उतर चुका था... एक आम आदमी अपनी बहन के लिए रो रहा था...
देवेश वशिष्ठ ‘खबरी’
9953717705
एंकर का कोट
दिल में कारगिल


कारगिल का नाम ज़ेहन में आते ही सामने जंग की भयावह तस्वीर होती है, कानों में धमाकों की गूंज होती है और सैंकड़ों शहीदो के चेहरे होते हैं। कारगिल याद किया जा सकता है दुनिया के सबसे ख़ूबसूरत टुरिस्ट स्पॉट्स में से एक होने के लिए लेकिन इसे पाकिस्तानी फौज और घुसपैठियों ने तब्दील कर दिया है एक ख़तरनाक वॉर फ़ील्ड में। राकेश जी और मनीष के साथ किये इस कार्यक्रम का नाम हमने रखा था, “कारगिल कल और आज”, विश्वास जानिए इन दोनों से बातचीत के बाद एहसास होता है कि कारगिल आज भी उतना ही ख़ूबसूरत है जितना कल था, हां वहां टैंकर्स की तैनाती, बड़ी तदाद में फौज, आंखों को चुभती है लेकिन इस जगह की सुरक्षा के लिए वो देश की मजबूरी भी है।

राकेश जी, मनीष या जो भी इस जगह पर गया इसकी यादें अब भी उनके दिलों में ताज़ा हैं। मैं ख़ुद कभी कारगिल नहीं गया लेकिन इस पर ये कार्यक्रम करने के बाद और अपने सहयोगियों से इसकी ख़ूबसूरती के बारे में जानने के बाद, यहां के बेहतरी नज़ारों की तस्वीरें देखने के बाद ये मेरे भी दिल में बस गया है। जब मौक़ा मिलेगा में यहां ज़रुर जाऊंगा। आप को मौक़ा मिले तो आप भी जाईएगा, क्योंकि कारगिल में अगर हालात सामान्य होंगे तो ये नापाक मंसूबे वाले दुश्मनों को भी क़रारा तमाचा होगा। जय हिंद
आख़िर क्यों ?
आख़िर क्यों क्यों क्यों ?
ये 'क्यों' है... एक प्रवृत्ति के लिए। प्रवृत्ति दूसरों की ज़िंदगी में ताक-झांक करने की। कई बार हैरानी होती है कि क्यों हमारी दिलचस्पी अपने नंगे सचों को देखने के बजाए दूसरों की ज़िंदगी को नंगा करने में होती है? जहां चार लोगों की महफ़िल जमी वहां किसी पांचवे का ज़िक्र छिड़ जाता है। दूसरे की ज़िंदगी में भी दिलचस्पी लेना वहां तक समझ आता है, जहां तक उस दिलचस्पी से हमारी अपनी ज़िंदगी कुछ ख़ास तरह से जुड़ी हो। किसी ने क्या पहना है, क्या खरीदा, किसकी ज़िंदगी में कौन आया, कौन किससे बात कर रहा है, किसके साथ घूम रहा है, वो दुखी क्यों है, वो इतना खुश क्यों है....... आख़िर क्यों ? क्या एक सामाजिक प्राणी होने या दुनियादारी निभाने का मतलब ये होता है कि हम दूसरों की ज़िंदगी में गैरज़रुरी दख़ल देना शुरु कर दें.... या किसी दूसरे को अपनी सोच का गैरज़रुरी हिस्सा बना लें।
इस आदत की गुलामी में जी रहे लोगों पर अब तो तरस आने लगा है। फिल्म DDLJ का एक डॉयलॉग याद आ गया जो 'छुटकी' काजोल से कहती है...
मेराज़ साहब और वो शाम
मेराज़ फ़ैज़ाबादी बहुत बड़े शायर हैं और मैं उनसे एक बार 1992 में लखनऊ में मिला हूं। अब शायद उन्हें याद भी न हो..लेकिन पिछले हफ्ते लखनऊ में ही एक शाम चाय पर उनके साथ बीती। अच्छी आवाज़ और सुंदर शब्दों का जो सेलेक्शन उनकी बातचीत में होता है,वो यकीनन किसी भी अच्छे साहित्यकार की पहचान होता है। उनको बैठकर इत्मीनान से सुनना अपने आप में एक एहसास है। शायर तो हैं ही..किस्सागो भी हैं मेराज़ साहब। किस्से तो नहीं लेकिन बातचीत में कुछ अनुभव उन्होंने सुनाए जो भीतर तक भिगो गए। मेराज़ साहब 1993 में एक मुशायरे में मस्कत गए तो कुवैत के पाकिस्तानी राजदूत और उनकी पत्नी से उनकी मुलाकात हुई। करामतुल्ला गौरी और उनकी शरीक-ए-हयात आबिदा करामत। पति-पत्नी दोनों शायर थे और मुशायरे का एक हिस्सा भी। एंबेस्डर साहेब की बेगम ने जो शेर पढ़ा वो मेराज़ साहेब आज तक नहीं भूल पाए हैं...ये शेर उन्होंने अपने बेटे की याद में लिखा था जो पढ़ने के लिए अमरीका चला गया था। ये शेर कुछ यों था..
वो क्या गया कि दर-ओ-बाम हो गये तारीक
मैं उसकी आंख से घर का दिया जलाती थी।
ये शेर सुनाते सुनाते मेराज़ साहब की आंखों में पानी आ जाता है..कहते हैं कि ऐसे उम्दा शेर उन्होंने बहुत कम सुने और उस मुशायरे के बाद बेगम आबिदा करामात के लिए उनके मन में इज़्ज़त बढ़ गई। मेराज़ साहब यहीं नहीं रुकते। बताते हैं कि आगे चलकर कई सालों बाद बेगम साहिबा से उनकी एक और मुलाकात शिकागो में हुई। शिकागो में उन्होंने बरसों से ज़ेहन में दबा एक सवाल उनसे पूछ ही लिया। उन्होंने पूछा कि आपका हिंदुस्तान से क्या रिश्ता है। बेगम ने तपाक से कहा-मेराज़ साहब, मैं पाकिस्तानी एंबैस्डर की बीवी हूं...मुझसे हिंदुस्तान की बात क्यों। मेराज़ साहब ने कहा-क्योंकि ऐसी सोच सिर्फ उसी धरती से मिल सकती है..आप बताएं आप हिंदुस्तान के किस इलाके से वास्ता रखती हैं। बेगम ने ठंडी सांस ली और बताना शुरू किया.....मेराज़ साहब, आप का अंदाज़ा सही है। उम्र के 12 बसंत मैंने झांसी में बिताए हैं...वही झांसी..रानी लक्ष्मीबाई वाली। 12 बरस की उम्र में जब देश टूटा तो मां बाप के साथ मैं पाकिस्तान आ गई। आ तो गई लेकिन वो घर...उसकी देहरी ...उसके कमरे...सब कुछ मुझे भुलाए नहीं भूला। पढाई लिखाई की और फिर शादी...कई पड़ाव ज़िंदगी के पीछे छूटते गए लेकिन झांसी का वो घर न भुलाया गया। झांसी फिर से देखने की ललक लिए लिए कई साल बीत गए। डिप्लोमैट्स को हिंदुस्तान का वीज़ा मिलना कोई आसान नहीं होता , लेकिन फिर भी कई कोशिशो के बाद आखिर एक दिन झांसी जाने का मौका मिल ही गया। दिल्ली आई और सिर्फ एक अदद अटैची लेकर ट्रेन से झांसी रवाना हुई। शहर बदला हुआ सा था ...लेकि न अपने घर जाने की न जाने कैसी उमंग थी...कि सब कुछ जाना पहचाना सा लगता था। इक्के से मैं अपने उस मोहल्ले पहुंची....और कहीं खो गई। घर न जाने कैसे हो गए थे। कुछ नए मकानात बन गए थे और मोहल्ला कुछ सिकुड़ा सिकुड़ा सा लग रहा था। कुछ पलों के लिए मैं देश और सीमाएं भूल गई - होश आया तो सामने एक बूढ़े हज़रत खड़े थे...लंबी दाढ़ी...सौम्य चेहरा...उन्होंने पूछा-किसको खोजती हो बेटी ? मैंने अपने वालिद का नाम बताया ...तुरंत जवाब आया बगल वाली गली में चली जाओ बेटी...घुसते ही दूसरा घर है। मुझे हैरत थी..जिस धरती से हमने हर नाता तोड़ लिया था ..वहां लोगों को वालिद का नाम अब भी याद है.....वो वक्त भी आया जब मैंने खुद को अपने उसी घर के सामने खड़ा पाया , जिसे आज से कई बरस पहले छोड़कर हम पाकिस्तान चले गए थे। अटैची ज़मीन पर रखी और पहले जी भर कर उस इमारत को देख लेना चाहा..जो अब अपनी नहीं थी। चौंकी तब जब घर के किवाड़ खुले और एक पचासेक के आसपास की महिला सामने आकर खड़ा हो गईं। पूछा-कौन हो बेटा-कहां जाना है। मैंने कहा-अम्मां , मैं यहीं आईं हूं ..इस घर में 12 बरस बचपन के बिताए हैं मैंने...अब पाकिस्तान में हूं....ये घर मेरे सपने में आता था...आज देखने आई हूं। जवाब भी तपाक से आया-अरे बेटी , तो खड़ी क्यों हो ...अपने घर आने के लिए सोचना कैसा.. उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा..और सीधे घर के भीतर ले गईं। वो एक ऐसा हिंदू परिवार था जो विभाजन के बाद पाकिस्तान से यहा आया था । उसे हमारा घर दे दिया गया था। भीतर आकर उन्होंने ऊंची आवाज़ लगाई और सबको बुला लिया..और कहा-देखो बेटी आई है। इसका कमरा खाली कर दो....हफ्ते भर उस घर में मेराज़ साहब , मैं वैसे ही रही , जैसे शादी के बाद कोई लड़की अपने मायके में रहती है। और जब चलने का दिन आया...तो क्या देखती हूं...कि दरवाज़े के बाहर , चबूतरे पर मेरी उस एक अटैची के साथ तीन बड़ी बड़ी अटैचियां रखीं हुईं हैं। मेरे मुंह से बेसाख्ता निकला-अरे अम्मां ये क्या ? अम्मां ने मुझे थाती से चिपका लिया..बोलीं...बेटी हो ना...तो ऐसे वैसे थोड़ी न विदा करूंगी।
बेगम साहिबा ने फिर एक लंबी सांस ली। उनकी आंखें नम हों गईं थीं। बड़ी मुश्किलों के बाद वो बोल पाईं-तो मेराज़ साहब ...आपने सही पहचाना...ये था मेरा हिंदुस्तान से वो रिश्ता जो कोई झुठला नहीं सकता।
ये सच्चा किस्सा बयान करते करते मेराज़ साहेब का गला भर आया। वो कहीं खो से गए...उनकी चाय ख़त्म हो चुकी थी और उनका बेटा भी उन्हें लेने के लिए दरवाज़े पर खड़ा था।
खबरी की पांच छहनिकाएं
दीवार पर गढ़ी कील,
दिल-दीवार,
बाकी तुम..!
बांस सा ज्वार,
फनकार,
बंसी की धुन!
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चुक गए सवाल,
सांस,
मोक्ष-
रंगीन पानी...
तेरा अक्स...
होश!
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आहट,
अकेलापन,
डर-
न तू,
न मां,
न घर!
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खारा सागर,
टूटी बोतल,
जिन्न-
कारे आखर,
कोरे कागज,
तेरे बिन!
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तड़पती भूख,
रेगिस्तान,
प्यास!
वादियां... झरना...
तू...
काश!
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देवेश वशिष्ठ खबरी
9953717705
ये क्या बात हुई
मुद्दत बाद ऐसा हुआ
तुम पास से निकल गए
नि:शब्द...
मैं सिर्फ
उस हवा को छू पाया
जो तुम्हें छू कर
आई थी
ये क्या बात हुई
मुद्दत बाद ऐसा हुआ
तुम पास से निकल गए
नि:शब्द...
मैं सिर्फ
उस हवा को छू पाया
जो तुम्हें छू कर
आई थी