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तीस साल बाद




मैं लेटा था
अस्पताल के सफेद
बिस्तर पर


तुम्हें देख सकता था
पर सुन नहीं


झुर्रियों वाले हाथ की
उंगलियां उठने को हुईं
पर ताकत उम्र से
मात खा गईं
तुम स्तब्ध थीं
तीस साल बाद देखा था शायद
खोज रहीं थीं पुराने चेहरे की
एक भी
कतरन जो मिल जाये

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4 comments:

अनिल कान्त said...

waah !! bahut behtreen likha hai
gagar mein sagar

मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

देवेश वशिष्ठ ' खबरी ' said...

किसी बेहद निजी याद की स्वान्त: सुखाय अभिव्यक्ति... लेकिन ऐसी याद जिसमें सब अपना अपना हिस्सा ढूंढ लेते हैं... आपकी सबसे अच्छी बात... आप लंबा नहीं लिखते... अच्छा लिखते हैं...

Manojtiwari said...

बहुत ही मर्मस्पर्शी और दिल को छू लेने वाली कविता है पर न जाने क्यों इस कविता और "माँ" को पढ़ कर ये अहसास होता है की आप जीवन के रोमानी पक्ष की अपेक्षा जीवन में रोजाना घटने वाले यथार्थ को अधिक महत्व देते हो कुच्छ भी हो भावपूर्ण अभिव्यक्ति शानदार है.वैसे ये भी महसूस होता है जैसे सरपंचजी के मanch पर आप और खबरी जी के बीच कविताओं और गज़लों की प्रतिस्पर्धा सी शुरू हो गई है जो निश्चये ही सरपंचजी के पाठकों के लिये एक सुखद समाचार है लिखते रहिये.....

GAURI SHANKER said...

शानदार...बेमिसाल...और सच को मधुरता के साथ पढ़ना बेहद ही सुकून भरा..ताकत उम्र में नहीं होती..लेकिन भरोसे को तोड़ती जरूर है..लेकिन आपकी कविता में सिर्फ भरोसा ही नहीं..बल्कि इंतजार करने में भी एक खुशी झलकती है.ताकत का मतलब सिर्फ अपनी ताकत से नहीं होता..बल्कि मेरा भी मानना है कि आप के इर्द-गिर्द रहने वाले लोग यदि आपके होने से ताकत महसूस करते हैं..तो वो भी एक ताकत ही है..आपकी कविता में इस ताकत का अंदाजा लगाया जा सकता है..गौरी शंकर