हुनर भी सब चुक गया है, मुस्कुराने का
अब जमाना लद गया है- दिल लगाने का
छांव, बारिश, नीम, नदिया- सब पुरानी हो गयी
जबसे चलन चला है- मेहमानखाने का
फोन वाले प्यार की तासीर कम होती रही
कब से वाकया नहीं हुआ- सपनों में आने का
होली, दीवाली, ईद- सब दरिया में जा कर मर गए
अब सलीका खो गया है रंग लगाने का
हर रोज मुझसे घूंट भर- छूटता सा तू रहा
और जमाना चल पड़ा- हर चीज़ पाने का...
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
5 comments:
खबरी की एक से एक गज़ल आ रही है आजकल!!
बहुत खूब खबरी जी...
नीरज
Badhia hai bhai.
सभी का शुक्रिया...
man gye guru
dil ke taar jab kuch karne ko kehte hain
tab aap jaise kavi in gazlo ko janm dete hain
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