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हम भी तालिबान


कल फिर एक औरत को नंगा करके गांव में घुमाया गया। सजा के तौर पर। उसका अपराध ही इतना ' घिनौना ' था कि इससे कम तो सजा क्या मिलती ! लड़की को भागने में मदद की। पता नहीं लड़की को भगाया गया या वह ' प्यार के चक्कर ' में खुद ही चली गई , लेकिन औरत ने किया है , तो ' अपराध ' बड़ा है। और इतने बड़े अपराध की सजा भी तो बड़ी होगी ! वहां भीड़ जमा होगी। किसी ने पूछा होगा , क्या सज़ा दें ? कहीं से आवाज आई होगी , इनके कपड़े फाड़ डालो। वाह ... सबके मन की बात कह दी। हां .. हां फाड़ डालो। एक ढोल भी मंगाओ। नंगी औरतों के पीछे - पीछे अपनी मर्दानगी का ढिंढोरा पीटने के काम आएगा। सज़ा भी दी जाएगी और सबको बता भी दिया जाएगा कि हम कितने बड़े मर्द हैं।

हम '... वही हैं , जो तालिबान को जी भरकर कोसते हैं। वे लड़कियों के स्कूल जलाते हैं , हम उन्हें नामर्द कहते हैं। वे कोड़े बरसाते हैं , हम उन्हें ज़ालिम कहते हैं। वे टीचर्स को भी पर्दों में रखते हैं , हम उन्हें जंगली कहते हैं। ' हम ', जो हमारी संस्कृति और इज़्ज़त की रक्षा के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहते हैं। ' हम '... जो अपनी बेटियों के मुंह से प्यार नाम का शब्द बर्दाश्त नहीं कर सकते। यह सुनते ही उबल उठते हैं कि जाट की लड़की चमार के लड़के के साथ भाग गई। उन्हें ढूंढते हैं , पेड़ों से बांधते हैं और जला डालते हैं ... ताकि संस्कृति बची रहे।

इस काम में लड़की का परिवार पूरी मदद करता है , क्योंकि उसके लिए इज़्ज़त बेटी से बड़ी नहीं। उसके बाद लड़के के परिवार को गांव से निकाल देते हैं। ' हम '... जो भन्ना उठते हैं , जब लड़कियों को छोटे - छोटे कपड़ों में पब और डिस्को जाते देखते हैं। फौरन एक सेना बनाते हैं ... वीरों की सेना। सेना के वीर लड़कियों की जमकर पिटाई करते हैं और उनके कपड़े फाड़ डालते हैं। जिन्हें संस्कृति की परवाह नहीं , उनकी इज़्ज़त को तार - तार किया ही जाना चाहिए। उसके बाद हम ईश्वर की जय बोलकर सबको अपनी वीरता की कहानियां सुनाते हैं। ' हम '... जो इस बात पर कभी हैरान नहीं होते कि आज भी देश में लड़के और लड़कियों के अलग - अलग स्कूल - कॉलिज हैं।

जहां लड़के - लड़की साथ पढ़ते हैं , वहां भी दोनों अलग - अलग पंक्तियों में बैठते हैं। क्यों ? संस्कृति का सवाल है। दोनों साथ रहेंगे तो जाने क्या कर बैठेंगे। ' हम '... जो रेप के लिए लड़की को ही कुसूरवार ठहराते हैं क्योंकि उसने तंग और भड़काऊ कपड़े पहने हुए थे। ' हम '... जो अपनी गर्लफ्रेंड्स का mms बनाने और उसे सबको दिखाने में गौरव का अनुभव करते हैं और हर mms का पूरा लुत्फ लेते हैं। ' हम '... यह सब करने के बाद बड़ी शान से टीवी के सामने बैठकर तालिबान की हरकतों को ' घिनौना न्याय ' बताकर कोसते हैं और अपनी संस्कृति को दुनिया में सबसे महान मानकर खुश होते हैं। क्या ' हम ' तालिबान से कम हैं ?
नवभारत टाइम्स में विवेक सामरी

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6 comments:

रंजना said...

Sharmnaak sachahi hai yah....

देवेश वशिष्ठ ' खबरी ' said...

विवेक सामरी जी, आंखें खोल देने वाली पोस्ट है... पर न जाने कब खुलेंगी आंखें...

Unknown said...

"इज्ज़त बेटी से बड़ी नहीं" इस लाइन का मतलब मुझे समझ नहीं आया. क्योंकि पूरी कहानी का मूल स्वर तो कुछ और ही कह रहा है शायद लेखक ये कहना चाहता है की "इज्ज़त बेटी से बड़ी होती और इसी इज्ज़त को कायम रखने के लिए लोग अपनी बेटी की बलि चढाने से भी नहीं हिचकचाते.ख़ैर मैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ की इस तरह की बर्बरता पूर्ण कार्रवाई सभ्य और खुले लोकतान्त्रिक समाज के लिए कलंक है पर क्या आप ने कभी इस बात पर ध्यान दिया की इस तरह की ज्यादातर घटनाएं गाँव देहातों में ज्यादा घटती हैं क्यों की वहां के समाज में हर एक आदमी अपनी आप को समाज पर निर्भर पाता है और वो समाज के प्रति भी संवेदनशील रहता है और खुद भी इस बात से अवेअर रहता है की उसके आसपास घट क्या रहा है. हर समाज की अपनी कुछ मान्यताएं होती हैं और उस समाज से जुड़ा हुआ हर आदमी ना सिर्फ उन परम्पराओं की इज्ज़त करता है बल्कि उन परम्पराओं के प्रति वफादार भी होता है जिन्हें हम रीति-रिवाज़ भी कह देते है कुछ रीति रिवाज़ अच्छे भी होते हैं और कुछ ऐसे भी होते हैं जो आज के समय के हिसाब से आप्रसंगिक हो चुके होते हैं और जो अब एक बुराई बन चुके होते हैं पर समाज के लोग उन्हें अपने पुरखों की थाती मान कर उन्हें अपने सीने से उसी तरह चिपकाए रहते हैं जिस तरह से कोई बंदरिया अपने मरे हुए बच्चे को अपने सीने से चिपकाए रखती है और जब कोई उस मरे हुए बच्चे को उससे छीनने की कोशिश करता है तो बंदरिया उस व्यक्ति के ऊपर जानलेवा हमला कर देती है. उसी तरह जब कोई व्यक्ति या समूह उन सडी गली मान्यताओं को तोड़ने या झकझोरने की कोशिश करता है तो पूरा का पूरा समाज ही उसके खिलाफ खड़ा हो जाता है यहाँ तक उसके परिवार के लोग भी.जैसा की विवेक जी ने अपने लेख में लिखा है. समाज क्योंकि एक सिस्टम का नाम है और समाज एक मशीन की भांति काम करता है, मशीन के अन्दर भावनाएं नहीं होती वो अपने खिलाफ जाने वाले को निर्ममतापूर्वक कुचलता है ऐसे में किसी लड़की की बिरादरी की और परिवार की इज्ज़त के नाम पर हत्या हो जाना कोई अचरज की बात नहीं है.
अब बात भारतीय समाज की तालिबान से तुलना की.तालिबान ने अफगानिस्तान में धर्म के नाम पर इतना कहर बरपाया है की बौद्धिक वर्ग को कहीं भी इस से मिलती जुलती घटना मिलने पर इस से कम या इससे ज्यादा तुलना करने का मन करने लगता है वो जरा भी इस बात पर ध्यान देने की कोशिश नहीं करते की हमारे देश में इस तरह की घटनाएं यदा कदा घटती है जबकि अफगानिस्तान में तालिबान के राज में इस तरह की घटनाएं रोज़ घटती थी और स्वात और बुनेर और जहाँ -जहाँ तालिबान जैसे कट्टरपंथी तत्वों का कब्ज़ा है वहां इस तरह घटनाएं होती रहती हैं और इसकी आशंका भी बनी रहती है तो फिर भारतीय समाज और तालिबान के कब्जे वाले अफगानिस्तान में भला किस तरह की तुलना हो सकती है? aapka Manoj kumar tiwari

Unknown said...

Samajik manyatayen samaj ke sanchalan ke liye anivarya hain. Yadi samajik manyataon ko samapt kar diya jai to pashu aur manav mein kya antar rah jayega? Manav ko samajik prani kaha jata hai , yadi samajik shabd ko hata diya jaye to manav ka vavhar svyam apne mata-pita , bhai-bahan evam anya ke saath pashuvat vyvahar hi hoga jis se keval avyavastha hi utpann hogi aur is vatavaran mein jivan yapan sambhav nahi hoga aur atma chitkar karne lagegi.
Prem karna apradh nahi hai tatha uske samarthakon ko dand dena ghrinit hai. Lekin smaajik roop mein swikarya kapde pahnana bhi avashyak hai. Swatantrata belag nahi ho sakti. Mithai dekh kar sabhi ka ji lalchata hai yeh kahana galat hoga ki mithai dekho to lekin chakho nahi.
Ek kavita ki kuch panktiyan udhrit hain--
PAHLE CHALANA TO SIKHO BAHAN KI TARAH/...BHID MEIN BHI KHULA HAI ADHKHULA HAI BADAN/YE LIPSTICK HAI JAISE HAYA KA LAHU ,NAIYLONI ADAB RESHAMI BANKAPAN.../YE NA SAMJHO TUM HO KISI KI PRIYA / TUM KISI KI BAHU BHI TUM KISI KI BAHAN.

Manojtiwari said...

महेंद्रजी आपकी ये बात बिल्कुल सही है की मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है पर इसका ये मतलब नहीं है की इंसान की अपनी कोई वैक्तिगत इच्छा ही ना हो. समाज इंसान की निजी इच्छा के लिए सिर्फ वहां तक ही बंधनकारी होने का हक रखता है जहाँ तक की वो समाज के बाकि लोगों के लिए नुकसान दाई हो रहा हो इसके आगे हर आदमी की वैक्तिगत इच्छा ही सर्वाधिक महत्व रखती है और जहाँ तक सवाल मान्यताओं और उससे bane समाज का है तो मान्यताएं भी मनुष्यों द्वारा ही निर्मित हुई हैं अप्रासंगिक होने पर वो ही इसे ख़त्म भी करेंगे वस्तुतः ये सामजिक रीति-रिवाज़ वो नियम हैं जो समय के हिसाब से समाज को चलाने के लिए बनाये गए थे, बनाए जाते हैं और बनाए जाते रहेंगे ये नियम शाश्वत नहीं हैं ये तो मनुष्य और समय की मांग के अनुरूप बदलते रहते हैं कुछ ऐसे रीति रिवाज़ जिनकी अब जरुरत नहीं है उनका ख़तम हो जाना ही श्रेयकर है मुझे नहीं लगता की आप भी सती प्रथा का समर्थन करेंगे ये रिवाज़ तो उस काल का है जब राजपूत किसी मुस्लिम शासक या दुसरे किसी अन्य शासक के खिलाफ अपनी मारने या मर जाने की आखरी जंग लड़ते थे और अपनी पत्निओं को इस लिए सती हो जाने के लिए कहते थे ताकि उन्हें शत्रुओं के हाथों अपमानित न होना पड़े पर बताओ आज भी क्या ऐसी स्थिति है की किसी औरत के पति के मरने पर उसे अपमानित होने से बचने के लिए सती होना पड़े नहीं आज ऐसी कोई विकट स्थति नहीं है पर उसके बावजूद भी कई नासमझ लोग इस बीसवी सदी तक इस प्रथा की वकालत करते रहे भला हो राजा राममोहन राए और विल्यम बैंटिक का जिसने इस प्रथा पर १८३५ में कानूनन रोक लगवाई नहीं तो आज भी ना जाने कितने लोग अपने स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए अपने घर की मासूम बहूओं को सती की वेदी पर बलि चढाते खैर इतना सब कहने के पीछे मेरा मकसद सिर्फ ये कहना है की उन रीति रिवाजों को अब ख़तम कर देना चाहिए जिनकी आज आवश्कता ना हो.

Unknown said...

Shoshan (kamjoron ka) keval is desh mein nahi balki yeh manav jagat ki sachchai hai. Niyam to kamajoron ke liye hote hain samarth to unka upyog keval apne hetu hi karte hain.