सचिन का ये इंटरव्यू फिल्म अभिनेता टॉम अल्टर ने किया था...साल 1989 में। ये तस्वीर उस वक्त की है जब सचिन टेस्ट टीम में नहीं आए थे..मुंबई की रणजी ट्रॉफी टीम के लिए खेलना शुरू ही किया था। गुजरात के खिलाफ मुंबई में 15 बरस की उम्र में सचिन के बल्ले ने पहले मैच में ही 100 रन उगले। लोग जब तक उसे समझ पाते ...वो टेस्ट टीम में था।
पापा, जागते क्यों नहीं...
अपने पिता को
जो सो गए थे मौत की नींद
उसकी उंगली थाम ले गए थे
उसे कराने मां के दर्शन
जोधपुर के उस मंदिर में
जो है सबसे सिद्ध
जहां मांगने से पूरी होती है
सभी मुरादें पर,
यह क्या
उस मासूम से छिन गया
उसका बचपन छूट गया
वो दामन जिसे थाम चलना था
जग के पथरीले रास्तों पर
बार बार वो जगाती रही
अपने पिता को कहती रही
उठो पापा मंदिर जाना है..
रोती रही..सुबकती रही,
सोचती रही आज क्यों नहीं चुप कराते पापा
गोद में लेकर पुचकारते क्यों नही
पर लाडो के पापा
जागते कैसे वो तो सो चुके थे मौत की नींद
बनकर उस भगदड़ का हिस्सा
जो हुई जोधपुर के मंदिर में
पर वो न मानी झकझोरती रही,
उठाती रही अपने पापा को...
---- नवभारत टाइम्स में छपी शिखा सिंह की कविता
मारा या बचाया ?
(टिकर पर आई एक ख़बर...जिसे बस मैंने कुछ कपड़े पहना दिए)
मैंने भी देखा सपना
आंखों में सपने लेकर तो हर कोई यहां आता है
पर क्या उन सपनों को वो सच कर पाता है...
देखा है एक सपना मैंने भी
उड़ रही हूं आसमान में मैं भी
डर लगता है कहीं ये सपना ही गुम ना हो जाए
डर लगता है कहीं ये वक्त ही ना थम जाए
आसमान में उड़ान भरना आसान नहीं
पतंगे की तरह सूरज की ओर बढना आसान नहीं
लेकिन कोशिश करना चाहती हूं मैं भी
पंख नहीं तो क्या हुआ हौंसलों से उड़ान भरूंगी मैं भी
नहीं रोक पाओगे मुझे
बनूंगी इतनी मज़बूत
बनूंगी इतनी शूर
नारी हूं तो क्या हुआ
ज़माने से आंखे मिलाउंगी मैं भी....
पल्लवी जैन
काँच की बरनी और दो कप चाय - एक बोध कथा
अब आगे क्या होगा ?
मोहन चंद शर्मा पंचतत्व में विलीन हो गये। लेकिन उनकी मौत कई सवाल छोड़ कर गई है। उन पर चर्चा बाद में करेंगे लेकिन अभी ये कि जो पकड़े गए ...उनका क्या होगा। उन पर अदालतों में मुकदमें चलेंगे...पहले छोटी अदालत फिर उससे बड़ी...फिर उससे बड़ी...और फिर सबसे बड़ी। फिर कोई देश का नामी गिरामी वकील ..जिसके लिए रुपया पैसा, शोहरत , ताकत अब कोई नई चीज़ नहीं रही..आगे आएगा और कहेगा मैं लड़ूंगा ये केस। वो अदालतों में साबित करेगा कि सबूत नाकाफी हैं। फिर सात-आठ सालों में फैसला आएगा..जिसमें इस पूरी साज़िश में शामिल लोगों में से ज्यादातर को सबूतों के अभाव में छोड़ दिया जाएगा। वो फिर घूमेंगे...जामिया या वैसे ही किसी इलाके की बंद गलियों में हादसों की तैयारी करते। अगर एकाध को ज़िम्मेवार मान भी लिया गया तो ज़्यादा से ज़्यादा फांसी की सज़ी होगी। अच्छा...फिर क्या होगा ..फिर सरकार को मुसलमानों के वोट की याद आएगी...लगेगा ..चुनाव सिर पर हैं..फांसी अभी ठीक नहीं ...सो , फांसी पाए आतंकवादी को सुविधा दी जाएगी कि वो राष्ट्पति से माफी की गुहार करे...दो-चार महीने उसमें लग जाएंगे...फिर राष्ट्रपति के दफ्तर में उसकी बारी आते महीने और फिर कई साल लग जाएंगे। इस बीच देश के गृहमंत्री का बयान आएगा कि फांसी दी जाए या नहीं-इस पर राष्ट्रीय बहस होनी चाहिए। गृहमंत्री को भी ये सदविचार इसी मौके पर सूझने थे। खैर...फांसी पर कोई फैसला हो पाए..इससे पहले ही कई और धमाके हो जाएंगे...देश उनमें फिर मसरूफ हो जाएगा। तब तक अगला चुनाव आ जाएगा...और दोस्तों....तब..हम सब फिर बेशर्मी ओढ़ लेंगे .... वोट देने और उगाहने खुद सड़कों पर चलेंगे...और अगला -पिछला सब भूल जाएंगे।
गॉन आर द डेज़
स्कूल जाने की जब तक उम्र होती है .... स्कूल जाना कड़वी दवा लगता है...लेकिन बाद में वो दिन खूब याद आते हैं। मन कहता है कि ज़िंदगी एक टेप होती है और हम उसे रिवाइंड कर लेते। लेकिन फिर...ज़िंदगी यही है ... जो बीत गया..वो वापस नहीं आ सकता। अगर कोई मुझसे पूछे कि ज़िंदगी में कौन सी चीज़ है जो मैं चालीस की उम्र में भी मिस करता हूं...मैं कहूंगा ...मेरे स्कूल के दिनों के फोटोग्राफ...हर क्लास का ग्रुप फोटो था...मेरी मां ने बहुत सहेज़ कर रखा था...लेकिन तीन दशकों से संभाल कर रखे गए फोटोग्राफ जब दो बरस पहले सीलन के शिकार हो गए तो सच मानिए ...कलेजा मुंह को आ गया। मुझे याद है हर साल मेरी मां बरसात के पहले और फिर उसके बाद खूबसूरत प्रेमों में सजी ढेर सारी फोटो घर के आंगन में खटिया पर बिछा देती थीं...ताकि धूप लगने से वो अगले साल तक सुरक्षित रहें। इनमें इलाहाबाद के ब्वॉयजॉ हाइस्कूल की वो तस्वीर भी थी जो औपचारिक शिक्षा की शुरुआती क्लास होती है। खाकी निकर और वर्दी पहन कर तीसरी लाइन में बुक्का जैसा खड़ा था मैं। शायद 1973 या 1974 की बात थी। लंबे चेहरे वाली खूबसूरत सी टीचर थीं..जो आज न जाने कहां होंगी। खूबसूरत फ्रेम वाला चश्मा उन्हें और खूबसूरत बनाता था। अगली क्लास में एक मोटी सी टीचर थीं जिनका नाम याद नहीं। लेकिन उन्होंने अंग्रेज़ी के अक्षरों के जो उच्चारण उस वक्त बताये थे ..आज तक नहीं भूला हूं। इसी स्कूल के लॉन में एक बार इमली के पेड़ की शाखाओं से लटक कर झूलने की कोशिश में गिर पड़ा था..बेहोश हो गया था। खैर..उन फ्रेमों में एक में मैं खुद को देखता हूं...एक फौजी के पहनावे में..शायद 1970 है ये...एक में टेबल पर पेट के बल लेटा हूं और दोनों हाथों से उठने की कोशिश कर रहा हूं..शायद 7 या 8 महीने की उम्र में खिंची थी। लंबे बालों वाला मैं। एक तस्वीर कक्षा 4 की भी है जो पीलीभीत के मेरे नये स्कूल की पहली फोटो है। इसमें एक टीचर हैं ..गीता आंटी...हर स्कूल में टीचर को कुछ न कुछ कह कर बुलाने की प्रथा है...मेरे बच्चे मैम कहते हैं...मेरे उस स्कूल में आंटी कहा जाता था। तो वो गीता आंटी थीं। सिर्फ यही एक ऐसी टीचर हैं जो आज तक मुझे याद आती हैं..आज भी इन्हें खोज रहा हूं..पीलीभीत में अपने संवाददाताओं से कहा--किसी भी तरह उन्हें खोजे...लेकिन अभी तक कुछ पता नहीं चला। वो मुझे बहुत मानती थीं..हर शनिवार को जब छुट्टी 12 बजे ही हो जाती थी...वो एक घंटे तक हम सबसे फिल्मी गाने सुनतीं। उनकी फरमाइश हर हफ्ते मुझसे एक ही गाने की होती...चुरा लिया है तुमने जो दिल को...मैं गाता..और सब सुनते। ये गाना आज भी मेरा फेवरिट है लेकिन गीता आंटी कहीं नहीं हैं..आज इनमें से एक भी फोटो मेरे पास नहीं बचीं....इसीलिए मुझे लगता है कि अब पीढ़ियां लापरवाह होती जा रही हैं..जो तस्वीरें तीन दशकों से मेरी मां ने संभाल कर रखी थीं...हमने खो दीं...