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पापा, जागते क्यों नहीं...


वो जगा रही थी
अपने पिता को
जो सो गए थे मौत की नींद
उसकी उंगली थाम ले गए थे
उसे कराने मां के दर्शन
जोधपुर के उस मंदिर में
जो है सबसे सिद्ध
जहां मांगने से पूरी होती है
सभी मुरादें पर,
यह क्या
उस मासूम से छिन गया
उसका बचपन छूट गया
वो दामन जिसे थाम चलना था
जग के पथरीले रास्तों पर
बार बार वो जगाती रही
अपने पिता को कहती रही
उठो पापा मंदिर जाना है..
रोती रही..सुबकती रही,
सोचती रही आज क्यों नहीं चुप कराते पापा
गोद में लेकर पुचकारते क्यों नही
पर लाडो के पापा
जागते कैसे वो तो सो चुके थे मौत की नींद
बनकर उस भगदड़ का हिस्सा
जो हुई जोधपुर के मंदिर में
पर वो न मानी झकझोरती रही,
उठाती रही अपने पापा को...

---- नवभारत टाइम्स में छपी शिखा सिंह की कविता

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1 comments:

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

मार्मिक सत्य...!
भीड़ का मनोविज्ञान बड़ा बेतुका और विवेकशून्य होता है।