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कुछ कर गुज़र जाना है

अड़चनों की आंच में जलते रहें हम, अड़चनों को पार भी करते रहें हम।
कौन मुश्किलों से मानता हार है, ज़िंदगी तो क़ुदरत का उपहार है।

चलना ही है, बढ़ना ही है, बस पार उतर जाना है।
कुछ कर गुज़र जाना है।

हर तरफ है ताकत अंधेरे की, बात होती नहीं अब सवेरे की।
वो नोंच रहे हैं हमारा आशियाना, जिनको ज़िम्मा है उसको बनाना।

है हर तरफ नाउम्मीदी का आलम, मगर उम्मीदों का दीया जलाना है।
कुछ कर गुज़र जाना है।

लूट मची है हर तरफ हर जगह, इंसानियत को मिलती नहीं कहीं जगह।
कांटे सहें हम फूल की तलाश में, बढ़ते रहें उम्मीद और आस में।

चल पड़े हैं मंज़िल के वास्ते, खुद से खुद का हौसला बढ़ाना है।
कुछ कर गुज़र जाना है।

हैं देश के दुश्मन कई, कुछ भेड़िये भी भेड़ों की खाल में।
मासूम भी जवान भी, फंसते रहे सब इनकी जाल में।

नियमों का नीतियों का, कैसा ये अमली जामा है?
क्या यही देश की तरक्की का सफरनामा है?

अंतर्मन की आवाज़ पर क़दम तुम्हें बढ़ाना है।

कुछ कर गुज़र जाना है।

अमर आनंद

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बेटी, मैंने बहुत संघर्ष किया, अब हिम्मत हार रही हूं


दुनिया भर में जारी आर्थिक मंदी की राजधानी में पहली शिकार बनी एक मां जिसकी मौत के बाद गुमसुम हो गई है 13 बरस की नेहा। नीलम तिवारी (35) की 13 साल की बेटी नेहा अब गुमसुम है। 10 साल पहले आगरा में हुए ट्रेन हादसे में पिता को खोने के बाद अब उसकी मां नीलम भी नहीं रही। नीलम ICICI बैंक से लोन दिलवाने का काम करती थी...बदले में उसे कुछ कमीशन मिल जाया करता था...जिससे वो घर चलाती थी। घर में एक बूढ़ी मां हैं और है घर की जान-13 बरस की नेहा...जिसे मां की मौत ने गुमसुम कर दिया है। उसने अपनी मां को पंखे से झूलते हुए देखा....इसलिए अब रातों को जग कर चीखने भी लगती है। पिछले तीन महीने से नेहा की मां नीलम आईसीआईसीआई बैंक से एक भी लोन नहीं दिलवा पाई थी-नतीजतन दो दिन पूरा परिवार भूखा रहा और फिर एक दिन....नीलम को छुटकारे का एक रास्ता सूझा-उसने फांसी का फंदा बनाया और झूल गई।
कहानी के असली दर्द से आपकी पहचान कराना अभी बाकी है। इस परिवार में अब न तो कोई पुरुष है और न ही कोई कमाने वाला। मौके से पुलिस को तीन स्यूसाइड नोट मिले। बेटी नेहा को लिखे नोट में नीलम ने लिखा 'मैंने अब तक बहुत संघर्ष किया है। अब हिम्मत हार रही हूं। बेटा, आगे का सफर तुम्हें खुद तय करना होगा'। बूढ़ी मां को लिखे नोट में उसने माफी मांगते हुए लिखा कि 'दूर-दूर तक कोई रास्ता नज़र नहीं आ रहा। आपकी स्थिति भी ऐसी नहीं है कि कोई मदद कर सकें। मेरे पास न तो किराया देने के पैसे हैं और न खाने के। मेरे घर का सामान बेचकर मेरी बेटी की पढ़ाई का कम से कम यह साल जरूर पूरा करा देना'। तीसरा नोट नीलम ने पुलिस को लिखा और अपनी मौत का जिम्मेदार आर्थिक तंगी को बताया। दिल्ली के द्वारका इलाके के सेवक पार्क में रहने वाली माया शर्मा के घर की हालत देखकर किसी भी संवेदनशील इंसान का दिल पिघल सकता है। घर में माया, उनकी अविवाहित बेटी और नेहा ही हैं। कमाने वाला कोई नहीं है.....नेहा पढ़ाई में बहुत होशियार है... आठवीं क्लास में उसके 95 फीसदी नंबर आए थे। लेकिन अब वो इस स्थिति में नहीं हैं कि उसकी पढ़ाई जारी रखवा सकें। उन्हें उम्मीद है कि कोई गैर सरकारी संगठन नेहा की मदद करने आगे आएगा।
कानपुर की रहने वाली नीलम की शादी 1994 में आगरा के रहने वाले दिलीप तिवारी से हुई थी। 1998 में आगरा में हुए ट्रेन हादसे में दिलीप की मौत हो गई। नीलम ने दूसरी शादी नहीं की और एक साल की बेटी को साथ लेकर मां और बहन के साथ दिल्ली आ गई। माया ने बताया कि उन्होंने नीलम से कई बार शादी करने के लिए कहा था, लेकिन वह तैयार नहीं होती थी। पहले वह पीरागढ़ी में प्राइवेट कंपनी में नौकरी करती थी। एक साल से उसने आईसीआईसीआई बैंक से लोन दिलवाने का काम शुरू किया था। लेकिन आर्थिक मंदी ने रोजी-रोटी का यह आसरा भी खत्म कर दिया।
लेकिन चिंता का विषय कुछ और है...दिल्ली के जामिया नगर में मारे गये आतंकियों के बचाव में बुद्धिजीवियों ने देश भर में जम कर प्रदर्शन किए थे। ऐसे मौकों पर कहां हैं वो....लाख टके का सवाल यही है। मंदी पर लंबे और उबाऊ व्याख्यान देने वाले , दाढ़ीयुक्त चेहरे वाले बुद्धिजीवी , जो अगले दिन अखबारों में अपनी फोटो खोजते हों .... कहां हैं ? किसी पुलिस इंस्पेक्टर की शहादत पर सवाल उठाने वाले बेहया नेताओं की जमात अब क्यों नहीं बोलती.....और तो और अखबार और टीवी वाले इसे स्टोरी क्यों नहीं मानते...सोचने वाली बात यही है।

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सचिन तेंदुलकर का पहला इंटरव्यू--उम्र 15 साल

सचिन का ये इंटरव्यू फिल्म अभिनेता टॉम अल्टर ने किया था...साल 1989 में। ये तस्वीर उस वक्त की है जब सचिन टेस्ट टीम में नहीं आए थे..मुंबई की रणजी ट्रॉफी टीम के लिए खेलना शुरू ही किया था। गुजरात के खिलाफ मुंबई में 15 बरस की उम्र में सचिन के बल्ले ने पहले मैच में ही 100 रन उगले। लोग जब तक उसे समझ पाते ...वो टेस्ट टीम में था।

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पापा, जागते क्यों नहीं...


वो जगा रही थी
अपने पिता को
जो सो गए थे मौत की नींद
उसकी उंगली थाम ले गए थे
उसे कराने मां के दर्शन
जोधपुर के उस मंदिर में
जो है सबसे सिद्ध
जहां मांगने से पूरी होती है
सभी मुरादें पर,
यह क्या
उस मासूम से छिन गया
उसका बचपन छूट गया
वो दामन जिसे थाम चलना था
जग के पथरीले रास्तों पर
बार बार वो जगाती रही
अपने पिता को कहती रही
उठो पापा मंदिर जाना है..
रोती रही..सुबकती रही,
सोचती रही आज क्यों नहीं चुप कराते पापा
गोद में लेकर पुचकारते क्यों नही
पर लाडो के पापा
जागते कैसे वो तो सो चुके थे मौत की नींद
बनकर उस भगदड़ का हिस्सा
जो हुई जोधपुर के मंदिर में
पर वो न मानी झकझोरती रही,
उठाती रही अपने पापा को...

---- नवभारत टाइम्स में छपी शिखा सिंह की कविता

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मारा या बचाया ?


वो सिर झुकाये चुपचाप ज़मीन पर बैठा था। थानों में यूं भी अपना अपराध स्वीकार कर लेने वालों को स्टूल या कुर्सी देने की प्रथा कहां है....वो तो रसूख वालों या फिर इलाके के गुंडे बदमाशों के लिए होती है। खैर- ज़मीन पर बैठा 24 साल का वो शख्स बुत की तरह गुमसुम था। उसने अपनी दो दिन की बच्ची का गला घोंट कर मार डाला था। जानते हैं दो जून की रोटी कमाने के लिए करता क्या था वो-गुब्बारे बेचता था...उन बच्चों के लिए जिन्हें खाने को रोटी मिल जाती है। लेकिन अपनी दो दिन की बच्ची को वो भूख और गरीबी के भरोसे इस दुनिया में नहीं लाना चाहता था । उसने ऐसा क्यों किया...इसका जवाब ...पुरुलिया के पुलिस स्टेशन में बैठे इस आदमी ने ये कह कर दिया कि-- 30 रुपये रोज़ कमाने वाला... बीवी , मां और तीन बेटियों को कैसे पालता। जो उसने नहीं कहा वो ये कि कैसे वो ज़माने को सौंप देता बेटी को...आज नहीं तो कल भूखे समाज की शिकार तो होना ही था उसे ....इसलिए उसे मारकर असल में मैंने खुद को और अपने परिवार को बचाया है।

(टिकर पर आई एक ख़बर...जिसे बस मैंने कुछ कपड़े पहना दिए)

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मैंने भी देखा सपना

आंखों में सपने लेकर तो हर कोई यहां आता है
पर क्या उन सपनों को वो सच कर पाता है...
देखा है एक सपना मैंने भी
उड़ रही हूं आसमान में मैं भी
डर लगता है कहीं ये सपना ही गुम ना हो जाए
डर लगता है कहीं ये वक्त ही ना थम जाए
आसमान में उड़ान भरना आसान नहीं
पतंगे की तरह सूरज की ओर बढना आसान नहीं
लेकिन कोशिश करना चाहती हूं मैं भी
पंख नहीं तो क्या हुआ हौंसलों से उड़ान भरूंगी मैं भी
नहीं रोक पाओगे मुझे
बनूंगी इतनी मज़बूत
बनूंगी इतनी शूर
नारी हूं तो क्या हुआ
ज़माने से आंखे मिलाउंगी मैं भी....


पल्लवी जैन

--(पल्लवी जैन एक टीवी चैनल-लाइव इंडिया में रिपोर्टर हैं...लोगों की अनुभूतियां इन्हें बहुत पास से देखने को मिलती हैं....कभी कभी कागज़ पर उतरीं तो कविता बन जाती हैं...)

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काँच की बरनी और दो कप चाय - एक बोध कथा


जीवन में जब सब कुछ एक साथ और जल्दी-जल्दी करने की इच्छा होती है, सब कुछ तेजी से पा लेने की इच्छा होती है , और हमें लगने लगता है कि दिन के चौबीस घंटे भी कम पड़ते हैं, उस समय ये बोध कथा , "काँच की बरनी और दो कप चाय" हमें याद आती है ।दर्शनशास्त्र के एक प्रोफ़ेसर कक्षा में आये और उन्होंने छात्रों से कहा कि वे आज जीवन का एक महत्वपूर्ण पाठ पढाने वाले


हैं...उन्होंने अपने साथ लाई एक काँच की बडी़ बरनी (जार) टेबल पर रखा और उसमें टेबल टेनिस की गेंदें डालने लगे और तब तक डालते रहे जब तक कि उसमें एक भी गेंद समाने की जगह नहीं बची... उन्होंने छात्रों से पूछा - क्या बरनी पूरी भर गई ? हाँ... आवाज आई...फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने छोटे-छोटे कंकर उसमें भरने शुरु किये, धीरे-धीरे बरनी को हिलाया तो काफ़ी सारे कंकर उसमें जहाँ जगह खाली थी , समा गये, फ़िर से प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा, क्या अब बरनी भर गई है, छात्रों ने एक बार फ़िर हाँ.. कहा अब प्रोफ़ेसर साहब ने रेत की थैली से हौले-हौले उस बरनी में रेत डालना शुरु किया, वह रेत भी उस जार में जहाँ संभव था बैठ गई, अब छात्र अपनी नादानी पर हँसे...


फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा, क्यों अब तो यह बरनी पूरी भर गई ना ? हाँ.. अब तो पूरी भर गई है.. सभी ने एक स्वर में कहा..सर ने टेबल के नीचे से चाय के दो कप निकालकर उसमें की चाय जार में डाली, चाय भी रेत के बीच में स्थित थोडी़ सी जगह में सोख ली गई...प्रोफ़ेसर साहब ने गंभीर आवाज में समझाना शुरु किया - इस काँच की बरनी को तुम लोग अपना जीवन समझो... टेबल टेनिस की गेंदें सबसे महत्वपूर्ण भाग अर्थात भगवान, परिवार, बच्चे, मित्र, स्वास्थ्य और शौक हैं, छोटे कंकर मतलब तुम्हारी नौकरी, कार, बडा़ मकान आदि हैं, और रेत का मतलब और भी छोटी-छोटी बेकार सी बातें, मनमुटाव, झगडे़ है..अब यदि तुमने काँच की बरनी में सबसे पहले रेत भरी होती तो टेबल टेनिस की गेंदों और कंकरों के लिये जगह ही नहीं बचती, या कंकर भर दिये होते तो गेंदें नहीं भर पाते, रेत जरूर आ सकती थी...ठीक यही बात जीवन पर लागू होती है...यदि तुम छोटी-छोटी बातों के पीछे पडे़ रहोगे और अपनी ऊर्जा उसमें नष्ट करोगे तो तुम्हारे पास मुख्य बातों के लिये अधिक समय नहीं रहेगा... मन के सुख के लिये क्या जरूरी है ये तुम्हें तय करना है ।

अपने बच्चों के साथ खेलो, बगीचे में पानी डालो , सुबह पत्नी के साथ घूमने निकल जाओ, घर के बेकार सामान को बाहर निकाल फ़ेंको, मेडिकल चेक- अप करवाओ..टेबल टेनिस गेंदों की फ़िक्र पहले करो, वही महत्वपूर्ण है... पहले तय करो कि क्या जरूरी है... बाकी सब तो रेत है..छात्र बडे़ ध्यान से सुन रहे थे..


अचानक एक ने पूछा, सर लेकिन आपने यह नहीं बताया कि "चाय के दो कप" क्या हैं ?प्रोफ़ेसर मुस्कुराये, बोले.. मैं सोच ही रहा था कि अभी तक ये सवाल किसी ने क्यों नहीं किया... इसका उत्तर यह है कि, जीवन हमें कितना ही परिपूर्ण और संतुष्ट लगे, लेकिन अपने खास मित्र के साथ दो कप चाय पीने की जगह हमेशा होनी चाहिये ।


विकास कुमार

लाइव इंडिया

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