अड़चनों की आंच में जलते रहें हम, अड़चनों को पार भी करते रहें हम।
कौन मुश्किलों से मानता हार है, ज़िंदगी तो क़ुदरत का उपहार है।
चलना ही है, बढ़ना ही है, बस पार उतर जाना है।
कुछ कर गुज़र जाना है।
हर तरफ है ताकत अंधेरे की, बात होती नहीं अब सवेरे की।
वो नोंच रहे हैं हमारा आशियाना, जिनको ज़िम्मा है उसको बनाना।
है हर तरफ नाउम्मीदी का आलम, मगर उम्मीदों का दीया जलाना है।
कुछ कर गुज़र जाना है।
लूट मची है हर तरफ हर जगह, इंसानियत को मिलती नहीं कहीं जगह।
कांटे सहें हम फूल की तलाश में, बढ़ते रहें उम्मीद और आस में।
चल पड़े हैं मंज़िल के वास्ते, खुद से खुद का हौसला बढ़ाना है।
कुछ कर गुज़र जाना है।
हैं देश के दुश्मन कई, कुछ भेड़िये भी भेड़ों की खाल में।
मासूम भी जवान भी, फंसते रहे सब इनकी जाल में।
नियमों का नीतियों का, कैसा ये अमली जामा है?
क्या यही देश की तरक्की का सफरनामा है?
अंतर्मन की आवाज़ पर क़दम तुम्हें बढ़ाना है।
कुछ कर गुज़र जाना है।
अमर आनंद
कुछ कर गुज़र जाना है
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
2 comments:
चल पड़े हैं मंज़िल के वास्ते, खुद से खुद का हौसला बढ़ाना है।
कुछ कर गुज़र जाना है।
हैं देश के दुश्मन कई, कुछ भेड़िये भी भेड़ों की खाल में।
मासूम भी जवान भी, फंसते रहे सब इनकी जाल में।
rakesh ji , behad khoobsurt likha hai
बहुत प्रेरक रचना है अमर जी...बहुत खूब...लिखते रहिये.
नीरज
Post a Comment