सरकार में बैठे लोगों के तेवर अब ढीले होने लगे हैं। एक बूढ़ी काया ने पूरी सरकार के हिला दिया है और देश भर में लोग उसके नाम पर आंखें मूंद कर अंगूठा लगाने को तैयार हैं। आखिर क्या है इस आदमी में, जो हर कोई उसके पीछे चल पड़ता है। क्या मिडिल क्लास , क्या कस्बे वाला, क्या मर्सिडीज़ मे चलने वाला....हर कोई मानने लगा है कि कोई आया है , जो भरोसा करने लायक है। संसद में बहस हो रही है, प्रधानमंत्री तक बयान दे रहे हैं। सरकार को डर है कि उसके पीछे देश चला आया तो उनकी कुर्सियों का होगा, जो उन्होंने इतने दिनों से पलकों से पकड़ रखी है। एक मंत्री ने कहा-'ये अनशन एक फैशन की तरह है..देखते हैं कितने दिन चलता है' । दूसरे ने कहा-किसने अधिकार दिया आपको कि आप १२० करोड़ लोगों की ओर से बात करेंकोई मनीष तिवारी हैं...गालीगलौज की भाषा में दो दिन पहले अन्ना हजारे को दाने क्या क्या कह गए। पता चला कि यूथ कांग्रेस के नेता हैं...एनएसयूआई के अध्यक्ष थे सालों पहले....अब सांसद भी हैं। सच पूछिए तो बुरा नहीं लगा, क्योंकि NSUI का तो चरित्र ही वही है। दरअसल सत्ता का अहंकार सरकार का चरित्र बन गया है और ये पार्टी के छुटभैया नेताओं में भी दिखने लगा है। लेकिन इस देश का आदमी ये ऐंठ बर्दाश्त नहीं करता। वो दिन आने वाला है जब इस देश में भीड़ दफ्तरों में घुसेगी, अफसरों को पीटेगी....मंत्री मारे जाएंगे.....और पत्रकारों की झूठी इज्जत उतारी जाएगी...इसलिए अभी वक्त है , सरकार को चाहिए कि उस बूढ़े आदमी को बुलाएं और कहें कि चलो हम और तुम साथ मिल कर बैठते हैं।
वो अन्ना हैं
बाबू जी
रात के आठ बज रहे थे। लंबे चौड़े बरामदे की बत्ती धीमी पड़ चुकी थी। बीचोंबीच बाबूजी लेटे हुए थे। उनके अगल-बगल बर्फ की सिल्लियां रखी थीं। कोई कुछ बोल नहीं रहा था। बाबूजी कभी इसी बरामदे में कुर्सी पर बैठते थे सुबह सुबह। सामने मेज होती थी। एक हाथ में अखबार और दूसरे में चाय का प्याला। देर तक पढते। कभी कभी मुझे बुलाते , सामने टाईम्स ऑफ इंडिया रख देते । कहते- ज़ोर ज़ोर से पढ़ो....जुबान साफ होगी। या फिर जाड़ों की वो शाम , जब वो आलू-मटर की घुंघरी खाते, अलाव जलाकर। सारा परिवार बैठता ईर्द गिर्द। तीनों चाचा, बुआ, हम भाई...और बाबूजी। परिवार पर चर्चा होती...कौन क्या कर रहा है...किसे क्या करना चाहिए... पुराने असल चुटकुले जो परिवार के किसी न किसी कैरेक्टर से जुड़े होते। पढ़ाई लिखाई पर उनका ज़ोर ज़्यादा रहता। कहीं कोई मौका हो, कोई इंस्टीट्यूट हो...तुरंत बताते...वहां चले जाओ....दाखिला ले लो। शिक्षा का महत्व शायद उनसे बेहतर और कोई समझ भी नहीं सकता था। दस बरस के थे , तो मां चली गईं..पिता ने दूसरी शादी की। पढ़ाई कर पाएं , इसके लिए पैसे थे नहीं...इसलिए हाईस्कूल के बाद पढ़ाई का संकट आ गया। नौकरी की और नौकरी करते हुए साहबों के बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाते रहे॥ताकि बीए की पढ़ाई कर सकें। शायद इसीलिए उनकी कोशिश रहती कि हम अच्छे से अच्छी पढ़ाई करें, बेहतर सलीका सीखें, बेहतर इंसान बनें। इसी बरामदे में उनकी स्कूटर खड़ी होती थी...पहले लैम्ब्रेटा...फिर बजाज प्रिया। बाद में कार आई तो वो गाड़ियां जाने कहां खो गईं।
बाबूजी गजब के किस्सागो भी थे। अपने बचपन के , करियर से जुड़े ऐसे ऐसे किस्से जो अपने खत्म होने तक सबक भी देते जाएं। किस कलेक्टर ने क्या कहा...कैसे मुश्किल से निबटा कोई अधिकारी...कौन से कमिश्नर बात के पक्के थे और कौन कान के कच्चे...खूब सारी असल कहानियां। वो एक संघर्षशील शख्सियत थे, रोज़ १४ घंटे काम करते थे...गिर कर उठना उन्होंने खूब जाना था और जहां जिसकी जितनी मदद कर पाए , करते थे। मुझे याद है जब बड़े भइया फॉरेन सर्विस की नौकरी में पहली पोस्टिंग पर ज़ांबिया जा रहे थे...तो अम्मां को रोते देख कर उन्होंने कहा था...बेटवा रहै नाहर , चाहे घर रहै , चाहे बाहर।
लेकिन अब बरामदे में लेटे थे..असहाय। अम्मां के रोने की आवाज़ आती है बीच बीच में॥अस्फुट स्वर में वो जो कहती हैं..उसका मतलब ये कि वो कह के तो गए थे कि अस्पताल तक जा रहे हैं..अभी आते हैं....तो ऐसे क्यों आए...बेजान। बाबूजी की ओर फिर देखता हूं...इतने असहाय कभी नहीं दिखे वो....तब भी नहीं , जब तीन साल तक बिस्तर पर पड़े रहे। कहीं पढ़ा था...पिता का मन हिमालय की तरह होता है। अब सोचता हूं ...बाबूजी तन और मन दोनों से हिमालय थे।
सीसा झूठ नई बोलता
बैन जी इसलिए कि पारटी की बैन हैं, तो पूरे परदेस की भी हैं। मुंबई के अखबार मिड डे की कापी मेरी मेज़ पर रखी है...पेज नंबर 4 पर आपकी एक तस्वीर देख रहा हूं। आप को आप के ‘लोग’ बड़ी सी एक माला पहनाने की कोसिस कर रहे हैं। इस बार इसमें हरे हरे नोट नहीं थे...सफेद और लाल गुलाबों की इस माला को आपको पहनाने की कोसिस कर रहे लोग उसे हाथों से छू लेने को आतुर दिख रहे हैं बैन जी। काले कमांडो चारों ओर देख रहे हैं , चौकन्नी निगाहों से...कहीं बैन जी की सुरच्छा को कोई ख़तरा तो नहीं। एक हाथ आपका भी फूलों की उस माला की ओर उठ कहा है बैन जी।
फूल देख कर आप परफुल्लित भी खूब हैं....फूलों से ताकत का अंदाज़ा होता हो शायद....हमने तो माखनलाल चतुर्वेदी की वो कविता सुनी है जिसमें उन्ने फूल की अभिलासा के बारे में कुछ लिक्खा है। उन्ने कहा है कि फूल की इच्छा है कि बाग का माली उसे तोड़े और उस रास्ते में बिछा दे, जिससे चलकर देश के वीर मातृभूमि के लिए बलिदान करने जाते हों। अब तो खैर बैन जी, बलिदान देने इस परदेस के वीर क्यों जायेंगे, देने से पहले उनसे बलिदान ले लिया जाता है। लोग कैते हैं बैन जी कि लखनऊ की जेल में बंद एक डिप्टी सीएमओ का बलिदान आपके ही लोगों ने ले लिया। आपको बचाने के लिए लिया, आपके मंत्रियों को बचाने के लिए लिया बैन जी , कुछ भी किया, किया तो परदेस के लिए ही ना...तो वीर ही हुए आपके।
लेकिन बैन जी जब आप मुंबई में उन फूलों को छूने के लिए उचक रही थीं...तो परदेस का भरोसा आप पर से तार तार हो रहा था। उस समय 14 बरस की एक बच्ची दिल्ली के अस्पताल में अपनी आंखें वापस पाने की जी-तोड़ कोसिस कर रही थी...आपके ही परदेस में कुछ लोगों ने उसकी इज़्ज़त से खेलना चाहा था बैन जी...नहीं कर पाए कुछ तो उसकी दोनों आंखों में छुरा घोंप दिया। उसकी तो खैर जान बच गई ...लेकिन लखीमपुर वाली बच्ची को तो अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। ऐसा कैते हैं कि आपके कुछ पुलिसिओं ने उसकी इज़्ज़त से खिलवाड़ करना चाहा था...भगवान जाने चाहा ही था, या कुछ कर भी बैठे थे...क्योंकि पोस्टमार्टम रिपोर्ट तो कुछ और ही कैती है...लेकिन अगले दिन वो बच्ची फांसी पर लटकी मिली॥वैसे ही जैसे अपने सचान साहब लटके मिले थे।
किस्से बहुत हैं बैन जी...लखनऊ के बगल में ही बाराबंकी में भी कुछ रोज़ पैले ऐसा ही हुआ। आपकी मानें बैन जी , तो ये कांगरेसिए हैं ना...इन्हीं की करतूत है ये सब...इन्हीं के लोगों ने आपको बदनाम करने के लिए परदेस की बच्चियों को निसाना बनाया है। लेकिन बैन जी, आप परदेस की राजा हैं....आपको अपने काम से फुरसत कहां मिलती होयगी...आगे पीछे अफसरान, हुक्मरान घूमते रैते हैंगे...इसीलिए सोचा आपको बता दूं कि दिन में कुछ पल आदमी को अपने लिए रखने चइए हैंगे...एकदम अकेले बैन जी। हमारे मास्साब कैते थे.....दूसरों के सामने झूठ बोल के निकल जाओगे...लेकिन खुद से कैसे बोलोगे राजा....इसलिए बैन जी....दिन में कुछ पल सीसे के सामने खड़े रैना चाइए.....अपनी सूरत खुद देखनी चाइए.....माथे पे कितना झूठ है....आंखों में कितना....और होठों पे कितना.....सब सामने आता है। दिन भर में आपके ‘लोग’ आपके बारे में जितना झूठ बोलते हैं...वो सब आप पैचान सकती हैं .... जब सीसे में आप खुद की सकल देखती हैंगी...क्योंकि सीसा झूठ नई बोलता है ना बैन जी।
बात पते की
पहाड़ों से घिरा देश का एक कोना ऐसा है, जो आजकल दो अलग अलग तस्वीरें दिखा रहा है। ये इलाका है उत्तरांचल का देहरादून । यहां के एक अस्पताल में अभी हाल ही में देश भर के बड़े संतों ने बाबा रामदेव को जूस पिला पिला कर अनशन तुड़वाया। टेलीविजन पर प्रसारित करने के लिए इसकी तस्वीरें भी खिंचवाईं गईं और इसे राष्ट्र हित में बताया गया। लेकिन संतों की नज़र इसी अस्पताल में बिस्तर पर मौत की बाट जोह रहे उस साधु पर नहीं पड़ी, जिसने गंगा नदी के लिए महीनों से अनशन कर रखा था। वो निगमानंद थे , हरिद्वार में गंगा को , उन हाथों से बचाना चाहते थे जो नदी की तलहटी की खुदाई कर मालामाल होने में जुटे थे। सरकार ने निगमानंद की गुहार सुनी थी और खनन का काम रोक दिया था...लेकिन मामला हाइकोर्ट में गया तो स्टे लग गया।
निगमानंद इस स्टे के खिलाफ फिर अदालत के दरवाजे पहुंचे तो उन्हें ये कहकर लौटा दिया गया कि वो दूसरी बेंच में जाएं। अदालती दांवपेंच ने उस साधु को इतना हिला दिया कि उसे और कोई रास्ता नहीं सूझा॥और वो अनशन पर बैठ गया। बैठा तो फिर उठा नहीं.....चाहता तो जूस पी लेता.....लेकिन उसकी ज़िद उसे उस कोमा तक ले गई...जहां से वो फिर नहीं उठा। निगमानंद फिल्म 'गाइड' के उस राजू की याद दिलाता है, जिसे लोग ग़लती से पहुंचा हुआ साधु समझ लेते हैं। राजू जानता है कि वो कोई पहुंचा हुआ संत नहीं है, लेकिन फिर भी भोले गांववालों के उस भरोसे को तोड़ना नहीं चाहता कि उसके अनशन से बारिश ज़रूर होगी। बारिश ज़रूर हुई लेकिन कई दिनों का भूखा राजू भरोसे की वेदी पर चढ़ गया...तो फिर नहीं उठा। स्वामी निगमानंद १९ फरवरी से अनशन पर बैठे थे, यानी करीब ४ महीने उस व्यवस्था से वो अकेले लड़ते रहे , जिससे स्वामी रामदेव के ५० हज़ार चेले रामलीला मैदान में एक रात नहीं लड़ पाए। स्वामी रामदेव को तो खैर सातवें दिन इज़्ज़त बचाने के लिए जूस पीना पड़ा.....जूस पिया या अपमान का घूंट॥ये तो वही जानते हैं...लेकिन ये तय है कि सच्चे भरोसे की कीमत अपने देश में कोई नहीं समझता। अगर समझता होता , तो उमा भारती गंगा को बचाने के लिए अपनी मुहिम को अपनी पार्टी में लौटने का ज़रिया नहीं बनातीं...
अगर विश्वास की कद्र होती तो उस रात रामलीला मैदान में वो न होता जो हुआ। अगर भावनाओं की इज़्ज़त होती तो सोनिया या राहुल दूसरे दिन अस्पतालों में जाते और लोगों से उनका हाल पूछते। आखिर राहुल भट्टा पारसौल तक तो गए ही थे....रामलीला मैदान तो उनके घर से कुछ ही कदम दूर था। वर्ल्ड कप की जीत के बाद सोनिया दिल्ली के ITO चौराहे पर आ सकतीं थीं तो रामलीला मैदान तो उससे कुछ ही आगे है....चाहतीं तो जातीं...देखतीं कि वहां सोते हुए लोगों के साथ उनकी पुलिस ने जो किया है...वो भी किसी भरोसे का कत्ल है। शायद इसीलिए गाइड का राजू और हरिद्वार का निगमानंद दोनों एक ही चेहरा लगते हैं। भरोसे की इज़्जत करने वाले ऐसे चेहरे…. जिनकी कीमत हमें या तो समझ नहीं आती॥या फिर बहुत देर में समझ आती है।
देवता
वही हुआ
मैंने कहा था तुमसे
एक रोज़
पीले पड़ जाएंगे
ये पत्ते
फिर टूट टूट कर नीचे गिरेंगे
और तुम उन पर चलते हुए
दूर निकल जाओगे
तुम्हे पीछे मुड़ कर जो
नहीं देखना है