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तुम्हारे लिए


भीगी आंखों से पढ़
उस ख़त की एक एक इबारत
जल उठा एक छोटा सा
दीपक
मेरे एकदम भीतर
वेदों की पवित्र रिचाओं
सी तुम प्रकट हुईं और गर्म होठों
से छू लिया मेरा माथा

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गंगा जो इक नदी थी.....

चौंकिए मत, ये तस्वीर जो आप देख रहे हैं...जोधपुर या बाड़मेर की नहीं है। इलाहाबाद का रसूलाबाद घाट है जहां से होकर नदी कुछ अरसा पहले तक बहती थी। आज गंगा की जगह अगर कुछ दिखता है तो सिर्फ रेत के ढूहे और ऊंटों के लंबे कारवां। यहां से कुछ दूर पर ही वो संगम है जिसका पुराणों में उल्लेख है। कहते हैं कि अब सिर्फ गंगा और यमुना हैं...सरस्वती विलुप्तप्राय है। सवाल है - कहीं गंगा का भी यही हश्र न हो ? ये फोटो इलाहाबाद से स्कंद ने भेजी है जो पर्यावरण को प्रति उतने ही चिंतित हैं जितना अपने बेटों के भविष्य को लेकर।

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आरक्षण का अफ़साना

लोकसभा और राज्यसभा की गद्देदार सीटों पर बैठने वाले मर्दों को 20 साल बाद अब बुरा लग रहा है। 20 साल पहले जब मंडल कमीशन के लिए इन्हीं लोगों ने ' अलख ' जगाई थी..तब सोचा नहीं था कि एक दिन उस आंच में खुद भी झुलसना पड़ सकता है। अब मुद्दा संसद और विधानसभा में औरतों को आरक्षण देने का है। 12 साल में चौथी बार पेश हुआ तो बिल की ऐसी की तैसी कर दी गई। बाहुबलियों की एक पार्टी ने बिल को कई टुकड़ों में बांट कर उन्हें हवा में ऐसे उछाल दिया..मानों कह रहे हों कि ...जोड़ के दिखाओ तो जानें.....। ये वही लोग हैं जिन्होंने दो दशक पहले नौकरियों में आरक्षण की मांग कर राजनीति में अपनी पैठ बनाई थी...इनमें वो चेहरे भी हैं जो मंडल की आग में बच्चों को झुलसते देखते रहे...मुंह पर ताला लगा लिया और बाट जोहने लगे राज्यसभा सीटों के ईनाम की। आज वही लोग लड़ रहे हैं....कहते हैं ...जी, महिलाओं के लिए संसद और विधानसभा में आरक्षण नहीं होना चाहिए। लेकिन क्यों...नौकरियों में आरक्षण ज़रूरी है लेकिन संसद में नहीं ? क्षेत्रीय पार्टियां ज्यादा परेशान हैं। उनका शक इस बात पर है कि अगर मौजूदा विधेयक पास हो गया तो उनको पास जीत कर आने लायक महिलाएं नहीं होंगी। इसलिए आरक्षण के भीतर एक आरक्षण हो और 33 फीसदी में भी उन जातियों को आरक्षण दिया जाए जो पिछड़ी हैं। सवाल सिर्फ यही है कि आरक्षण होते हुए भी नौकरियों में सही उम्मीदवार क्यों नहीं मिलते....या आरक्षण समर्थक पार्टियों को डर क्यों है कि चुनाव जीतने लायक उम्मीदवार उनके पास नहीं...जवाब है क्योंकि उसके लिए कभी कोई कोशिश की ही नहीं गई। 61 साल हो गए आज़ादी को...प्राथमिक शिक्षा पर न जाने कितने पैसे खर्त हो गए...लेकिन हल जोत रहे किसान के बच्चे को क्लास तक लाने की आज तक कोशिश की ही नहीं गई...क्योंकि कोशिश करते ...तो दिल्ली में मजे कैसे लूटते....इसलिए आसान है कि नौकरियों में ही आरक्षण दे दो....वो तो संसद के एयरकंडीशंड हॉल में ही हो जाएगा...उसके लिए गांवों और कस्बों के धक्के खाने की ज़रूरत क्या है भला। शायद इसीलिए पिछड़े , 61 साल बाद भी पिछड़े हैं.....और अफसर वो बन रहे हैं जिनके मां बाप अफसर थे। नेताओं को नतीजे जल्दी चाहिए क्योंकि वो चुनावों में काम आते हैं.....उनके लिए समाज का ढांचा बदलना भी किसी सड़क या पुल के बनवाने जैसा है...जिसका बखान कर उन्हें अगला चुनाव जीतना होता है। लेकिन चूंकि इस तरह समाज नहीं बदलेगा....इसलिए आरक्षण की व्यवस्था भी चलती रहेगी..और चलती रहेगी दुकानें भी।

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हम अजनबी

बहुत दिनों के बाद
यादों के लंबे, अस्पष्ट
और कुहासों से भरे
गलियारों से निकलकर
तुम प्रकट हुए एक रोज़ यकायक

फिर , इत्मीनान से मिटाने लगे वे भित्तिचित्र
जो तुमने कभी 'ग़लती'
से अपने हाथों बनाये थे

दोस्त,
गिला ये नहीं कि
अपनी ही बनाई तस्वीरें
क्यों बिगाड़ दीं तुमने

दुख तो इस बात का है
कि एक 'हां' और एक 'न' के बीच
के सारे फैसले
तुम्हारे रहे और मैं
बना रहा मूक दर्शक

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मां

सिर पर लादकर जेठ की गर्मी
और कंधे पर लटका कर
चूल्हे का धुंआ
खाना बनाती है मां

इधर से उधर,उधर से इधर
पूरा आंगन कई बार नाप कर
बैठ एक जगह सुस्ताते हुए
थंडर की किलनी निकालती है मां

मां ममता का 'ज्वार' है

मीलों मील चलती है वो सपनों में
लेकिन सूर्योदय से पहले
लौट आने को,
सपनों में भी
मन नहीं लगता मां का
क्योंकि उसे चूल्हा जो जलाना है

मां को 'सच' मालूम है

दोपहर के इत्मीनान में भी
उसे चैन नहीं
काढ़ती है बेटों की फटी कमीज़ पर
भविष्य के सुंदर फूल

मां 'भविष्नियंता' है

दवाओं के टीले के पास
बैठ कर
एक एक कर
उन्हें उदरस्थ करती है मां

मां तकलीफों का 'समुद्र' है

एक रोज़ मां चली जाएगी
अपना घायल पैर
और
टूटा मन लेकर
फिर नहीं चलेगा कभी
कोई डगमगाते हुए आंगन में
सवेरे चार ही बजे
आंगन धोते हुए
जबरन नींद नहीं तोड़ेगा कोई

उसे खोजेंगे हम
कटहल के वृक्ष तले....
पुकारेंगे घर के कबाड़खाने में ....
या फिर रसोई के आसपास कहीं
ज़रूर वे होंगी..
संभव है छाया की तरह
कभी दिखाई पड़ जाएं
मां
तुलसी चौरे के पास...
जहां बच्चों के सपनों के इर्द गिर्द
कितने ही दीये बारे थे उन्होंने

मां, मां है
इस पूरे घर की...
वो आएगी ज़रूर
हम खोजेंगे उसे
जब कटहल फलेगा....
जब सब्ज़ी वाला देगा
ऊंची आवाज़....
या
जब कुत्ते स्वर्ग सिधारेंगे


मां ज़रूर आएंगी

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तुम्हारी महक


याद है मुझे
तुम्हारा चपल कदमों से
रसोई से आना और फिर जाना
फूली रोटियों की आग और
वो गरमी फिर कहीं नहीं मिली मुझे
सब्ज़ी, रोटी और दही
सब में थी तुम्हारी महक
और यक़ीन करो
वो अब भी बसी हुई
है मेरे नथुनों में
मेरी जान
तुम्हारे लिए बीत गए होंगे
इस बात को 14 साल
मेरे लिए
तो ये अभी कल की बात है

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