हथेली पे तेरा नाम उभारा क्योंकर
तुझको नज़रों के समंदर में उतारा क्योंकर
तेरा नाम मेरे नाम से मिलता ही नहीं
इस तरह नाम तेरा लेके पुकारा क्योंकर
मेरी बस्ती के उजाले भी खफ़ा हैं मुझसे
चांद तारों को अंधेरों में उतारा क्योंकर
इन निगाहों को निगाहों की कोई फिक्र नहीं
फिर ये छुप छुप के निगाहों का इशारा क्योंकर
तेरी दुनिया में सवालों के सिवा कुछ भी नहीं
फिर ये रंगीन निगाहों का नज़ारा क्योंकर
लो चलो खत्म हुआ अपना बिछड़ना मिलना
जिनसे मिलना ही नहीं उनसे किनारा क्योंकर
मसरूर अब्बास
6 comments:
Waah !! Sundar Rachna...
Huraah. the good joke.....
राकेश जी इससे पहले वाले कमेंट के लिए क्षमा करें...मैं एक अन्य ब्लॉग पर कमेंट लिख रहा था...दोनों विंडो अगुल बगल खुले थे...और कमेंट स्वैप कर गया...
वैसे अब्बास साहब की रचना काफी खूबसूरत है...अफसोस के बहाने उन्होंने मोहब्बत उड़ेल दी है...
बहुत ही सुंदर रचना है ... बहुत अच्छी लगी।
लो चलो खत्म हुआ अपना बिछड़ना मिलना
जिनसे मिलना ही नहीं उनसे किनारा क्योंकर
?????
ग़ज़ल के इस शेर का मतलब समझ नहीं पाये। फिर भी कहेंगे मस्त लिखा है जी। शुक्रिया।
वाह, मसरूफ भाई... हर शेर लाजबाब है... नहीं... लाजबाब नहीं कहूंगा... क्योंकि शब्द शिल्प के हिसाब से बहुत से अच्छे उदाहरण मिल जाएंगे... लेकिन इसके भाव अपने हैं... प्यार अपना है... अनुभव और समर्पण अपना है...
मेरी बस्ती के उजाले भी खफा हैं मुझसे
चांद तारों को अंधेरों में उतारा क्योंकर...
अज्ञेय की एक रचना की दो पंक्तियां भावसाम्य हैं...
मैं कब कहता हूं जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने...
मैं कब कहता हूं जीवन मरु नंदन कानन का फूल बने...
कांटा कठोर है तीखा है उसमें उसकी मर्यादा है...
मैं कब कहता हूं वह घटकर प्रांतर का ओछा फूल बने...
बहुत अच्छा लिखा है...
बधाई...
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