चुनावी मौसम में राजनीतिक सरगर्मियां बढ़ना तो लाज़िमी है। लेकिन वोट बैंक जुटाने के लिए जिस तरह के हथकंडे अपनाए जा रहे हैं वो सिवाए लानत के मन में कोई और भाव पैदा नहीं करते। राजनीति में 'राज' से भी ज़्यादा 'अराजकता' का अस्तित्व फलता-फूलता दिखाई देने लगा है। वरुण गांधी का विलेन बनना, उस पर माया-मेनका की डॉयलॉग डिलीवरी और फिर कहानी में लालू का नया एंगल.. यानी एक पालीटिकल थीम पर बनने वाली फिल्म के लिए सारे चालू मसाले मौजूद हैं। मामला थमा भी नहीं था कि राबड़ी देवी ने मुख्यमंत्री नीतिश कुमार के खिलाफ़ जो ज़हर उगला, वो एक राजनैतिक लड़ाई कम और एक व्यक्तिगत लड़ाई ज़्यादा दिखाई दी। समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह का महिला डीएम के साथ अभद्र भाषा का इस्तेमाल करना। नेताओं के बीच चल रहा ये वाक्-युद्ध ये पूछने पर मजबूर करता है कि...
- इस तरह का गैरजिम्मेदाराना और निहायती शर्मनाक व्यवहार अपनाने वाले नेताओं को क्या हम ये अधिकार देने के लिए तैयार हैं कि वो हमारा प्रतिनिधित्व करें ?
- लाखों लोगों के बीच चुनावी रैली करने वाले इन नेताओं के पास एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने की बजाए क्या कोई वैचारिक ज़मीन या सोच है ?
- क्या हम कभी भी जाति और धर्म की राजनीति से ऊपर नहीं उठ पाएंगे और यूं ही इन घटिया मुद्दों के आधार पर वोटो का ध्रुवीकरण होता रहेगा ?
------मीनाक्षी कंडवाल-------
3 comments:
१.अधिकार देने के लिए तैयार नहीं हैं बल्कि मजबूर और अभिशप्त हैं।
२.वैचारिक ज़मीन या सोच उतनी ही है जितनी गधे के सिर पर सींग होती है।
३.जाति और धर्म की राजनीति से ऊपर उठ गये तो आजकल के नेता इस दुनिया जहान से ही उठ जाएंगे।
इसीलिए ये सभी नेता इस लूट-खसोट और जंगल राज नुमा लोकतंत्र की व्यवस्था को कायम रखने के मामले में उतने ही एकमत हो जाते हैं जितना संसद के भीतर इनकी सुख-सुविधाओं को बढ़ाने वाले विधेयक के पक्ष में मतदान करते समय होते हैं।
आप प्रश्न बेशक पूछिए लेकिन सवाल तो सही जवाब पानेका है...!
आज के माहौल को देखते हुए राजनीति से संबंधित कोई सवाल न ही करें तो अच्छा हो।
जब जब चुनाव आतें हैं सारे नेता लगभग एक जैसे हत्कंडे अपनाते हैं और जनता इन हत्कंडों में हर बार फंसती भी है वैसे तो कहा जाता है की काठ की हांडी बार बार नहीं चढ़ती पर चुनावों और नेताओं के मामले में ये उक्ति असफल हो कर रह जाती है .
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