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आकृति की मौत के बहाने


17 बरस की आकृति अब इस दुनिया में नहीं है। दिल्ली के मॉडर्न स्कूल में पढ़ने वाली आकृति दमे की मरीज़ थी और सोमवार को जब उसे दौरी पड़ा तो देश के सबसे मंहगे स्कूलों में से एक मॉडर्न स्कूल ने हाथ खड़े कर दिए। मेडिकल फेसिलिटी के नाम पर सैकड़ों रुपये हर महीने हर बच्चे से ऐंठने वाले इस स्कूल में एक नर्स भर थी....आकृति की तबीयत जब ज़्यादा बिगड़ गई और उसके मां बाप उसे अस्पताल लेकर जाने लगे तो जैसा कि लोग बताते हैं...उस नर्स ने ऑक्सीजन का मास्क तक हटा लिया। नतीजा-आकृति ने रास्ते में ही दम तोड़ दिया।

अब आइए असल कहानी पर। दिल्ली और देश के सारे बड़े पब्लिक स्कूलों में मेडिकल सुविधा के नाम पर हर बच्चे से हर महीने 500 से ज़्यादा वसूल किया जाता है। ठीक है...वसूलिए...लेकिन जब असल ज़रूरत पड़े तो आपकी सारी मशीनरी ही फेल हो जाए...तो सवाल खड़े होते हैं...क्या स्कूल अब धंधा बन चुका है...वैसे ही जैसे अस्पताल खोलना, शराब का ठेका चलाना वगैरह वगैरह....। यानी शन्नो हो या आकृति , MCD का स्कूल हो या फिर कनॉट प्लेस के मुहाने पर खड़ा -मॉडर्न स्कूल...हर जगह बच्चे की जान लेने पर सिस्टम आमादा है। कोई देखने वाला नहीं है कि शन्नो को धूप में मुर्गा बना देने वाली टीचर की गलती है या फिर उस व्यवस्था की, जिससे निकल कर ऐसे लोग टीचर बनते हैं।

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10 comments:

देवेश वशिष्ठ ' खबरी ' said...

दिल्ली में तो स्कूल हर साल फीस बढ़ाने के लिए कुख्यात हो ही गए हैं... लेकिन फिर भी 'क्वालिटी कंट्रोल' के नाम पर और अपने बच्चों के 'फ्यूचर' के लिए मां-बाप अपना पेट काटकर शिक्षा के माफियाओं का पेट भरते हैं... लेकिन जब बात असलियत में क्वालिटी दिखाने की आती है तो इन स्कूलों के बच्चे पांच वाक्य अंग्रेजी बोलकर चुप हो जाते हैं... यही है इनका क्वालिटी कंट्रोल...

SKAND said...

The educational-system is the MOST IMPORTANT sphere yet it is one of the most UNREGULATED sector in our country. The reason lies not in the government but in us, the citizenry. Reams of paper are wasted by our press and our country cries itself hoarse over such idiocy as IPL matches being relocated to another country. In fact a plitical party tried to make capital out of that issue. But how many times have we protested over the quality of education and the infrastructure being provided in our schools. I think the debate should shift from money terms to quality terms. Shouldn't we ask as to how our educational -adminisrational system will frame a quality eduaction measurement system. The future is very bleak, i can assure you as i have ,incidently,some experience of how it is running.

Manojtiwari said...

स्कंदजी,
आपने अपने और राकेशजी के रिश्ते के बारे में कहा की मैं नहीं जानता की वो किस ऊंचे स्तर के हैं आपकी बात बिलकुल सही है मुझे शायद वास्तव में उस ऊँचाई का सही एहसास ना हो. हाँ इतना जरुर है की जो "सरपंचजी" के नियमित पाठक हैं वो आपके और राकेशजी के बीच "सरपंचजी" के मार्फ़त होने वाले वार्तालाप से ये आसानी से अंदाजा लगा सकते हैं कि आप दोनों के सम्बन्ध सिर्फ इस ब्लॉग तक सीमित ना रहकर काफी नजदीकी और घरेलू स्तर के हैं. इसके अलावा मैं आपका बहुत शुक्रगुजार हूँ कि आपने पलायनवाद का सकारात्मक रूप मुझे बहुत ही अच्छे ढंग से समझाया

Manojtiwari said...

चाहे पब्लिक स्कूल हो ये सरकारी स्कूल इस तरह की घटनाये हमारे देश में कहीं भी घट सकती हैं और घटती भी हैं और अक्सर एक के बाद एक होती चली जाती है की एक समय बाद आप चौकना बंद कर देते हैं इसे एक अपवाद एक आस्वाभाविक घटना मानने से इनकार कर देते हो. वास्तव में जरुरत हैं सिस्टम में आमूलचूल परिवर्तन की एक ऐसे सिस्टम की जहाँ ऐसे घटनाओं के पीछे ईमानदारी से वजह जानी जाती है और जो इसके लिये जिम्मेदार हो उसे दण्डित किया जाता हो और लोगों की सोच में बदलाव की जिस दिन ये हो जायेगा उसके बाद ना किसी

राकेश त्रिपाठी said...

मेरा ख्याल है कि प्रेस हर विषय के बारे में लिखता है ...वो शन्नो के बारे में भी लिखता है जो दिल्ली के MCD स्कूल में पढ़ती थी और टीचर की क्रूरता का शिकार हो गई। प्रेस आकृति के बारे में भी लिखता है जो देश के सबसे प्रतिष्ठत स्कूल की छात्रा थी और स्कूल वालों की लापरवाही का शिकार हो गई। लेकिन व्यवस्थाओं का मानदंड तो स्कूल को नहीं सरकार को ही तय करना होगा। सरकार में बैठे नेता और भ्रष्ट अफसर ही जब सुपरविज़न नहीं करेंगे तो ये सब तो चलता ही रहेगा।

SKAND said...

press kisi ghatana ko kitni gambhirata se leta hai yeh to us ghatana ke dwara covered space se asani se pata chalata hai. Baat keval press ke dwara tathyatamak coverage ki nahi hai balki jaisa aapne kabhi kaha tha tathya ke piche ke aadhar/ karan ki hai. Hum shayad yeh samajhte hain ki adhik mulya hona quality ki gurantee hai. Brand-name( adhik mulya par adharit) ka yeh vishwas shiksha mein bhi aa gaya hai. Sambhavatah kai vidyalaya apni fees isliye bhi bahut adhik rakhte hain ki unka brand-status aur uncha ho jaye. Ek tathya mahatvapurna hai- Sarkari system mein tough competition tatha yogyata se teacher recruit hote hain( exceptions apart) lekin result unki yogyata ke anurup nahi hota. Private school( adhiktam , sabhi nahi)recruitment mein yogyata ki khana-puri hoti hai.Lekin sapekshik roop se unki padhai/discipline behtar hoti hai. Karan shayad tanashahi management mein nihit hai. Humein us system ki taraf badhana hoga jahan Private schools ka rigorous financial audit ho aur Sarkari schools mein teachers ki accountability fix ki ja sake. Press ( print aur electronic) se anurodh kiya jaye ki apne forum par woh is vishya par ek sarthak bahas ko sthan de, keval school mein ho rahe bawal ke coverage( TRP hetu) tak simit na rah kar nidaan( diagnosis) tatha nivaraan par focus kare.

राकेश त्रिपाठी said...

नहीं ,
मेरा मानना है कि प्रेस के ज़रिये किसी देश की सरकार नहीं चलनी चाहिए। प्रेस उन पर नज़र रखे..बस। असल काम तो नेतृत्व का है। कई अफसर होते हैं...किसी प्रेशर की कोई परवाह नहीं करते। नियमों को लागू करवाते हैं...भले ही उनके ट्रांसफर होते रहे हों...यूपी में ही ऐसे IAS अफसर भी रहे हैं जो बोरिया बिस्तर बांध कर साथ रहते हैं...भेज दो जहां भेजना है। आखिर नेतृत्व में कड़ाई का स्वागत तो किया ही जाना चाहिए-भले ही उसे तानाशाही कहें-लेकिन ज़रूरी तो है वो। जैसे मां बाप बच्चे को अगर समझाएं और बात न बने तो डांटे या एक थप्पड़ मार दें, तो उसे तानाशाही नहीं कहना चाहिए। अफसरी भी ऐसी ही होनी चाहिए। शुरू में कड़क अफसर के रहते लोग भिन्नाते हैं...क्योंकि वो शार्टकट खत्म कर देता है...फिर जब उसका ट्रांसफर होता है , खबर अखबार में छपती है, तो वही लोग उसके समर्थन में धरना प्रदर्शन करते हैं। दुर्भाग्य ये है कि अब जैसे ही कोई अफसर बनता है, अपनी सात पीढ़ियों का इंतज़ाम करने में लग जाता है तो वो कैसे किसी स्कूल के प्रिंसिपल से पूछे कि अपने रजिस्टर दिखाओ। मिसलेनियस के नाम पर ली जा रही फीस कहां जाती है ? अब ये पूछने के लिए भी कलेजा चाहिए। इसलिए कोई पूछता नहीं। डॉक्टर नरेश त्रेहन का ज़िक्र करूंगा-उनका हताशा भरा स्टेटमेंट था कि- 'कभी कभी सोचता हूं कि देश कौन चला रहा है..समझ में ही नहीं आता कि कैसे चल रहा है सब। चल भी रहा है कि नहीं'

खुद मैंने देखा है कि ईमानदार नेता जब मंत्री बनता है तो कुछ खास नहीं कर पाता। मैंने देखा है कि उसके सेक्रेटरी उसे हर काम में कोई न कोई अड़चन दिखा ही देते हैं। काम वही होता है जो सेक्रेटरी साहब चाहते हैं। क्योंकि मेंत्री जी में इतनी गट्स नहीं है कि सामने लाए कागज़ पर सवाल पूछ सकें। मेरी राय में तो घूसखोरी को लीगल कर देना चाहिए .....कम से कम लोगों के काम तो होंगे...दूसरी बात सरकार को भी छठें, सातवें और आठवें वेतन आयोग की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। क्योंकि सरकारी नौकर के लिए तनख्वाह तो किसी ऊंट के लिए जीरे की तरह होती है।

SKAND said...

Yeh sarkari naukaron pe tipanni to vishyantar ho gaya hai. Democracy chalane mein sabse avashyak hai janata ki maange ( jo satat parivartanshil hai) satat roop se niranaya lene wali sansathaon ko avagat karaya jana. Press ki bhumika yahin par mahatavapurna ho jati hai. Kabhi-kabhi koi badi ghatana ( Akriti ki maut jaisi) bhi is maang ki janak ho jati hai. Sahi hai ki niranayakari sansathayen( policy makers and the executive ) ko action lena chahiye lekin unko batae ga kaun. Batane wale to jhaad-phunk, dharti ka ant, call-girls racket ke bhandaphod jaise mahatavpurna vishayon par vimarsh mein vyast hain. Unhe kahan fursat ki yadi desh ka koi ang ( policy-makers and executive) apna kaam nahi kar rahe hain to unhe chetaya jaye.

राकेश त्रिपाठी said...

पहली बात-इस देश के अखबार और टीवी चैनल जो काम कर रहे हैं वो कुल मिलाकर प्रशंसनीय है। एक चैनल में भूत प्रेत की कथाएं चला करती थीं ..अब कहीं दिखती नहीं हैं। किसी एक चैनल को देखकर सबको एक जैसा कहना गलत है। दूसरी बात देश के सारे बड़े घोटालों और भ्रष्टाचार को अगर किसी ने बेनकाब किया है तो वो मीडिया ही है। प्रियदर्शिनी मट्टू हत्याकांड की बात करें या जेस्सिका लाल मर्डर या फिर नीतीश कटारा की हत्या का मामला। अगर मीडिया ने कमान न संभाली होती तो इस देश के पुलिस वालों ने फैसला कर ही दिया था। सिर्फ और सिर्फ मीडिया ने इन मामलों का फॉलोअप किया और जूडिशरी तक पर दबाव बना कि फैसला जल्द आए। तीसरी बात-सरकारी मशीनरी ही तो ये तय करेगी कि स्कूलों में फीस कितनी ली जाएगी। वो मशीनरी कहां है आज।

SKAND said...

Isiliye to kah raha hun ki chunki press yadi chahe to executive se achcha kaam karva sakta hai atah use is case mein bhi yahi karna chahiye. Waise main yeh bhi batana chahunga ki educational-adminisrators private schools ke mamlon mein kuch bandhe hue hain kyonki laws hi nahi hain jo unhe autority de sakein ( this is the job of legislative). Press us public opnion ko generate kar sakta hai jo legislators ko regulatory laws banane ke liye majbur kar de.