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एक खुला खत आतंकवादियों के नाम


प्रिय महानुभावो,


इस खत का मकसद उन गलतफहमियों को दूर करना है जो हमारे और आपके बीच हैं। जयपुर, बेंगलुरु, अहमदाबाद, दिल्ली और अब गुवाहाटी - हाल के इन आतंकी हमलों से यह एकदम साफ है कि आपके दिलों में बेहद गुस्सा है।

गुस्सा हमारे दिलों में भी बहुत है। पिछले छह दशकों से हर पांचवें साल चुनाव के कुछ हफ्तों के दौरान हमारे इस गुस्से की वजहें भूख, बेरोजगारी, बिजली, सड़क आदि मुद्दों के रूप में सामने आती रही हैं। लेकिन, यह चर्चा फिर कभी। सच बताएं तो कटे-फटे शरीर, बिखरे खून की तस्वीरें हमें विचलित कर देती हैं। यह खून आम आदमी का होता है, जो हर पांच साल के बाद आने वाले उस एक दिन के लिए जीता है, जब वह लंबी कतारों में खड़े होकर शांति से वोट देने के लिए अपनी बारी का इंतजार करता है। बाकी के दिन वह गलियों में रेंगता रहता है, क्योंकि मुख्य सड़कें प्राय: उन लोगों के काफिलों के लिए रिज़र्व रहती हैं जिन्हें वोट देकर वह सत्ता में पहुंचाता है।

मुझे पक्का यकीन है कि आपलोग हमारे ही आसपास के होंगे। आप भी उन स्कूलों में से किसी में जरूर गए होंगे जिन पर इस देश को इतना नाज़ है। जहां, शिक्षक अगर हों तो वे ऊंघते होते हैं, फर्नीचर हो तो वह टूटा-फूटा होता है, खाना हो तो वह सड़ा-गला होता है और मकान हो तो वह जर्जर होता है। उससे पहले आप लोग भी हमारे बीच ही पल-बढ रहे होंगे, जब नफरत ने आपको जकड़ लिया और आप वह बन गए जो कि आज आप हैं। आश्चर्य नहीं कि आप हमारे बारे में इतनी सारी बातें इतने अच्छे से जानते हैं। लेकिन, मैं आपको एक जरूरी बात बताना चाहता हूं। आप गलत लोगों को निशाना बना रहे हैं। हम लोग नाचीज़ हैं। हमारे खून का कोई रंग नहीं। हमारी जिंदगी का भी कोई मोल नहीं है। जिस दिन हम अपना प्रतिनिधि चुन लेते हैं, बस उसी दिन से हम जीना छोड़ देते हैं। उसके बाद से हमारे प्रतिनिधि ही जीते हैं। हालांकि, हम मरते नहीं, क्योंकि हमें पांच साल के बाद फिर वोट देना होता है और इस दौरान तरह-तरह के टैक्स भी चुकाते रहना होता है। हमारी कोई सुरक्षा नहीं, लेकिन हमारे प्रतिनिधि चौबीसो घंटे कड़ी सुरक्षा में रहते हैं।

हम अपना प्रतिनिधि इसलिए चुनते हैं ताकि वे हमारी शिकायतें सुन सकें। अगर आपको हम आम लोगों से कोई शिकायत है तो कृपया उनसे मुखातिब हों। उनका पता? सबसे आलीशान इलाकों की सबसे आलीशान इमारतें।

अग्रिम धन्यवाद

एक आम आदमी

--नवभारत टाइम्स से साभार

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3 comments:

Unknown said...

बहुत सही लिखा है आपने पर कोई असर नहीं होगा. मैंने भी एक ऐसा ही ख़त लिखा था पर कोई असर नहीं हुआ. आम आदमी आम आदमी को मारे, यही आम आदमी का भाग्य है. कारण कोई भी हो, आम आदमी के हाथों आम आदमी ही मरता है.

गगन शर्मा, कुछ अलग सा said...

अभी कहीं पढ़ा था कि ट्रेनिंग के दौरान 'इन्हें' बताया जाता है कि इनका टारगेट आम आदमी होना चाहिए, जगहें वह होनी चाहियें जहां विशिष्ट लोग ना आते जाते हों। क्योंकि गलती से भी कोई नेता हत्थे चढ़ गया तो सरकारी तंत्र आफत खड़ी कर देगा। कहानियों में पढ़ते थे कि पहले राजकुमारों या उच्च वर्ग के शिष्यों को डराने के लिए कुछ 'गुरू' निम्न वर्ग के बच्चों को दंड देते थे।

राकेश त्रिपाठी said...

बिल्कुल ठीक फरमाया साहब आपने