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राज ठाकरे की चिंता जायज है, तरीका गलत

" नीम का पत्ता कड़वा है, राज ठाकरे ... ड़वा है" (सपा की एक सभा में यह कहा गया और इसी के बाद यह सारा नाटक शुरू हुआ)। यह नारा मीडिया को दिखाई नहीं दिया, लेकिन अमर सिंह को "मेंढक" कहना और अमिताभ पर शाब्दिक हमला दिखाई दे गया। अबू आजमी जैसे संदिग्ध चरित्र वाले व्यक्ति द्वारा एक सभा में दिया गया यह वक्तव्य - मराठी लोगों के खिलाफ़ जेहाद छेड़ा जाएगा, जरूरत पड़ी तो मुजफ़्फ़रपुर से बीस हजार लाठी वाले आदमी लाकर रातोंरात मराठी और यह समस्या खत्म कर दूँगा - भी मीडिया को नहीं दिखा (इसी के जवाब में राज ठाकरे ने तलवार की भाषा की बात की थी)। लेकिन, मीडिया को दिखाई दिया और उसने पूरी दुनिया को दिखा दिया बड़े-बड़े अक्षरों में "अमिताभ के बंगले पर हमला ..." । बगैर किसी जिम्मेदारी के बात का बतंगड़ बनाना मीडिया का शगल हो गया है।

अमिताभ यदि उत्तरप्रदेश की बात करें तो वह ' मातृप्रेम ' , लेकिन यदि राज ठाकरे महाराष्ट्र की बात करें तो वह सांप्रदायिक और संकीर्ण ... है ना मजेदार!!! मैं मध्यप्रदेश में रहता हूँ और मुझे मुम्बई से कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन मीडिया, सपा और फ़िर बिहारियों के एक गुट ने इस मामले को जैसा रंग देने की कोशिश की है, वह निंदनीय है। समस्या को बढ़ाने, उसे च्यूइंगम की तरह चबाने और फ़िर वक्त निकल जाने पर थूक देने में मीडिया का कोई सानी नहीं है। सबसे पहले आते हैं इस बात पर कि "राज ठाकरे ने यह बात क्यों कही?" इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि जबसे (अर्थात गत बीस वर्षों से) दूसरे प्रदेशों के लोग मुम्बई में आने लगे और वहाँ की जनसंख्या बेकाबू होने लगी तभी से महानगर की सारी मूलभूत जरूरतें (सड़क, पानी, बिजली आदि) प्रभावित होने लगीं, जमीन के भाव अनाप-शनाप बढ़े जिस पर धनपतियों ने कब्जा कर लिया। यह समस्या तो नागरिक प्रशासन की असफ़लता थी, लेकिन जब मराठी लोगों की नौकरी पर आ पड़ी (आमतौर पर मराठी व्यक्ति शांतिप्रिय और नौकरीपेशा ही होता है) तब उसकी नींद खुली। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
वक्त के मुताबिक खुद को जल्दी से न ढाल पाने की बहुत बड़ी कीमत चुकाई स्थानीय मराठी लोगों ने, उत्तरप्रदेश और बिहार से जनसैलाब मुम्बई आता रहा और यहीं का होकर रह गया। तब पहला सवाल उठता है कि उत्तरप्रदेश और बिहार से लोग पलायन क्यों करते हैं? इन प्रदेशों से पलायन अधिक संख्या में क्यों होता है दूसरे राज्यों की अपेक्षा? मोटे तौर पर साफ़-साफ़ सभी को दिखाई देता है कि इन राज्यों में अशिक्षा, रोजगार उद्योग की कमी और बढ़ते अपराध मुख्य समस्या है, जिसके कारण आम सीधा-सादा बिहारी यहाँ से पलायन करता है और दूसरे राज्यों में पनाह लेता है। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि उत्तरप्रदेश और बिहार से आए हुए लोग बेहद मेहनती और कर्मठ होते हैं (हालांकि यह बात लगभग सभी प्रवासी लोगों के लिए कही जा सकती है, चाहे वह केरल से अरब देशों में जाने वाले हों या महाराष्ट्र से सिलिकॉन वैली में जाने वाले)। ये लोग कम से कम संसाधनों और अभावों में भी मुम्बई में जीवन-यापन करते हैं, लेकिन वे यह जानते हैं कि यदि वे वापस बिहार चले गए तो जो दो रोटी यहाँ मुम्बई में मिल रही है, वहाँ वह भी नहीं मिलेगी।
इस सब में दोष किसका है? जाहिर है, उन्हीं का, जिन्होंने गत पच्चीस वर्षों में इस देश और इन दोनो प्रदेशों पर राज्य किया। यानी कांग्रेस को छोड़कर लगभग सभी पार्टियाँ। सवाल उठता है कि मुलायम, मायावती, लालू जैसे संकीर्ण सोच वाले नेताओं को उप्र-बिहार के लोगों ने जिम्मेदार क्यों नहीं ठहराया? क्यों नहीं इन लोगों से जवाब-तलब हुए कि तुम्हारी घटिया नीतियों और लचर प्रशासन की वजह से हमें मुंबई पलायन करना पड़ता है? क्यों नहीं इन नेताओं का विकल्प तलाशा गया? क्या इसके लिए राज ठाकरे जिम्मेदार हैं? आज उत्तरप्रदेश और बिहार पिछड़े हैं, गरीब हैं, वहाँ विकास नहीं हो रहा तो इसमें किसकी गलती है? क्या कभी यह सोचने की और जिम्मेदारी तय करने की बात की गई? उल्टा हो यह रहा है कि इन्हीं अकर्मण्य नेताओं के सम्मेलन मुम्बई में आयोजित हो रहे हैं, उन्हीं की चरण वन्दना की जा रही है जिनके कारण पहले उप्र-बिहार और अब मुम्बई की आज यह हालत हो रही है।
उत्तरप्रदेश का स्थापना दिवस मुम्बई में मनाने का तो कोई औचित्य ही समझ में नहीं आता। क्या महाराष्ट्र का स्थापना दिवस कभी लखनऊ में मनाया गया है? लेकिन अमरसिंह जैसे धूर्त और संदिग्ध उद्योगपति कुछ भी कर सकते हैं और फ़िर भी मीडिया के लाड़ले (?) बने रह सकते हैं। मुम्बई की एक और बात मराठियों के खिलाफ़ जाती है, वह है भाषा अवरोध न होना। मुम्बई में मराठी जाने बिना कोई भी दूसरे प्रांत का व्यक्ति कितने भी समय रह सकता है। यह स्थिति दक्षिण के शहरों में नहीं है, वहाँ जाने वाले को मजबूरन वहाँ की भाषा, संस्कृति से तालमेल बिठाना पड़ता है।
कुल मिलाकर सारी बात, घटती नौकरियों पर आ टिकती है। महाराष्ट्र के रेलवे भर्ती बोर्ड का विज्ञापन बिहार के अखबारों में छपवाने का क्या तुक है? एक तो वैसे ही पिछले साठ सालों में से चालीस साल बिहार के ही नेता रेलमंत्री रहे हैं। रेलें बिहारियों की बपौती बन कर रह गई हैं (जैसे अमिताभ सपा की बपौती हैं) मनचाहे फ़्लैग स्टेशन बनवा देना, आरक्षित सीटों पर दादागिरी से बैठ जाना आदि वहाँ मामूली(?) बात समझी जाती है। हालांकि यह बहस का एक अलग विषय है, लेकिन फ़िर भी यह उल्लेखनीय है कि बिहार में प्राकृतिक संसाधन भरपूर हैं, रेल तो उनके "घर" की ही बात है, लोग भी कर्मठ और मेहनती हैं, फ़िर क्यों इतनी गरीबी है और पलायन की नौबत आती है, समझ नहीं आता। और इतने स्वाभिमानी लोगों के होते हुए बिहार पर राज कौन कर रहा है? शहाबुद्दीन, पप्पू यादव, तस्लीमुद्दीन, आनन्द मोहन आदि। ऐसा क्यों?
एक समय था जब दक्षिण भारत से भी पलायन करके लोग मुम्बई आते थे, लेकिन उधर विकास की ऐसी धारा बही कि अब लोग दक्षिण में बसने को जा रहे हैं। ऐसा बिहार में क्यों नहीं हो सकता? समस्या को दूसरे तरीके से समझने की कोशिश कीजिए ... यहाँ से भारतीय लोग विदेशों में नौकरी करने जाते हैं, वहाँ के स्थानीय लोग उन्हें अपना दुश्मन मानते हैं। हमारी नौकरियाँ छीनने आए हैं ऐसा मानते हैं। यहाँ से गए हुए भारतीय बरसों वहाँ रहने के बावजूद भारत में पैसा भेजते हैं, वहाँ रहकर मंदिर बनवाते हैं, हिन्दी कार्यक्रम आयोजित करते हैं, स्वतंत्रता दिवस मनाते हैं। जब भी उन पर कोई समस्या आती है वे भारत के नेताओं का मुँह ताकने लगते हैं, जबकि इन्हीं नेताओं के निकम्मेपन और घटिया राजनीति की वजह से लोगों को भारत में उनकी योग्यता के अनुसार नौकरी नहीं मिल सकी थी, यहाँ तक कि जब भारत की क्रिकेट टीम वहाँ खेलने जाती है तो वे जिस देश के नागरिक हैं उस टीम का समर्थन न करके भारत का समर्थन करते हैं, वे लोग वहाँ के जनजीवन में घुलमिल नहीं पाते, वहाँ की संस्कृति को अपनाते नहीं हैं, क्या आपको यह व्यवहार अजीब नहीं लगता? ऐसे में स्वाभाविक रूप से स्थानीय लोग उनके खिलाफ़ हो जाते हैं। तो इसमें आश्चर्य कैसा? हमारे सामने फ़िजी, मलेशिया, जर्मनी आदि कई उदाहरण हैं, जब भी कोई समुदाय अपनी रोजी-रोटी पर कोई संकट आता देखता है तो वह गोलबन्द होने लगता है। यह सामान्य मानव स्वभाव है।
फ़िर से रह-रह कर सवाल उठता है कि उप्र-बिहार से पलायन होना ही क्यों चाहिए? इतने बड़े-बड़े आंदोलनों का अगुआ रहा बिहार इन भ्रष्ट नेताओं के खिलाफ़ आंदोलन खड़ा करके बिहार को खुशहाल क्यों नहीं बना सकता? खैर ... राज ठाकरे ने हमेशा की तरह "आग" उगली है और कई लोगों को इसमें झुलसाने की कोशिश की है। हालांकि इसे विशुद्ध राजनीति के तौर पर देखा जा रहा है और जैसा कि तमाम यूपी-बिहार वालों ने अपने लेखों और ब्लॉग के जरिए सामूहिक एकपक्षीय हमला बोला है उसे देखते हुए दूसरा पक्ष सामने रखना आवश्यक था। इस लेख को राज ठाकरे की तारीफ़ न समझा जाए, बल्कि यह समस्या का दूसरा पहलू (बल्कि मुख्य पहलू कहना उचित होगा) देखने की कोशिश है। शीघ्र ही पुणे और बंगलोर में हमें नए राज ठाकरे देखने को मिल सकते हैं।


---सुरेश चिपलूनकर
(नवभारत टाइम्स से साभार)




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4 comments:

चम्पक भूमिया said...

पिछले साल 55 हजार मराठी रेलवे की परीक्षा में बैठे लेकिन सिर्फ 54 लिये गये। इस वर्ष 1 लाख पचास हजार में से सिर्फ 82 लिये गये। रेलवे की सेवा में जानबूझ कर सिर्फ बिहारी यादवों को लिया जा रहा है।

कल सतीश पंचम ने बताया कि बिहार के लोग बचपन से ही कम्पटीषन की तैयारी कर देते हैं, इसलिये आ जाते हैं। चलो मान लिया कि मराठी बेवकूफ है लेकिन वो राष्ट्रीयकृत बैंकों में कैसे आ जाते हैं? इन्श्यूरेन्स में कैसे आ जाते हैं,, एयर इंदिया में कैसे आ जाते हैं? क्या इनकी परीक्षायें रेलवे से आसान होती हैं?

पिछले साल उड़ीसा के रेलवे भर्ती में 90 प्रतिशत बिहार से भरे गये। रेलवे पोलीस में 70 प्रतिशत बिहार से भरे जा रहे हैं। बिहार के लोग बहुत मेधावान हैं लेकिन बाकी जगह के लोग हर परीक्षा में पास हो जाते हैं लेकिन सिर्फ रेलवे में क्यों नहीं?

क्या कर्णाटक के लोग भी कम अक्ल वाले हैं? सिर्फ महाराष्ट्र ही नहीं कर्णाटक में भी कन्नड रक्षण वेदिके नाम की संस्था ने लालू यादव के द्वारा पैसे लेकर बिहारी लोगों को नौकरियां बेचने के खिलाफ आंदोलन कर रखा है।
जिन नेताओं ने अपनी स्वार्थपरता के चलते बिहार को उजाड़ दिया अब वही बिहार के हितैषी बनने का तमाशा कर रहे हैं

Vivek Gupta said...

चूँकि किंतु परन्तु और माने कि; फिर भी मैं ये समझ नहीं पाया कि इस काम के लिए लोगों को मारना पीटना और जान से मार देना का कारन समझ नहीं आया | अगर भ्रस्ताचार हो रहा है तो इसकी नियामक संस्थाए उपलब्ध हैं |

Satyajeetprakash said...

चिंता जायज है, पर हमला नाजायज. बिहार के लोग पलायन करते हैं, यहां के घटिया नेताओं की वजह से जो सामाजिक न्याय के नाम पर समाज को खत्म कर दिए हैं.
जहां तक संसाधन की बात है. सुरेश जी ने लिखा कि बिहार में संसाधन प्रचूर है. यह ठीक नहीं है. विभाजन के पूर्व बिहार के पास संसाधन है. विभाजन के बिहार यह संसाधन के रूप में बाढ और सुखाड़ है. कोई थोड़ा बहुत विकास की बात करता है. बाढ़ उसे ऐसा सबक सिखा जाती है कि अगले दस बरसों तक उसे होश ही नहीं रहता.
जिस हाल में और राज्यों के लोग आत्महत्या कर लेते हैं, उस हाल में बिहार लोग कमाने निकल पड़ते हैं, लेकिन इन लोगों के साथ लोग जानवरों से भी बदतर सलूक करते हैं, फिर भी ये कुछ नहीं बोलता है. लेकिन अब तो इसकी हत्या करने लगे हैं. राजठाकरे में इतना ही दम है तो वे उन नेताओं से बदला लें जो उन्हें निशाना बनाते हैं. आम बिहारी उनका क्या बिगाड़ता है.

SANJAY KUMAR said...

Chiplunkarji,

You want mgrants to assimilate into culture of country of migration, so you are against the celebration of Uttar Pradesh Diwas, Himdi Diwas...etc. etc...

I understand from your blog that you are a resident of Madhya Pradesh. I fail to understand, why are keeping your surname as Chiplunkar i.e. one who belongs to Chiplun ( A place in Maharashtra) to show your association with Maharashtra.